शनिवार, 19 दिसंबर 2009

व्यंग्य 16 : अपना अपना दर्द....

एक व्यंग्य : अपना अपना दर्द..
" आइए ! आइए ! स्वागत है भई श्याम; बहुत दिनों बाद इधर आना हुआ"-वर्मा जी ने आगन्तुक का स्वागत करते हुए कहा ।
वर्मा जी ,सचिवालय में लिपिक हैं ,साहित्यिक रुचि रखते हैं,हिंदी में कविता ,कहानी ,उपन्यास आदि पढ़ते रहते हैं।यदा-कदा तुकबन्दी भी कर लेते हैं
और मुहल्ले के कवि-सम्मेलन में सुना भी आते हैं.। इन्हीं गुण-विशेष से प्रभावित होकर ,भाई श्याम उनके मित्र हैं।श्याम जी का जब भी किसी प्रयोजनवश इधर आना होता है तो वर्मा जी से अवश्य मिलते हैं । घंटे दो घंटे बैठकी चलती है ,साहित्यिक चर्चा चलती है.नई कहानियों के बारे में मत-सम्मत प्रगट किए जाते है । समझिए कि वर्मा जी ,भई श्याम के ’इण्डिया काफी हाऊस" हैं।श्याम जी का इधर आना ,आज इसी सन्दर्भ में हुआ था।
"गुड मार्निंग स्सर !"- वर्मा जी अचानक खड़े हो गये। स्सर आप हैं श्याम ,श्याम नारायण जी। बड़ी अच्छी कहानियाँ लिखते हैं, स्सर !"-वर्मा जी कार्यालय के बड़े साहब का परिचय कराने लगे। बड़े साहब किसी कार्यवश अनुभाग में आए हुए थे कि वर्मा जी अचानक खड़े हो गये । परिचय का क्रम जारी रखते हुए आगे कहा -" और आप हैं हमारे बड़े साहब अस्थाना स्सर ! ,बड़े दयालु हैं ,हिंदी के अच्छे ज्ञाता हैं । स्सर को कहानियाँ आदि पढ़ने की अति रुचि है."- वर्मा जी ने बड़े साहब का ’स्तुतिगान’ जारी रखते कहा-"साब ने आफ़िस-पत्रिका में पिछली बार क्या संदेश लिखा था ...वाह ! कार्यालय के सभी कर्मचारी ,साहब के हिन्दी लेखन का लोहा मान गये थे और कार्पोरेट आफ़िस वाले ! कार्पोरेट आफ़िस वाले तो कार्यालय प्रगति के साहब के लिखे हुए आंकड़े की तो आज भी तारीफ़ करते हैं"
वर्मा जी ने ’स्तुति-गान’ चालू रखा था.स्तुति-गान का अपना महत्व है विशेषत: सरकारी कार्यालयों में। यह गान वैदिक काल से चला आ रहा है । सतयुग ,त्रेता में यही स्तुति कर ऋषि मुनियों ने देवताओं से ’वरदान’ प्राप्त करते थे आजकल सरकारी कर्मचारी/अधिकारी प्रमोशन का इनाम और ’वेतनमान’ प्राप्त करते हैं। वह नर मूढ़ व अज्ञानी है जो "स्तुति" को नवनीत लेपन (मक्खनबाजी) या "चमचागिरी" कहता है।
अपनी ’स्तुति’ सुन कर अस्थाना जी ,किसी नवोदित हिंदी कवि की भाँति अति-विनम्र हो गए।वर्मा ने देखा निशाना सही लग रहा है। अत: अपना गान जारी रखते हुए कहा-"और भाई श्याम जी !जानते हैं? बड़े साहब का हिंदी प्रेम इतना है कि इस बार "हिंदी-पखवारा" में हिंदी उत्थान के लिए कई कार्यक्रम आयोजित करवाए जैसे...गोष्ठी ,..सेमिनार...अन्त्याक्षरी प्रतियोगिता..आशु हिंदी टंकण..कविता वाचन ..निबंध लेखन...। इस बार का "निबंध लेखन का प्रथम पुरस्कार तो भाभी जी (मैडम अस्थाना) को गया। भई वाह ! क्या निबंध लिखती हैं ...वैसा तो हम लोग भी नहीं लिख पाते....."
"अरे वर्मा ! तू तो मुझे पानी-पानी कर रहा है ..वरना मै तो क्या ..हिंदी का एक तुच्छ सेवक हूँ.."- अस्थाना जी ने बीच में ही बात काटना उचित समझा और आगन्तुक की तरह मुखातिब होकर बोले -" हाँ भई ,क्या नाम बताया?? हाँ श्याम जी ,लिखते-पढ़ते तो हम भी हैं ...मगर कभी आप को छपते हुए नहीं देखा "-बड़े साहब ने हिकारत भरी नज़र से श्याम की तरफ़ देखते हुए कहा।
"स्सर !’-श्याम ने पूछा-" सर ,आप कौन सी पत्रिका पढ़ते हैं"
"अरे भई ,एक हो तो बतायें ,कई पढ़ते हैं.-’आज़ाद-लोक...,अंगड़ाई..दफ़ा ३०२ ...तिलस्मी कहानियाँ ...रोमान्चक किस्से...वगैरह वगैरह "-बड़े साहब ने आत्म-श्लाघा शैली में कहा।
"खेद है सर ,हम वहाँ नही छपते ,हम छपते हैं धर्मयुग में ..हिन्दुस्तान में,,.नवनीत में ,,वागर्थ में,,सरिता में ..सारिका मे...’-श्याम ने एक दीर्घ निश्वास छोड़ते हुए अपनी अन्तर्व्यथा जताई - "सर जहाँ हम छपते हैं वह आप पढ़ते नहीं"
" ओ! या या ! इसी लिए तो । जो हम पढ़ते हैं वहाँ आप छपते नही।-बड़े साहब ने उससे भी एक बड़ा उच्छवास छोड़ते हुए अपनी अन्तर्व्यथा जताई- " यार वह पत्रिका क्या ! जो रात में मजा न दे" -कहते हुए बड़े साहब उठ कर चल दिए
अस्तु
-आनन्द.पाठक

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