शनिवार, 25 जुलाई 2009

व्यंग्य 10: सखेद सधन्यवाद ,....

इधर विगत कुछ दिनो से जब मेरी रचनाएं ’सखेद सधन्यवाद’ वापस आने लगी तो मुझे हिंदी की ’दशा’ व ’दिशा’ दोनों की चिन्ता होने लगी।अब यह देश नहीं चलेगा। रोक देंगे हिंदी के विकास रथ को ये संपादकगण। ले डूबेंगे हिंदी को ये सब।जितने उत्साह व तत्परता से मैं अपनी रचना भेजता था उससे दूने उत्साह से संपादकगण उसे ’सखेद सधन्यवाद’कर देते थे। कहते हैं कि कुछ अति उत्साही युवा संपादक तो अपनी प्रेमिका के ’प्रेम-पत्र’ भी ’सखेद सधन्यवाद’कर देते है ;और प्रौढ़ संपादकों की प्रौढ़ पत्नियाँ तो ’सखेद सधन्यवाद’ मायके में पड़ी पड़ी ’कर्म’ का रोना रोती रहती हैं ।
वैसे रचनाएं लौटती तो बहुतों की हैं ,मगर प्रत्यक्ष प्रगट नहीं करते ।यदि किसी ने पूछ लिया तो कहते हैं -’भईए !मैं छ्पास में विश्वास नहीं करता ।मैं तो ’स्वान्त: सुखाय ,बहुजन हिताय’ लिखता हूँ ।यदि मेरी रचना से इस असार संसार का एक भी प्राणी प्रभावित हो जाय तो मैं अपनी रचना की सार्थकता समझूँगा।यही मेरा पुरस्कार है ,यही मेरा सुख। यह बात अन्य है कि यह हितकारी कार्य अब तक नहीं हुआ है। पत्रिका कार्यालयों में तो वह संपादकों की आरती उतारने जाते हैं। अगर भूले-भटके ’फ़िलर-मैटेरियल’ के तौर पर यदा-कदा कोई रचना छ्प भी गई तो अति श्रद्धाविनत हो कहते हैं-’अरे क्या करें ! यह पत्रिकावाले मानते ही नहीं थे,बहुत आग्रह किया तो देना ही पड़ा।
फ़िर रचना की छ्पी प्रतियां बन्दरिया की तरह सीने से लगाए गोष्ठी-गोष्टी घूमते रहते हैं
मैं उन लोगो में से नही। स्वीकरोक्ति में विश्वास करता हूँ। जब कोई रचना वापस आ जाती है तो मैं भगवान से अविलम्ब प्रार्थना करता हूँ ’हे भगवान दयानिधान ! इन संपादकों को क्षमा कर इन्हे नहीं मालूम कि यह क्या कर रहे हैं ,हमें यह नहीं मालूम कि हम क्या लिख रहे हैं’
सत्य तो यह है कि मेरी कोई रचना आज तक छ्पी ही नहीं। ’सखेद सधन्यवाद’ की इतनी पर्चियां एकत्र हो गई हैं मेरे पास कि इण्डिया गेट पर बैठ आराम से "झाल-मुढ़ी’ बेंच सकता हूँ। वैसे बहुत से लेखक यही करते हैं मगर जरा बड़े स्तर पर। अपने अपने स्तर का प्रश्न है।
"मिश्रा ! अब यह देश नही चलेगा ,हिंदी भी नहीं चलेगी।"- मैने लौटी हुई समस्त रचनाओं की पीड़ा समग्र रूप से उड़ेल दी।
" क्या फिर कोई ’अमर’ रचना वापस लौट आई है?’-मिश्रा ने पूछा
"अरे! तुम्हे कैसे मालूम?"-मैनें आश्चर्यचकित होकर पूछा
"विगत पाँच वर्षों से तुम यही रोना रो रहे हो.। सच तो यह है बन्धु ! भारतेन्दु काल से लेकर ’इन्दु काल’ (कवि या कवयित्री यदि कोई हों) तक हिंदी ऐसे ही चल रही है ।सतत सलिला है ,पावन है । सतत प्रवाहिनी गंगा कैसे मर सकती है?
मिश्रा जी अपने इस ’डायलाग’ पर संवेदनशील व भावुक हो जाया करते है और हिंदी प्रेम के प्रति आँखों में आँसू के दो-चार बूँद छ्लछ्ला दिया करते हैं।
’परन्तु गंगा में प्रदूषण फैल तो रहा है न’- मैने उन्हें समझाना चाहा
’ज्यादा कचरा तो यह ’बनारस’ वाले डालते हैं’- उन्होने मेरी तरफ़ एक व्यंग्य व कुटिल मुस्कान डालते हुए कहा
’और इलाहाबाद वाले क्या कम प्रदूषित करते हैं’-मैने भी समान स्तर के व्यंग्यबोध में प्रतिउत्तर दिया
’देखिए मैं कहे देता हूँ ,मेरे शहर को गाली मत दीजिए’
’तो आप ने कौन सी आरती उतारी है’
’आप ने इलाहाबाद को पढा है? आप कैसे कह सकते है कि कचरा इलाहाबाद वाले डालते हैं?’
’क्यों नहीं कह सकता? जिस ज्ञान से आप बनारस वालों को कह सकते हैं’
’तुम्हारी इसी संकीर्ण मानसिकता से तुम्हारी रचानाएं वापस आ जाती है।अरे! मैं तो कहता हूँ कि वह संपादक भले हैं जो ऐसा कचरा लौटा देते हैं ,वरना तुम्हारा लेखन तो लौटाने योग्य भी नही है’
मैं ’हिटलर" की तरह फ़ुफ़कारने वाला ही था,फ़ेफ़ड़े में श्वास भर ही रहा था कि मिश्रा ने मेरी दुखती रग पर हाथ रख दिया। ’सखेद सधन्यवाद’ वाली नस।मैं ’हिटलर’ से ’बुद्ध’ बन गया।कहा-
’मिश्रा ! हिंदी का भट्ठा कचरे से नहीं बैठता ,बैठता है हमारी-तुम्हारी लड़ाई से।
मिश्रा जी ठण्डे हो गये। हिंदी के साहित्यकार थे/
’मगर मिश्रा जी, हमें तो इसमें संपादकों का कोई बड़ा षड्यन्त्र लगता है। विदेशी मीडिया का भी हाथ हो सकता है।हो सकता है कि किसी पड़ोसी देश की राजनैतिक साजिश हो कि हिंदी को पनपने ही न दो, पाठक जी की सारी रचनाएं सखेद सधन्यवाद वापस करते रहो। हमें इसके विरुद्ध एक सशक्त आन्दोलन चलाना चाहिए,एक बड़ा संघर्ष छेड़ना चाहिए।
" मगर हिंदी में संघर्ष तो खेमा से चलता है.बड़ा खेमा ,बड़ा संघर्ष ।बारह खम्भे ,चौसठ खूँटा।"
" अरे है ना, जुम्मन मियाँ से कह कर बड़ा खेमा लगवा लेंगे"
"और योद्धा?"
" हैं न ,हम ,तुम और वो"
"वो कौन?- मिश्रा ने सशंकित दॄष्टि से देखा
"वो? अरे वह नुक्कड़ का पाण्डेय पानवाला,जब तक पान लगाता है मेरी कविता बड़े चाव से सुनता है। और जानते हो?असली योद्धा तो दो-चार ही होते हैं,अन्य तो मात्र ’बक-अप’ बक-अप’ करते रहते हैं"- मैनें मिश्रा जी की जिज्ञासा शान्त की।
आन्दोलन छेड़ने के लिए मानसिक धरातल तैयार कर लिया। कुछ अग्नि-शिखा से शब्द,कुछ विष-सिक्त वाक्य रट लिए।आन्दोलन का शुभारम्भ स्थानीय स्तर से हो तो उत्तम है। दुर्वासा बन कर एक स्थानीय संपादक के कार्यालय में घुस गया और फुँफकारते हुए कहा-
"आप लोगो ने सत्यानाश कर दिया है हिंदी का।’
" आप जैसे कितने कुकुरमुत्ते उग आए है आज कल।"- उक्त संपादक दूसरा दुर्वासा निकला
"देखिए ! कुत्तों को गाली मत दीजिए "- मैने कुत्तो के प्रति समर्थन जताते हुए कहा
"क्यो न दूँ ,यहाँ जो भी आता है अपने को प्रेमचन्द बताता है। चैन से सोने भी नहीं देते उस महान आत्मा को"
"आप ने मेरी रचनाएं पढी है?"
" पढ़ी है ,अरे मैं पूछ्ता हूँ कि वात्सायन (कामसूत्र वाले) से आगे भी कुछ लिखा गया है कि नहीं?
" जब तक आप अतीत से जुड़ेगे नहीं...’काम’ से जुड़ेगे नहीं...."
इससे पूर्व कि मैं अपनी बात पूरी करता ,दो लोगो ने मुझे सशरीर उठा कर ’सखेद सधन्यवाद ’ कर दिया।
०० ००००० ००००
मिश्रा जी सुबह सुबह आ गये।
" मिश्रा जानते हो ,कल मैं एक संपादक से मिला था ।खूब खरी-खोटी सुनाई। मैने कहा कि आप लोगो ने हिंदी का सत्यानाश कर रखा है"
" अच्छा ! -मिश्रा जी उत्सुक हो सुनने लगे -" तो क्या कहा उसने’
’यही तो रोना है ,कहा कुछ भी नहीं ,सशरीर सखेद कर दिया अपने कक्ष से "
अभी युद्ध वर्णन चल ही रहा था कि डाकिए ने आकर एक लिफ़ाफ़ा थमाया। खोला तो देखा रचना प्राप्ति व प्रकाशन-स्वीकृति पत्र था। मन ही मन नतमस्तक हुआ उस संपादक के प्रति।उसके हिंदी प्रेम के प्रति । अरे! क्या हुआ जो उसकी पत्रिका वर्ष में एक बार छपती है। छपती तो है न ।ग्रामीण पॄष्ट भूमि की.गाँव की सोंधी मिट्टी से जु्ड़ी, जहाँ भारत की आत्मा आज भी बसती है ।
" देख मिश्रा ,मैं कहता था न , अब भी कुछ सुधी संपादक हैं"
"और वह खेमा? वह आन्दोलन?"
" छोड़ो यार ! बाद में देखेंगे ।अभी मुझे अगली रचना भेजनी है"
और मैं अपनी कलम में स्याही भरने लगा।
।अस्तु।
-आनन्द

रविवार, 19 जुलाई 2009

सुदामा की खाट : व्यंग्य संग्रह[भूमिका से]

प्रिय मित्रो !
"सुदामा की खाट’- मेरा दूसरा सद्द: प्रकाशित व्यंग्य-संग्रह’ है.जिसमें विभिन्न सामाजिक विद्रूपताओं पर लिखे गए १७ व्यंग्यों का संकलन है’ ।इस पुस्तक का प्रकाशन
’अयन प्रकाशन
१/२० ,महरौली ,नई दिल्ली ,११० ०३०
दूरभाष ०११-२६६४५८१२
ने किया है
आशा करता हूँ सुधी पाठकों को यह संग्रह पसन्द आयेगा
०० ०००
पुस्तक की भूमिका से----
’बात जहां पर तय होनी थी किस पर कितने चढ़े मुखौटे
जो चेहरे ’उपमेय’ नही थे ,वो चेहरे ’उपमान’ बन गये
सच। यह एक विडम्बना है-सामाजिक विडम्बना।आप के आस-पास दिखते हुए चेहरे -अनेक चेहरे। कोई चेहरा साफ़ नहीं,स्पष्ट नही,निश्छ्ल नहीं।बाहर कुछ-भीतर कुछ। जो वह है -वह दिखता नहीं। जो दिखता है- वह है नहीं।हर चेहरे पर एक चेहरा-हर मुखौटे पर एक मुखौटा।कभी मगरमच्छ की तरह आँसू बहाता,कभी गिरगिट की तरह रंग बदलता ,कभी तोते की तरह आँखे फेर लेता है। वह आदमी नहीं ’वोट’ पहचानता है ,वोट बैंक पहचानता है । गिनता है मॄतक किस पार्टी से संबद्ध था ,देखता है ।उस पर भी
विडम्बना यह कि वह स्वयं को ’हिप्पोक्रेट’ नही मानता ,अवसरवादी नही मानता अपितु इसे सीढियां मानता है-सफलता की सीढियां।
........ सच बोलने पर बुरा मानते लोग..,आइना दिखाने पर पत्थर उठाते लोग,... झूठे आश्वासनों का बोझ ढोता... ’बुधना’ ,गरीबी रेखा के नीचे दबा आम आदमी... ’वोट’ के लिए नित नए-नए स्वांग रचते लोग...रंगीन तितलियों से खेलते सत्ता के दलाल...रोटी माँगने पर भीड़ पर गोली चलाती व्यवस्था...कर्ज़ के बोझ से दबे आत्महत्या करते किसान...बारूद की ढेरी पर बैठा शहर...कुर्सी की खातिर सिद्धान्तों व मानवीय मूल्यों को तिलांजली देती पार्टियां...’सुदामा की खाट" पर कब्जा किए हुए युवा सम्राट..क्या काफी नही है
एक संवेदनशीलमना व्यक्ति को उद्वेलित करने के लिए.? संवेदना ज़िंदा है तो हम आप ज़िंदा हैं अन्यथा जब संवेदना मर जाएगी तो ’ बिल्लो रानी’ चाहे ज़िगर मा आग से ’बीडी़’ जला लें या बम्ब धमाके से ५० मरे -मात्र एक समाचार से ज्यादा कुछ नही होगा......
--आनन्द

शनिवार, 11 जुलाई 2009

व्यंग्य 09 : एक इन्टरव्यू मेरा भी....

जब से प्रसारण क्रान्ति आई ,टी०वी० चैनलों की बाढ़ आ गई। जिसको देखो वही एक चैनेल खोल रहा है।कोई न्यूज चैनेल,कोई व्यूज चैनेल।समाचार के लिए ८-१० चैनेल। दिन भर समाचार सुनिए ,एक ही समाचार दिन भर सुनिए। हिन्दी में सुनिए ,अंग्रेजी में सुनिए,कन्नड़ में सुनिए ,मलायलम में सुनिए. यदि आप धार्मिक प्रवृत्ति के हैं तो धार्मिक चैनेल देखिए-आस्था चैनेल देखिए ,संस्कार चैनेल देखिए। यदि आप युवा वर्ग के हैं तो एम०टी०वी० देखिए, रॉक टी०वी० देखिये । यदि आप हमारी प्रवृत्ति के हैं तो दिन के उजाले में भजन-कीर्तन देखिए ,रात के अन्धेरे में फ़ैशन टी०वी० देखिए- अकेले में।मेरी बात अलग है ,मैं अपने अध्ययन कक्ष में रहता हूँ तो फ़ैशन टी०वी० देखता रहता हूँ परन्तु जब श्रीमती जी चाय-पानी लेकर आ जाती हैं तो तुरन्त ’साधना’ चैनेल बदल भजन-कीर्तन पर सिर चालन करता हूँ । इससे श्रीमती जी पर अभीष्ट प्रभाव पड़ता है ।
उन दिनों, जब मैं जवान हुआ करता था तो यह चैनेल नहीं हुआ करते थे और जब मैं जवान नहीं तो १००-२०० चैनेल खुल गये। पॉप डान्स, रॉक डान्स,हिप डान्स,हॉप डान्स। उन दिनों ले-देकर एक ही चैनेल हुआ करता था-दूरदर्शन। शाम को २ घन्टे का प्रोग्राम आता था .आधा घंटा तो चैनेल का ’लोगो’ खुलने में लगता था -सत्यं शिवं सुन्दरम। फिर टमाटर की खेती कैसे करें ,समझाते थे ,धान की फ़सल पर कीट-नाशक दवाईयाँ कैसे छिड़के बताते थे । फिर समाचार वगैरह सुना कर सो जाते थे। सम्भवत: आज की जवान होती हुई पीढी को इस त्रासदी का अनुभव भी नहीं होगा।इन चैनलों से देश के युवा वर्ग कितने लाभान्वित हुए ,कह नही सकता परन्तु मेरे जैसे टँट्पुजिए लेखक का बड़ा फ़ायदा हुआ।चैनेल के शुरुआत में कोई विशेष प्रोग्राम या प्रायोजक तो मिलता नहीं तो दिन भर फ़िल्म दिखाते रहते हैं,गाना सुनाते रह्ते हैं या किसी पुराने धारावाहिक को धो-पोछ कर पुन: प्रसारण करते रहते हैं।’रियल्टी शो" के लिए कैमेरा लेकर निकल पड़ते हैं गली-कूचे में शूटिंग करने गाय-बकरी-कुत्ते-सूअर-साँड़-भैस।फ़िर चार दिन का विशेष कार्यक्रम बनाएगे दिखाने हेतु। नगर में गाय और यातायात की समस्या, बकरे कि माँ कब तक खैर मनायेगी देखिये इस चैनेल पर...सिर्फ़ इस चैनेल पर ..पहली बार ..ए़क्स्क्लूसिव रिपोर्ट..गलियों में सूअरों का आतंक....सचिवालय परिसर में स्वच्छ्न्द घूमते कुत्ते ,एक-एक घन्टे का कार्यक्रम तैयार...दिन में ३ बार दिखाना है सुबह-दोपहर-शाम ...दवाईओं की तरह ..समाज को स्वस्थ रखने हेतु।
एक शाम इसी चैनेल की एक टीम गली के नुक्कड़ पर ’ चिरौंजी" लाल से टकरा गई । संवाददाता संभवत: चिरौंजी लाल का परिचित निकला -’ अरे यार ! चिरौंजी ! तू इधर ? यार तू किधर?
इस इधर-उधर के उपरान्त दोनों अपने पुराने दिनों की यादों में खो गये परन्तु ’मिस तलवार" को याद करना दोनों मित्र नहीं भूले ."मिस तलवार...अरे वही जो...। चेतनावस्था में लौटते ही उक्त संवाददाता महोदय ने अपनी वास्तविक व्यथा बताई।
’यार चिरौंजी ! हिन्दी के किसी साहित्यकार का एक इन्टरव्यू करना है ,मुझे तो कोई मिला नहीं, जितने महान साहित्यकार हैं वो आज-कल विश्व हिंदी सम्मेलन में ’न्यूयार्क’ गये हुए हैं हिंदी की दशा-दिशा पर ,हिंदी को भारत की राष्ट्र -भाषा बनाने के लिये.हिंदी लेखन पर महादशा चल रही है न आज-कल । तू इस गली में किसी लब्ध प्रतिष्ठित हिंदी लेखक को जानता है?
’अरे है न ! पिछली गली में मेरे मकान के पीछे’
’अच्छा! क्या करता है?’
’अरे यही कुछ अल्लम-गल्लम लिखता रहता है ।मैं तो जब भी उसके पास गया हूँ तो निठ्ठ्ल्ला बैठ कुछ सोचता रहता है या लिखता रहता है। डाक्टर ने बताया कि यह एक प्रकार की बीमारी है . भाभी जी कहती हैं घर में काम न करने का एक बहाना है
’ अरे यार ! किस उठाईगीर का नाम बता रहा है ,किसी महान साहित्यकार का नाम बता न।’
अरे तू एक बार उसका इन्टरव्यू चैनेल पर दिखा न ,वह भी महान बन जायेगा. राखी सावंत को नही देखा ?
चिरौंजी लाल के प्रस्ताव पर सहमति बनी. इन्टरव्यू का दिन तय हो गया. तय हुआ कि इन्टरव्यू मेरे इसी मकान पर मेरे अध्ययन कक्ष में होगी.मैने तैयारी शुरु कर दी ,अपने अन्य साथी लेखकों से तथा कुछ कबाड़ी बाज़ार से पुरानी पुस्तकें खरीद कर अपने ’बुक-शेल्फ़" में करीने से सजा कर लगा दी. कैमरे के फ़ोकस में आना चाहिए।कमरे का रंग-रोगन करा दिया। श्रीमती जी ने अपनी एक-दो साड़ी ड्राई क्लीनर को धुलने को दे आईं..इन्टरव्यू में साथ जो बैठना होगा.मैने भी अपना खद्दर का कुरता ,पायजामा,टोपी, अंगरखा, जवाहिर जैकेट ,शाल वगैरह धुल-धुला कर रख लिया .राष्ट्रीय प्रसारण होगा ,दूसरी भाषा के लेखक क्या धारणा बनायेगे हिंदी के एक लेखक के प्रति.। अत: हिंदी की अस्मिता के रक्षार्थ तैयारी में लग गया। कुछ स्वनामधन्य लेखकों के इन्टरव्यू पढे़ ,अखबार की कतरने पढी़
००० ०००००० ०००००००
नियति तिथि पर चैनेल वाले आ गये।कैमरा नियति कोण पर लगाया जाने लगा. फ़ोकस में रहे.माईक टेस्टिंग हो रही थी । आवाज़ बरोबर पकडे़गी तो सही. इन्टरव्यू प्रारम्भ हो गया.
टी०वी०- आनन्द जी ! आप का स्वागत है. आप व्यंग लिखते है? आप को यह शौक कब से है?
श्रीमती जी बीच ही में बात काटते हुए और साडी़ का पल्लू ठीक करते हुए बोल पडी़- " आप शौक कहते है इसे? अरे रोग कहिए
रोग,मेरी तो किस्मत ही फ़ूट गई थी कि....
"आप चुप रहेंगी ,व्यर्थ में ....’ मैने डांट पिलाते हुए अपना पति-धर्म निभाया
’ हां हां मै तो चुप ही रहूगी ,३० साल से चुप ही तो हूँ कि आप को यह रोग लग गया. भगवान न करे कि किसी कलम घिसुए से...’
’ना माकूल औरत .’- मैने दूसरी बार पति-धर्म क निर्वाह किया
वह तो अच्छा हुआ कि कैमरा मैन ने कैमरा चालू नही किया था ,शायद वह भी कोई विवाहित व्यक्ति था\
मैं - " हाँ ज़नाब ! पूछिए"
टी०वी०--’आप व्यंग लिखते हैं? आप को यह शौक कब से है??
मैं --" ऎ वेरी गुड क्योश्चन ,यू सी ,एक्चुअली ...आई लाइक दिस क्यूश्चन ...आई मीन..यू नो..इन हिंदी...’ मैं कुछ कन्धे उचका कर कहने ही जा रहा था कि उस चैनेल वाले ने एक सख्त आदेश दिया -पिन्टू कैमेरा बन्द कर.फ़िर मेरी तरफ़ मुखातिब हुआ
टी०वी०-" सर जी ! आप हिंदी के लेखक हो ,हिंदी में लिखते हो तो इन्टरव्यू अंग्रेजी में क्यों दे रहे हो?
मैं-- क्यों? इन्टरव्यू तो अंग्रेजी में तो देते हैं न! देखते नहीं हो हमारे हीरो-हीरोइन सारी फ़िल्में तो हिंदी में करते हैं ,गाना हिंदी मे गाते हैं .संवाद हिंदी में बोलते हैं परन्तु इन्टरव्यू अंग्रेजी में देते हैं.जिन्हें अंग्रेजी नहीं आती वो भी ..यू सी..आई मीन..बट.आल दो..दैट्स आल....कह कर इन्टरव्यू देते हैं उन्हे तो कोई नहीं टोकता .वो लोग तो हिंदी से ऐसे बचते हैं कि हालीवुड वाला उन्हे कहीं गँवई-गँवार न समझ ले .फ़िर यह भेद-भाव हिंदी लेखक के साथ ही क्यों....?
टी०वी० -- वे फ़िल्मों में हिंदी की खाते है आप हिंदी को जीते है.सर आप अपनी तुलना उनसे क्यों करते हैं?
कुछ देर तक तो मुझे यही समझ में नहीं आया कि यह चैनेल वाला मुझे सम्मान दे रहा है या मुझ पर व्यंग कर रहा है
खैर ,इन्टरव्यू आगे बढ़ा
टी०वी०-- श्रीमान जी ! आप को व्यंग में अभिरुचि कब जगी?
मैं---- बचपने से.. वस्तुत: मैं पैदा होते ही व्यंग करने लग गया था .सच पूछिए तो मैं पैदाईशी व्यंगकार हूँ जैसे हर बड़ा एक्टर कहता है.बचपन में व्यंग करता था तो मां-बाप की डांट खाता था अब व्यवस्था को आईना दिखाता हूँ तो मार खाता हूँ
टी०वी० --- तो आप व्यंग लिखते ही क्यों हो?
मैं - क्या करुँ ,दिल है कि मानता नहीं
फ़लक को ज़िद है जहाँ बिज़लियाँ गिराने की
हमें भी ज़िद है वहीं आशियाँ बनाने की
टी० वी० -- आप सबसे ज्यादा व्यंग किस पर करते है?
मैं - - महोदय प्रथमत: आप अपना प्रश्न स्प्ष्ट करें .व्यंग करना और व्यंग लिखना दोनो दो बातें हैं
टी०वी० -- मेरा अभिप्राय यह है कि आप सबसे ज्यादा व्यंग किस पर कसते हैं
मैं-- श्रीमती जी पर । ज्यादा निरापद वही हैं। पिट जाने की स्थिति में पता नही चलता कि व्यंग के कारण पिटा हूँ या अपने
निट्ठल्लेपन के कारण पिटा हूँ .वैसे मुहल्ले वाले समझते हैं कि मैं अपनी बेवकूफ़ी के कारण पिटा हूँगा
ज़ाहिद व्यंग लिखने दे घर में ही बैठ कर
या वह जगह बता दे जहाँ न कोई पिटता होए
टी०वी० - बहुत से लोग व्यंग को साहित्य की विधा नहीं मानते ,आप को क्या कहना है
मैं -- भगवान उन्हे सदबुद्धि दे
टी०वी०-- सशक्त व्यंग से आप क्या समझते हैं?
मैं - सशक्त व्यंग कभी भी सशक्त व्यक्ति ,विशेषकर पहलवानों के सामने नहीं करना चाहिए.अंग-भंग की संभावना बनी रहती है.
टी०वी०- हिंदी व्यंग की दशा व दिशा पर आप की क्या राय है?
मैं- व्यंग की दशा पर महादशा का योग चल रहा है और दिशा हास्य की ओर।हास्य-व्यंग के बीच एक बहुत ही पतली रेखा है. आप
के लेखन से यदि आप के पेट में बल पड़ जाये तो समझिए की हास्य है और यदि माथे पर बल पड़ जाए तो समझिए कि
व्यंग है
टी०वी० आप क श्रेष्ठ व्यंग कौन -सा है?
मैं (कुछ शरमाते व सकुचाते हुए) यह प्रश्न तो बड़ा कठिन है .यह तो ऐसे ही हुआ जैसे लालू प्रसाद जी से कोई पूछे आप की इतनी
सन्तानों में सबसे प्रिय़ सन्तान...
टी०वी० फ़िर भी...
मैं अभी लिखा नही
टी०वी० तो भी..
मैं जो टी०वी० पर दिखाई जाए.जिस रचना पे सबसे ज्यादा एस०एम०एस० मिल जाय तो घटिया से घटिया रचना भी श्रेष्ट हो जाती है
टी०वी० सुना है आप ग़ज़ल भी लिख लेते हैं
मैं (कुछ झेंपते हुए) कुछ नहीं बस यूँ ही /वैसे गज़ल लिखी नहीं, कही जाती है.(मैने अपने इल्मे-ग़ज़ल का इज़हार किया।
फ़िर चैनेल वाला श्रीमती जी की तरफ मुखातिब हुआ ।तब तक श्रीमती जी ने अपना पल्लू वगैरह ठीक कर लिया था ताकि
प्रसारण में कोई दिक्कत न हो
टी०वी० भाभी जी ! आप की शादी हो गई है?
श्रीमती जी (शरमाते हुए) आप भी क्या सवाल पूछ रहे हैं ?
टी०वी० हम चैनेल वालों को पूछने पड़ते हैं ऎसे सवाल" इसी बात का प्रशिक्षण दिया जाता है हमें।यदि कोई व्यक्ति पानी में डूब रहा
होता है तो भी हम ऎसे सवाल पूछते हैं हम चैनेलवाले.....भाई साहब ,आप को डूबने में कैसा लग रहा है...
खैर छोड़िए यह व्यक्तिगत प्रश्न .आप बतायें कि आप ने इन में क्या देखा कि आप इन पर फ़िदा हो गई?
श्रीमती जी इनकी अक्ल
मैं हाँ जब आदमी की अक्ल मारी जाती है तभी वह शादी करता है
श्रीमती जी नहीं ,इनका अक्ल के पीछे लट्ठ (व्यंग) लिये फिरना ।पापा की पेन की एजेन्सी थी ,चिरौंजी भाई साहब ने बताया था कि
लड़का कलम क धनी है । पापा ने सोचा कि कलम के धन्धे में इज़ाफ़ा होगा ...मुझे क्या मालूम था कि कलम का धनी कलम
घिसुआ होता है ...वह तो मेरे करम फ़ूटे थे कि.....
मैं हाँ हाँ मैं ही गया था तुम्हारे पापा के पास.....
सम्भवत: आगामी दॄश्य -श्रव्य की कल्पना कर कैमरामैन ने कैमेरा बन्द कर दिया था । अनुभवी विवाहित व्यक्ति जो था.। शूटिंग
खत्म ...इन्टरव्यू खत्म।
जाते -जाते मैने पूछ लिया ," भाई साहेब ,इस इन्टरव्यू क प्रसारण कब होगा??
टी०वी० सर जी ! अगले सोमवार को प्राइम टाइम नौ बजे...
पाँच साल हो गये वह ’अगला सोमवार नहीं आया। संभवत: वह चैनेल भी बन्द हो गया होगा अब तक तो।
अस्तु
--आनन्द