मंगलवार, 6 अक्तूबर 2020

एक व्यंग्य 77 : पहला और आखिरी इंटरव्यू

 एक हास्य व्यंग्य : इन्टरव्यू --पहला और आख़िरी

’जुगाड़’ लगा कर एक चैनल वाले को ’पटा’ लिया है ।बोला है रविवार को इन्टरव्यू ले लेगा तुम्हारा"--मिश्रा जी ने आते ही आते खुशख़बरी सुनाई
मैने कहा--" तुम्हारे मुँह घी-शक्कर।अन्धा माँगे क्या -दो आँख । भई मिश्रा जुगाड़ वाली बात किसी को नहीं बताना , नहीं तो हिंदी साहित्य जगत में ग़लत संदेश जायेगा।
    इधर मैं तैयारी में लग गया। कुर्ता धोती अंगरखा टोपी धुलवाकर तैयार करा लिया ।कम से कम परिधान से
तो साहित्यकार लगूँ।ड्राईंग रूम भी धो पोंछ कर ठीक किया। हीरोइनों की तस्वीरे हटा कर जयशंकर प्रसाद जी
,दिनकर जी ,निराला जी साहित्यकारों की तस्वीरे लगाईं ।दीवार पर बस इतनी ही जगह बची थी तस्वीर लगाने के लिए
।बाक़ी साहित्यकारों से क्षमा माँग ली ।।दीवारों को भी तो कुछ बोलना चाहिए।
    बुकसेल्फ़ की सभी किताबों को झाड़-पोछ कर करीने से सजाया। किताबे तो थीं ,वर्षों से पढ़ी नहीं थी सो धूल चढ़ गई थी।कुछ किताबें मित्रों ने ’सप्रेम भेंट ’ की थी उसको लगाया। कुछ अपनी किताबें - छपीं तो ज़रूर मगर बिकी नहीं--उसकी 10-10 प्रतियाँ कतार में सजा कर लगा दी।कुछ किताबें वो थी -जो सरकारी लाइब्रेरी से लाई थीं मगर लौटाई नहीं थी -सो उन्हें भी सजा दी। हाँ कुछ किताबें अपने पैसे से खरीद कर लाया था, उन्हें भी लगा दी। चूँकि पैसा देकर खरीदा था सो पन्ना-पन्ना चाट डाला था ,पूरा पैसा वसूल कर लिया था पढ़ पढ़ कर ।सुनते हैं ,यह सब दिखाने से दर्शकों पर यथेष्ट प्र्भाव पड़ता है।अच्छा संदेश जाता है । कम से कम संदेश तो सही जाए।
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रविवार भी आ गया ।
मिश्रा जी ने परिचय कराया। यह है चौरसिया जी चैनेल वाले -यह हैं अख़्तर भाई, कैमरामैन
और यह है बन्दा ख़ाकसार-मैं ।चौरसिया जी "यू-ट्यूब’ पर एक चैनेल चलाते है "चैनल-अनाम’ के नाम से --वीडियो वगैरह
बनाते ,चढ़ाते रहते हैं । सिंगल विन्डो सिस्टम है --खुद ही प्रोड्यूसर.खुद ही ’डाइरेक्टर’, ख़ुद ही एडिटर -खुद ही
फ़ाइनेन्सर -ख़ुद ही -श्रोता --आल इन वन है।गुड फ़ार नन है।
--’आप की ज़र्रानवाज़ी ,वरना यह ख़ाकसार क्या है !-- चौरसिया जी ने लखनवी अन्दाज़ में अपनी विनम्रता प्रकट की ।
इसी बीच अख्तर भाई ने कैमेरा,लाइट वग़ैरह सेट कर संकेत दिया ।साहब शुरु करें?
मिश्रा जी एक कोने में जा कर खड़े हो गए।
कैमेरा --लाइट --आन
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मैं एंकर आर0पी0 चौरसिया ’अनाम’ चैनेल से बोल रहा हूँ। आज हम पाठक जी का इन्टरव्यू करेंगे। पाठक जी को आप सभी लोग जानते होंगे -किसी के परिचय के मुहताज नहीं है -सोशल मीडिया पर छाए रहते है- कभी फ़ेसबुक पर ,कभी व्हाट्स अप पर, कभी ब्लाग पर । फ़ेसबुक के लगभग हर प्रतिष्ठित मंच पर समूह में ग्रुप में जबर्दस्ती घुसे हुए हैं या कहें धँसे हुए हैं ।इनकी एक विशेषता है लतिआए जाने के बाद भी यह मंच या ग्रुप छोड़ते नही। यह इनके हिंदी के प्रति अगाध प्रेम का परिचायक है ।
इनका एक बड़ा मशहूर शे’र है जो हर आम-ओ-ख़ास की ज़ुबान पर मिस्ल की मानिन्द रहता है ।आप दर्शकों ने भी सुना होगा
जब कभी फ़ुरसत मिले ’आनन’ से मिलना
मिल जो लोगे बाहर ही मिलते रहोगे ।
-चौरसिया जी ! ’बाहर ही ’ -नहीं ’बारहा”- -बारहा- ,बार बार --मैने सुधार किया।
-सही पकड़ा हाँ वही वही --बारहा मिलते रहोगे।
तो अब हम पाठक जी से सवाल जवाब का सिलसिला शुरु करते है ।
चौ0 -- हाँ तो पाठक जी ! देश यह जानना चाहता है कि आप को यह शायरी का शौक़ कब से लगा ?
मैं -- - बचपन से । आप कह सकते हैं कि कक्षा 1-या 2 में था तभी से लगा ।शौक़ नही रोग कह सकते है आप इसे।
चौ0--- कक्षा 1 से ? अरे वाह ! वह कैसे ?
मैं - मास्साब लिखना सिखा रहे थे --- --सदल --बल ---घर से निकल -न कर नकल -दुनिया बदल---लेकिन सँभल -कि मैने अपनी तरफ़ से यह जुमला जोड़ दिया --अब घर चल
-मेरे इस "क़ाफ़िया बन्दी" से ’मास्साब’ इतना ख़ुश हुए कि बोले बेटा !तू घर जा । तू बाद में शायर बनेगा। और तब से आज तक तुकबन्दी कर रहा हूँ। जिसे दुनिया शायरी समझती है ।
चौ- -- अच्छा अच्छा ।आप के मास्साब ने आप में शायरी की असीम सम्भावनाएँ देखी होंगी । उसके बाद ?
मैं --- -- उसके बाद खींच तान कर किसी प्रकार हाई-स्कूल तक चला आया ,’भाषा-भास्कर ’काव्य कौमुदी" रट रटा कर पास हो गया। सूर-कबीर-तुलसी रटा -- एक दोहा तो आज भी याद है
सूर ’सूर’ तुलसी ’शशि ’ उडगन केशव दास ।
अब के कवि खद्योत सम ,जहँ तहँ करत प्रकास ।
परीक्षा में --सूरदास की जीवनी रट कर गया था मगर ’तुलसी दास’ जी आ गए। फिर क्या था --दोहा तुरन्त बदल दिया।
सूर ’शशि’ तुलसी ’रवि’ उडगन केशवदास ।
अब के कवि खद्द्योत सम,जहँ तहँ करत प्रकास ।
और मैं पास हो गया ।
मगर फिर भी 100 में 100 नहीं आया । तब हिंदी का इतना विकास नहीं हुआ था ।अब तो जिसको
देखो हिंदी में भी 100 में 100 ला रहा है ।हिंदी का कितना विकास हो गया तब से अबतक । तब मुझे पहली बार हिंदी की ताक़त का पता चला कि कैसे किसी को ’सूर्य’ और किसी को ’शशि" बनाया जा सकता है मिनटों में ।जिसकी चर्चा हो जिस पर इन्टरव्यू हो --वह ’सूर्य’ है । बाकी सब खद्योत ।किसी को एक पल में ’सूर्य’ बताने की क्षमता मात्र हिंदी में है । हमारे हिंदी लेखकों ,आलोचकों और समीक्षकों में यह परम्परा आज भी क़ायम है।
।जिसको चाहें उसको अज़ीमुश्शान शायर क़रार दे दे--,सशक्त हस्ताक्षर बना दें --सदी का अन्तिम कवि बता दे --वरिष्ठतम साहित्यकार बता दे --विख्यात कवि- विश्वविख्यात भी बता दें -बर्रे सगीर के अज़ीम शायर---ब्ला ब्ला ब्ला ।
मरजी उनकी ।सिक्का चल गया तो चल गया।अब तो हर तीसरा व्यक्ति फ़ेसबुक पर समीक्षक हो गया।
चौ0 -- अच्छा अच्छा । आप के लोकप्रिय गीतकार कौन है?
मैं-- शकील बदायूँनी ।
चौ0-- शकील बदायूँनी ही क्यों ?
मैं -- क्योंक आप ने प्रोग्राम उन्हीं पर रखा है तो उन्हीं को बताऊँगा न । हमारी भारतीय संस्कॄति है और हिंदी की परम्परा रही है कि हम मॄतात्मा को ही महान बताते है । भगवान उनकी आत्मा को शान्ति दें । ख़ुदा मगफ़िरत करे । आप शैलेन्द्र जी पर प्रोग्राम कीजिएगा तो शैलेन्द्र जी को महान बताऊँगा---‘वचनम किम् दरिद्रता-।-कहने में क्या जाता है ?
चौ0-- और निराला जी ?
मैं "निराला जी" फ़िल्मी गीत नहीं लिखते थे ।अत: उनके बारे में मैं कुछ ज़्यादा नहीं बता पाऊँगा ।
चौ0 -- अच्छा ,अच्छा ।आप शकील साहब को कब से जानते हैं ?
मैं --परसों से।
चौ0 --- अच्छा अच्छा । बरसों से। बहुत अच्छा।
मैं - "बरसों" नहीं बाबा । ’परसों’ से ,परसों । जब आप ने इन्टरव्यू का ”डेट-फ़िक्स’ किया तब से मैने शकील साहब को पढ़ना शुरु किया } अब तो मैं घंटों व्याख्यान दे सकता हूं शकील
साहब की गीतो के नए आयाम -गीतो में नई संभावनाएँ--उनके गीतों का समग्र मूल्यांकन--गीतों का एक नया क्षितिज --एक नई संभावना --। कुछ महारथी तो ऐसे भी हैं जो इन तीन दिन के अध्ययन से शकील साहब पर एक पूरी किताब लिख सकते हैं और लिखते भी हैं।
चौ0 --- सुना है कि आजतक आप ने कोई मुशायर नहीं पढ़ा।कहते हैं जो दिखता है वो बिकता है ।
मैं -- सड़े अंडे -टमाटर से डर लगता है । चिपक जाता है। अब कमर में वो लचक भी नहीं रही। राज़ की बात तो यह है भइए -बन्द मुट्ठी लाख की --खुल गई तो खाक की ।
जी सही कहा आप ने--जो "बिकता" है वो "दिखता" है ।मैं ’बिकता’ नहीं--सो "दिखता" नहीं। तुम्हारे चैनेल में कोई महिला एंकर नहीं है क्या कि तुम्हीं इन्टरव्यू लेते हो ?
चौ0 -- है न ।’गुत्थी’ को भेज दूँ क्या ? कपिल शर्मा शो की
मैं --नही नहीं रहने दो। आप ही ठीक हो । आगे बढ़ो।
चौ0 -- आप को किसी फ़ेसबुक मंच ग्रुप वालों ने ’पुरस्कार" नहीं दिया । सान्त्वना पुरस्कार भी नहीं।पुरस्कार तो किलो के भाव बँटते है आजकल मंचों पर ।एक माँगो--हज़ार मिलते हैं।
मैं-- हाँ । किसी ने मुझे इस योग्य नहीं समझा होगा ।ऐसे वैसे न जाने कैसे कैसे लोग पुरस्कार पा गए सर्टिफ़िकेट पा गए । कुछ लोग तो अपने अपने नौकर ,दरबान तक के लिए भी ले गए। । किसी को काव्य शिरोमणि का मिला--किसी को गज़ल सम्राट का--किसी को गीत विशारद का -किसी को दोहा मणि का--किसी को साहित्य रत्न --किसी को काव्य रत्न का । अंधा बाटे रेवड़ी फिर फिर अपने दे--। नीरज जी ने कहा भी है
जिनको फूलों की ख़ुशबू न पहचान थी
उनके घर फूल की पालकी आ गई
एक मंच वाले के पास गया भी था -’ भइए- कुछ मुझे भी पुरस्कार तिरस्कार मिलेगा ? बोले आप का पाकेट ज़रा हल्का है । यहाँ पुरस्कार ग़ज़ल कविता दोहा के वज़न से नहीं पाकॆट की वज़न से मिलता है।ग़ज़ल गहरी हो न हो ,पाकेट ज़रा गहरा होना चाहिए। मैं चला आया ।-मुझे उनके स्तर तक उतरना होगा । एक मंच वाले से जुगाड़ लगाया तो यह कह कर टरका दिया कि सर आप तो ’लाइफ़ अचीवमेन्ट अवार्ड’ के मैटेरियल हो, सर ! आप पुरस्कार लेकर क्या करोगे? मैं इतने से ही खुश हो गया। मेरा पुरस्कार मिल गया।उन भाई साहब के मंच का नाम नहीं बताऊँगा । अब वह मेरी ’लाइफ़’ का इन्तज़ार कर रहे हैं-वह सोच रहे हैं कि मैं ’टपकूँ’ तो वह ’लाइफ़ अचीवमेन्ट पुरस्कार दे -और मैं सोच रहा हूँ कि वह पुरस्कार दें तो मैं ’टपकूँ’ । परस्पर विश्वास का प्रश्न है।
एक बात और । मैं जिस मंच पर हूँ ,वहाँ पुरस्कार नहीं बँटता। जहाँ पुरस्कार ’बँटता" है ,वहाँ मैं हूँ नहीं।नदी-नाव संयोग कभी बना ही नहीं ।
चौ0 सर ! एक सवाल और। आप का ’कविता’ के बारे में क्या विचार है?
मैं ’कविता’ एक अच्छी और खूबसूरत कवयित्री है। असीम संभावनाएँ है उसमें । हिंदी जगत को उस से बहुत उम्मीद है।
चौ0 सर ! मैं उस कविता की बात नही कर रहा हूँ । मै तो--
मैं --कोई बात नहीं। कोई कविता -सविता -वनिता--विनीता- गीता -सीता -हो -सब में हिंदी विकास की असीम संभावनाएँ छुपी हैं। हिंदी जगत को इन सबसे बहुत उमीद रहती है ।अपेक्षा रहती है । इस मामले में हिंदी बड़ी उदारमना है विशाल हृदया है । हिंदी ’जेन्डर-भेद ’ नहीं करती। सबमें असीम सम्भावनाएँ समान रूप से देखती है । सनद बाँटती रहती है। परन्तु 2-4 साल बाद ये ’संभावनाएँ’ कहाँ मर जाती है पता नहीं चलता।
दद्दू गोपाल प्रसाद व्यास जी का मत है
कविता करना है खेल सखे !
जो चाहे इसमें चढ़ जाये, यह बे-टी0टी0 की रेल सखे । कविता करना है खेल, सखे !
फ़ेसबुक और व्हाट्स अप के सौजन्य से बहुत से लोग इस रेल के डब्बे में घुस गए हैं ।ठसाठस भर गए हैं। कुछ लोग तो डब्बे के छत पर चढ़ कर ’फ़ेसबुक लाइव’ हो रहे हैं।
’सेल्फ़ी ’ खींच रहे हैं ।जब तक यह फ़ेसबुक व्हाट्स अप रहेगा ,कविता-ग़ज़ल नहीं मरेगी । आप निश्चिन्त रहें ।
चौ0 -- सर ! अब चलते चलते एक सवाल -और।
मैं -- नहीं नहीं ।आप बैठे बैठे भी पूछ सकते है ।
चौ0 --- ज़रा परसनल सवाल है । मगर देश की जनता जानना चाहती है ---कि आप का कोई --यानी जवानी में--मतलब कि -कोई --लफ़ड़ा-तफ़ड़ा --यानी कहीं टांका-कांटा --मतलब कि -आप समझ रहे हैं न ?
मैं - हाँ हाँ क्यों नहीं समझूँगा-भाई -मुझ से बेहतर और कौन समझेगा ।-पूरी जवानी तो-- टांका भिड़ा रे ! --काँटा लगा रे ! में ही गुज़री। अब ज़रा उमर ढल गई ,वरना--- । --मगर वो भी क्या दिन थे। "ठंडी हवाएँ --काली घटाएं--- सुहाना सफ़र और ये मौसम हसीं -।पर क्या कहें--हमने ज़फ़ा न सीखी--उसको वफ़ा न आई। ये न थी हमारी किस्मत कि विसाल-ए-यार होता।-एक बार उसका ’व्हाट्स अप ’ आया था --पराई हूँ पराई, मेरी आरज़ू न कर ।नसीब में जिसके जो लिखा था-- पता नहीं कहाँ होगी ’बेचारी’---
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"अच्छा तो अब वो बेचारी’-??- मैं फिरूँ मारी मारी- ?"- देखा "बेलन धारिणी ’ श्रीमती जी--आँखे लाल लाल किए सामने खड़ी हैं।
’ऎं ! तुम कहाँ से आ गई? --मैने लगभग घिघियाते हुए स्वर में बोला लगा जैसे लगा रंगे हाथ गिरफ़्तार हो गया ।
--सब जानती हूँ --कहाँ कहाँ लफ़ड़ा है तुम्हारा ।जनाब ने --मोबाइल में ’पासवर्ड’ क्या मार दिया ,समझते है कि हमें ख़बर ही नहीं? सब खबर है । फ़ेसबुक पर सारी ग़ज़ले~पढती हूँ तुम्हारी। गीत पढ़ती हूँ--माहिए पढ़ती हूं~ तुम्हारी । उड़ती चिड़िया का पंख गिन कर हाथ में रख दूँ । और चले हैं---
भाग्यवान सुनों तो । तुम तो बस खामख़्वाह--बात का बतंगड़बना रही हो--राई का पहाड़ बना रही हो तिल का ताड़ बना रही हो --अच्छे-खासे माहौल को झाड़-झंखाड़ बना रही हो -समझो तो ज़रा -। मैने सफ़ाई पेश करने की कोशिश की
-’चुप रहो जी ! नकली दाँत लगाए घूम रहे हैं --बाल उड़ गए-मगर -प्रेम गीत पर प्रेम गीत-- प्रणय-गीत पर प्रणय गीत लिखे जा रहें है }कब्र में पैर लटकाने के दिन आ गए--जनाब के । मगर जवानी जोर मार रही है इनको---।
क्या लिखा था उस दिन-- ये लचकती महकती हुई डालियाँ-? -बड़ा मटक मटक कर लिखा था उस दिन ।किसको लिखा था? अयं। सारी -मटकन -लटकन--झटकन निकाल दूँगी। जनाब को जवानी चढ़ी है-- तेरी नील झील सी आंखो में---अरे तो डूब कर मर क्यॊ नहीं गए उस ’बेचारी’ की आँखों में --मेरी तो ज़िन्दगी बर्बाद न होती-
----फ़ोड़ कर रख दूँगी उसकी आँखे--तुम्हारे उस बेचारी की।
अरे! भागवान ! तुम तो बेमतलब---अरे सुनो तो--
श्रीमती जी के सर, रण-चण्डी ’दुर्गा’ उतरते देख, अख़्तर भाई ने जल्दी जल्दी अपना कैमेरा-लाइट समेटा और चौरसिया जी ने अपना नोटबुक । भाग खड़े हुए ।आगे आगे वो ---पीछे पीछॆ मै----और मेरे पीछे एक कुत्ता।" -- अरे चौरसिया जी --बाकी इन्टरव्यू तो करते जाओ --समापन तो करते जाओ-"-
---हो गया--हो गया --चौरसिया जी हाँफ़ते हाँफते हुए बोल रहे थे या बोलते बोलते हाँफ़ रहे थे ।
लौट कर देखा तो वह मिश्रा का बच्चा हाथ बाँधे कोने में खड़ा खड़ा मुस्करा रहा था । उसी की शैतानी रही होगी ।
अस्तु
-आनन्द.पाठक-
 
 
 

एक व्यंग्य 76: किस्सा-ए-शालीनता

 
                        किस्सा-ए-शालीनता

[सन्दर्भ ...... जब कभी ,मेरे जैसा कोई नवोदित लेखक  यह कहें  कि मैं गरीब हूँ , अदना हूँ , आप का सेवक हूँ --दीन हूँ-- हक़ीर हूँ-- फ़कीर हूँ  या यह कहें  कि कभी  मेरे ग़रीबखाने पर आएं या  फिर कब्र में पैर लटकाए यह कहें  कि भइए ! मैं तो अभी तो लिखना सीख रहा हूँ । तो ये उनकी विनम्रता है, शालीनता है  । आप उनका शील-संकोच भी समझ सकते हैं।जब कि आजतक उन्होनें कभी किसी को  घास न डाली होगी । सीधे मुंह बात न की होगी ।जब वो यह कहें  कि आप उन्हें अपने चरणों का धूल समझिए  तो यह उनकी लगभग ’दण्डवत’-स्तर की विनम्रता है ।और जब वो यह कहें  कि ’आप के चरण किधर है प्रभु !" -तो समझिए कि यह उनकी विनम्रता की पराकाष्ठा है ।
इसीलिए मैं अपने पाठकों से बार बार पूछता रहता हूँ -"आप के चरण किधर है प्रभु !"
 एक बार फिर आप को याद दिला दूं कि यह गम्भीर लेखन नहीं है.....कहीं बाद में आप ये न कहें -’अरे ! हमें तो आप ने पहले बताया नही” ..।सो बता दिया ।
 
श्रीमन , झुँझलाइए नहीं ।.यह मेरा तकिया कलाम नहीं है ।यह ’सिगरेट’ की डिब्बी के ऊपर लिखी हुई  ’वैधानिक चेतावनी " है.। अगर पीते हों तो ,’चेतावनी’ पढ़ कर सिगरेट पीना आप कौन सा छोड़ देते हैं ।कम्पनी ही चेतावनी लिखना कौन-सा  छोड़ देती है या  आप  मेरा व्यंग्य कौन-सा पढ़ना छोड़ देते हैं --हा हा हा ]
 
आजकल मौसम ख़राब चल रहा है। ,कहीं मेरे लेखन को  आप  गम्भीर लेखन न समझ लें । वैसे कई आलोचक तो व्यंग्य लेखन को साहित्य की विधा ही नहीं मानते । बे-बात की बात में बात कहीं से कहीं न चली जाय..राई का पहाड़ न बन जाय ...तिल का ताड़ न बन जाय ...लेख का कबाड़ न बन जाय ...बात का बतंगड़ न  बन जाय..राह का कंकड़ न बन जाय --तो एक ’डिसक्लेमर क्लाज खुद ही चस्पा कर लेता हूँ अपने ऊपर , जिससे  गम्भीर लेखकों  को मुझे पहचानने में दिक्कत न हो और मंच से धकियाये जाने हेतु मुझे खोजने में उन्हें  समय  न लगे...
आप तो बस पढ़िए--- पढ़ते रहिए --हँसिये,.....,हँसते रहिए ।
 
किसी मंच पर, पिछले दिनों एक सदस्य ने किसी अन्य सदस्य की ग़ज़ल को ’तुकबन्दी’ और चर्बा: कह दिया था  -दूसरे भाई साहब ने उसकी तस्दीक कर दी ..तीसरे भाई साहब ने बात पकड़ ली --चौथे भाई साहब ने यानी इस खाकसार ने बात ’लपक’ ली .. फिर क्या हुआ ????
 
बात यहीं से शुरु करते हैं
अब आप कहेंगे कि क्या ये एक भाई साहब ...दूसरे भाई साहब..तीसरे भाई साहब लगा रखा है।.सीधे सीधे नाम क्यों नहीं ले लेते...? नहीं, ’राजनीति’ में और ’कूटनीति’ में कोई सीधे सीधे नाम नहीं लेता। ..बस समझने वाले समझ जाते हैं। जैसे एक नेता जी ने अपने भाषण में कहे कि " हमारे देश से दक्षिण दिशा का एक देश ’तमिलों" की समस्याओं को सुलझाने हेतु कोई कारगर कदम नहीं उठा रहा है ,तो मतलब साफ़ है । नाम नहीं लिया ..मगर समझने वाले समझ गये, ।वह दक्षिण दिशा का देश, अफ़्गानिस्तान में तो होगा नहीं ।
उसी प्रकार जब प्रधानमन्त्री जी यह कहते हैं कि हमारा एक पड़ोसी देश हमारे देश में  ’आतंकवादियों’ को भेजने से बाज नहीं आ रहा है तो वह देश ’नेपाल’ तो होगा नहीं । समझने वाले समझ जाते है ।नाम लेने की क्या ज़रूरत है ।
खैर ,एक क़िस्सा और सुना कर मूल बात पर आते हैं ।
एक बार एक सड़क पर एक शराबी जोर जोर से  चिल्ला रहा था --प्रधान मन्त्री निकम्मा है ..प्रधानमन्त्री निकम्मा है.
पुलिसवाले ने उसे पकड़ कर 2-डंडा दिया। बोला -"स्साले ,हमारे प्रधान मन्त्री को निकम्मा कहता है"
शराबी ने कहा -" हमने नाम कहां लिया? हमने कहाँ कहा कि ’हमारा’ प्रधानमंत्री निकम्मा है?
पुलिसवाले ने फिर 2-डंडा दिया  -"स्साले , हमें चराता है?  हमें नहीं मालूम कि किस देश का प्रधानमंत्री निकम्मा है?
किस्सा कोताह यह कि बिना नाम लिए भी काम चल जाता है ।
हां, तो अब मूल बात पर आते हैं ।
       जी बिल्कुल सही।आज भी भारत के कुछ कवि या शायर अपनी कविता, विनम्रता से ही शुरु करते हैं ।नाम बताऊँ क्या ? नाम क्या बताना ।,आप समझ तो गए होंगे । उनकी मान्यता है कि वृक्ष जितना ही फलदार होता है  उतना ही झुकता है । अत: वह झुक रहे हैं  ।बरअक्स ,वो समझते हैं कि वो जितना झुकेगे ,श्रोता  उन्हें  उतना ही ’फलदार’ समझेंगे ।.वह.और झुकते हैं । झुकते झुकते , विनम्र होते होते , दीन होते होते ,दीन से हीन, हीन से दयनीय. दयनीय से दयनीयता की स्थिति तक पहुँच जाते हैं । अपनी ग़ज़लों के लिए ,कविताओं के लिए तालियॊ की भीख माँगते हैं । मंच के आयोजकों की शर्त पर कविता / ग़ज़ल पढ़ते है । भइए ! सत्ता पक्ष की टाँग खीचनी है कि विपक्ष के लिए पढ़ना है ?आप बताएँ? मेरी ’लेखनी’ स्वतन्त्र है ।
       मगर जब उनकी बात किसी बात पर  भिड़ जाती है, तब वो दीन-हीन-दयनीयता भूल जाते हैं  । फिर कुछ नहीं देखते । औकात पर आ जाते हैं ।  ’आत्म सम्मान’ की बात करने लगते  है। ईमान की बात करने लगते हैं । ग़ैरत की बात करने लगते हैं है ।जमीर की बात करने लगते है।,कलम न बिकने की बात करने लगते  हैं । मंगल से शनीचर पर  आ जाते हैं । कहने लगते हैं --अरे जा जा ..तेरे से ज़्यादा ’बदतमीज़ हूँ मैं ।2-4 शे’र क्या लिख दिया अपने आप को ’ग़ालिब’ समझने लगा है  तेरे जैसे ग़ालिब  गली गली में कौड़ी के तीन मिलते हैं ।--ऐसे शे’र तो मैं  ’शौचालय में बैठे-बैठे लिख देता हूं~
-तभी तो तेरे शे’रों से वैसी -बू आती है - सामने वाला आग में घी डालता है ।
बात तूँ.. तूँ..मैं ..मैं- पर आ  जाती है । शालीनता का चोला जल्द ही उतार फेंकता है । कृत्रिमता का लबादा बहुत देर तक नहीं ओढ़ा जा सकता ।’दीन-दीनता-शालीनता  से उनका उतनी  ही देर तक का वास्ता है जितनी देर तक उनके  शे’रों  पर तालियां बजती रहती है ....
प्राथमिक पाठशालाओं में पढ़ा था  ’विद्या ददाति विनयम" । विद्या विनय देती है ।
       बाद में बड़ा होकर वह इस सूक्ति का अर्थ ठीक से समझने लगता है ।- ’विद्या करोति विनमयम" -समझता  है। विद्या विनमय  सिखाती है ।व्यापार सिखाती है। लेन देन सिखाती है ।वह लोग अब कहाँ   ,जो लिफ़ाफ़ा देख कर मजमून भाँप लेते थे । अब तो लिफ़ाफ़ा देख कर वज़न भापता है ।अब तो लिफ़ाफ़े का लेन देन सिखाती है । मैं तेरी पीठ खुजाऊँ ,तू मेरी पीठ खुजा । कहते हैं कि हर कवि की कविता में ’दर्द’ एक जैसा होता है ,परन्तु लिफ़ाफ़ा का “वज़न” एक जैसा नहीं होता ।
       यह भारतीय संस्कृति है । बचपन से सिखाया जाता है, अपने को छोटा समझना ,अहम नहीं करना ,घमण्ड नहीं करना, विनम्र रहना ,शालीन रहना। बताया जाता है --  ’घमण्डी का सिर नीचा होता है -रावण का उदाहरण देकर डराया  भी जाता है ।मगर वही आदमी जब बड़ा बन जाता है ,ज्ञानी हो जाता है तो आधी ज़िन्दगी अपने को बड़ा समझने में गुज़ार देता है और आधी ज़िन्दगी दूसरे को छोटा समझने में।
कभी कभी यह विनम्रता विपरीत अर्थ भी देती है।
किसी ने अपने मित्र से कहा -’बड़ा प्यारा बच्चा है आप का !
सामने वाले भाई साहब ने तुरन्त ’विनम्रता ’का ओवर कोट पहना -’अरे नहीं नहीं -आप का ही बच्चा है-। यह भी एक प्रकार की विनम्रता है।
 
इसी विनम्रता -क्रम में एक किस्सा और सुन लें ।
एक भाई साहब ने अपने कुछ मित्रों को अपने यहां भोजन पर आमन्त्रित किया ।
सभी मित्र एक एक कर पहुँच रहे थे और कह रहे थे -’बड़ा शुभ काम किया..ऐसी दावत हर महीने होती रहनी चाहिए।
मेज़बान महोदय हर आगुन्तकों से अति विनम्र हो कर स्वागत कर रहे थे -"बस ! सब आप के चरणों की कृपा है ... बस आप के चरणों की कृपा है....
भोजनोपरान्त बाद में मालूम हुआ कि सभी मित्रों की ’चरण-पादुका" गायब थीं ।उन भाई साहब नें उन्हीं ’चरण-पादुकाओं की कॄपा से भोजन कराया था।
 
कुछ शायर और कवि तो मंच चढ़ते ही विनम्र हो जाते है। कुछ  को देखा भी है सुना भी है ।कुछ तो ऐसे विनम्र हो जाते है जैसे विनम्र होकर वो ’दाद’ नहीं ,दाद की  ’भीख माँग रहे हों ’...मेरी बात अगर पीछे बैठे श्रोता तक पँहुचे तो ताली बजा दीजियेगा मैं समझूंगा कि शे’र कामयाब हुआ ।नहीं भाई साहब ऐसे नहीं । तालियाँ इतनी जोर से बजनी चाहिए कि ’दिल्ली तक सुनाई पड़नी चाहिए--पाकिस्तान तक पहुचनी चाहिए ।’ तालियाँ खुल कर बजनी चाहिए।--दो चार बजा भी देते है-10-20 नहीं भी बजाते हैं। जो नहीं बजाते हैं उन्हें वह शाप भी देते हैं -अगले जनम में तुम सब ढोलक बजा बजा कर घर घर ’तालियाँ’ बजाते फिरोगे । पता नहीं ऐसे शाप फ़लते  या नहीं । मगर उन्हें आत्म-सन्तोष अवश्य होता है ।
कभी कभी ये विनम्रता अनजाने में मंहगी भी पड़ जाती है ।
श्री सत्यनारायण व्रत कथा’ तो आप सब ने सुना होगा ।मैं साधु नाम बनिए की बात कर रहा हूँ । मँहगी पड़ गई उसको उसकी विनम्रता ।
संक्षेप में बता देता हूँ -जब ’डंडी महराज ने साधु नाम बनिये से [उसके मन की शुद्धता जाँच  करने के लिए] कुछ दान-दक्षिणा की माँग की  तो साधु नाम बनिये ने अति विनम्र हो कर कहा -’महात्मन ! इस जलपोत में क्या है? ’लता-पत्रादि’ भरा है। .मैं क्या दान दे सकता हूँ ?
महात्मा ने कहा -’एवमस्तु’
फिर क्या हुआ। जलपोत के सारे हीरा-जवाहरात-सोना चाँदी आदि, ’लता पत्रादि’ में बदल गए ।
       अब आप पूछेंगे कि शायर लोग अइसा काई कू बोलता है ?
इसमे एक रहस्य है।
वह जानता है ,जब वो मंच पे अपनी ग़ज़ल पढ़ेगा तो इधर-उधर से कुछ फ़िक़रे-जुमले आयेंगे। अपनी कविता/ग़ज़ल पर भरोसा नहीं है तो इसी   विनम्रता का ’बुलेट प्रूफ़ जैकेट ’पहन लेता है ।-लो अब करो टिप्पणी । भाई जान मैने तो पहले ही कह दिया है कि मुझे ’ग़ज़ल’ की ’ग़’ भी नहीं आती ..बस मैं तो अभी सीख रहा हूँ । ग़ज़ल से मुहब्बत है । अदब-आश्ना हूँ॥ भावना से लिखता हूँ । गीत में छन्द आदि नही ,भावनाओं का ज्वार देखिए ।सो आ गया।
इसीलिए भइए ! हर मंच पर ,हर मुशायरे में मैं तो अपने इसी शे’र से आग़ाज़ करता हूँ । सुरक्षा कवच बना रहे
 
न आलिम ,न मुल्ला ,न उस्ताद ’आनन’
अदब से मुहब्बत ,अदब आशना  हूँ
 
सुरक्षा-कवच  पहन तो  लिया । इस के आगे और क्या ? मजबूरन वाह वाह ही कहेगा । बहुत खूब बहुत खूब ही कहेगा ।तालियाँ बजायेगा।
 
फ़ेसबुकिया मंच और महफ़िल से  कुछ अमर वाक्य /’सूक्तियां’ पढ़ी हैं ,नीचे लिख रहा हूं। अगर आप ने भी  कहीं कुछ पढ़ी हों या आप के दिमाग में भी  ऐसी ही कुछ ’विनम्रता’  जोर मार रही हो तो आप भी नीचे लिख दीजिये । कोष्ठक में उन सूक्तिओं की व्याख्या भी लिख दी है  जिससे आप को  निहित भाव समझने में कोई दिक़्क़त न हो।
> यह हक़ीर कोई शायर नहीं -मैं तो शायरी  का ख़ाक--पा भी नहीं [अगर ’पा’ होते तो  शायरी के पैर काट देते क्या ?
> मैं कोई कवि नहीं हूँ ,मुझे तो कविता का ’क’ भी नहीं आता । फिर तुलसी दास का एक चौपाई पढ़ेगा-’कवि न होऊँ नहीं कवित प्रवीनू । हिन्दी तो बस क्लास 10 तक ही पढ़ी थी [ भइए ! स्वाध्याय से आगे भी पढ़ लेते -मना किसने किया था ? ]
>हमें कविता के छ्न्द-बन्द से क्या लेना देना । जो  दिल से निकलता  है बस मंच पे लगा देता हूं। छन्द भावों के प्रवाह को रोक देती है ।गला घोंट देती है । हम तो छन्द-मुक्त कविता कहते हैं । ’मुक्त छन्द" कविता भी करते है [ अच्छा किया ।सीधे दिल से निकाल दिया ।,दिल में  रहती तो अपच ही करती ।,हम लाभान्वित हुए दन्य धन्य हुए कि ’शुद्ध रूप में  आप की महान कविता पढने को मिली]
>हम ने बस यूं ही कुछ लिख दिया ,,वरना हमें कविता करनी तो आती नहीं [ अच्छा किया ..अगर आप सोच कर ,सयास  लिखते तो कौन सा तीर मार लेते ]
> भईया हम कोई उस्ताद तो हैं नहीं ,बस आप लोगों की ज़र्रा नवाज़ी है कि इस खाकसार को ये इज़्ज़त बख्शी है [उस्ताद बन जायेगा तो पोल खुल जायेगी क्या ? किसने रोक रखा है भाई आप को उस्ताद बनने से "]
>मेरे लेखन से एक भी आदमी का भला हुआ तो समझूंगा मेरा लेखन सफ़ल हो गया ।और क्या चाहिए मुझे [ लगता है यह शुभ कार्य आजतक नहीं हुआ आप के लेखन से ।और संभावना भी नहीं ]
एक ग़ज़ल आप की ज़ेर-ए-नज़र -बस में बैठे बैठे बस यूँ ही हो गई [कॄपा आप की ।[जल्दी क्या थी ,कौन सी बस छूट रही थी ,बस में तो बैठे ही थे अगर वज़न बहर क़ाफ़िया रदीफ़ मिला लेते तो कौन सा गुनाह हो जाता ?]
एक सज्जन ने हद ही कर दी। एक ग़ज़ल यूँ ही-सोते सोते --आप की खिदमत में ।[ मैने भी ऐसी ग़ज़ल सोते-सोते ही पढ़ाखिदमत क्या हुई ,मालूम नहीं
 
[इस "शालीनता’ पर "लिखने को  बहुत कुछ है अगर लिखने पे आते ।अगर लिखने पे आते । उनको यह शिकायत है कि हम कुछ नहीं लिखते।--फ़िल्म का गाना ही लिख दिया यहाँ । किस फ़िल्म का है मालूम नहीं।
 
अब आगे इस "शालीनता "’पर क्या और लिखूँ ?कुछ डरता हूं
कहीं भूल से यह न समझ बैठो कि मैं अपने लिए भी लिखता हूँ
 
यार कहीं किसी को तीर-तुक्का लग गया तो अपनी तो हो चुकी ईद।
 
तुम्हारी नज़र क्यों ख़फ़ा हो गई
ख़ता बख़्श तो गर ख़ता हो गई
 
हमारा इरादा तो कुछ भी न था.
.तुम्हारी ख़ता खुद सजा हो गई
 
 
[क्षमा-याचना : अगर इस लेख से कोई पाठक/कवि/शायर  जाने-अनजाने आहत हुए हों तो क्षमा-प्रार्थी हूँ ।
अस्तु
 
 
 
 
 

एक व्यंग्य 75 :चुनाव और तालाब का पानी

 
चुनाव और  तालाब का पानी
 
       अब तो इस तालाब का पानी बदल दो
       ये कँवल के फूल कुम्हलाने  लगे हैं
 
" अच्छाsss जी ! दुष्यन्त कुमार’ जी पढ़े जा रहे हैं ? पढ़ो, पढ़ो "--मिश्रा जी ने आते ही आते उचारा।
-" यार मिसरा ! दुष्यन्त भाई ने क्या बात कही है ! कितने साल पहले कह दिया था "-
-"किस किस तालाब का पानी बदलोगे ? कितना बदलोगे ? यहाँ तो हर तालाब का पानी गँदला हो गया है। फूल कुम्हला रहे हैं"
-"बनारस वाले तालाब का । सोच रहा हूँ मैं भी इस चुनाव मे  बनारस से खड़ा हो जाऊं" -मैने तालाब के पानी बदलने का सही अर्थ समझाया
"हा हा हा हा"- ! मिश्रा जी ने रावण की तरह वो अठ्ठहास किया कि मैं डर गया । अरे इस मिश्रा को अचानक क्या हो गया ? इतना जोर जोर से क्यों हँस रहा है? अभी तक तो अच्छा भला आदमी था।
-" बहुत खूब ,बहुत खूब ’अन्धे को अँधेरे में बड़ी दूर की सूझी-मिश्रा ने अपनी हँसी जारी रखते हुए कहा-’ वहाँ तो पहले से ही ’कमल’ खिल रहा है  । वहाँ तालाब कहाँ है ? वहाँ तो गंगा मइया हैं । तुम्हें गंगा मइया ने बुलाया है क्या? तुम तो बस  राजा तालाब ,सोनिया तालाब का ही पानी बदल दो काफी है । चुनाव में खड़ा होना बाद में।
[ पाठको को बता दे सोनिया [सिगरा के पास] एक मुहल्ले का नाम है जहाँ  एक तालाब  [जो सिगरा से औरंगाबाद पानी की टंकी वाया सोनिया के रास्ते में पड़ता है ।अभी भी वैसे ही गँदला पड़ा है ।,’सोनिया’ से आप कोई अन्य अर्थ न  लगा लें । मैने ’जी’ नहीं लगाया है]
 -" बाद में क्यों? अभी क्यों नहीं ? बालिग हूँ ,शरीफ़ हूँ , पढ़ा लिखा  हूँ ,पागल नहीं हूँ । लोकतन्त्र है ।लोकतन्त्र मैं ऐसे वैसे जाने कैसे कैसे लोग चुनाव में खड़े हो जाते है। जब आठवी-नौवीं  फ़ेल भी मन्त्री,उप मुख्यमन्त्री ,स्वास्थ्य मन्त्री बन सकता है तो मैं क्यों नहीं?मेरी तो डीग्री भी सही है।जो चाहे जाँच करा सकता है। केजरीवाल साहब भी जाँच करा सकते हैं ।नागरिकता भी सही है ।भारत का नागरिक हूँ। ’भारत माता ’ की जय बोल सकता हूँ, वन्दे-मातरम बोल सकता हूँ, ’जय श्री राम, बोल सकता हूँ  ।इससे ज़्यादा और क्या चाहिए--देश-भक्त होने के लिए ?
जब तेलंगाना से लोग आ आ कर बनारस से चुनाव लड़ सकते हैं तो मैं बनारस का हो कर बनारस से क्यों नहीं लड़ सकता ?जब सेना का बर्खास्त सिपाही  नामांकन कर सकता है तो मैं क्यों नही भर सकता ?मैं तो बर्ख़ास्त भी नहीं हुआ था। । जब धरती-पकड़ साहब चुनाव लड़ सकते हैं तो मैं क्यों नहीं लड़ सकता ? मैं तो वैसे भी बनारस का हूँ -धरती पुत्र--’सन आप स्वायल ’। मेरे पिताश्री इसी बनारस से पढाई लिखाई कर परलोक को प्राप्त हुए। बाहरी होने का मुद्दा भी नहीं उठेगा  ।बस तुम जैसे कार्यकर्ता हाँ कर दे तो मैं खड़ा हो जाऊँ । "
-’हा हा हा हा  ’- इस बार मिश्रा जी पेट पकड़ कर बैठ गए-’ बड़े बड़े बह गए, गदहा पूछे कितना पानी ? तुम्हें गंगा मैया ने बुलाया है क्या ? आप किस खेत के मूली हैं जनाब  ? खैर ।लोकतन्त्र है , कौन रोक सकता है आप को  ?जिन्हें
 
 जमानत जब्त कराने की हसरत हो वो दीवाने कहाँ जाएँ ।
 नशा हो  "मुँह की खाने’ की तो परवाने कहाँ जाएँ  ?
 
पता नहीं मिश्रा जी शायरी कर रहे हैं या हमे समझा रहे हैं।
 
- गदहा किसे बोला ? मुहावरे में ’खरहा ’ है ,गदहा नही । एक हमारी अकेले की  ही जमानत  जब्त होगी क्या ?सबकी जब्त होगी। पिछली बार भी तो हुई थी बहुतों की  । जब बस्ती में सभी ’नककटे’ होंगे  तो मुझे ’नककटा’ कौन कहेगा ।
-" तो तुम्हे वोट कौन देगा ?’- मिश्रा ने शंका प्रगट की
-अरे वोट की क्या कमी होगी - मैने मिश्रा को वोट का गणित समझाया--" देखो ! एक तो मैं  ब्राह्मण हूँ तो समझो कि ब्राह्मणों का वोट कहीं गया नही -सारे के सारे ब्राह्मण इस "ब्राह्मण पुत्र" का ही समर्थन करेगे। कल मैने ’जनसंख्या वाली किताब ’ खोल कर हिसाब लगा लिया था । ऊपर से हिन्दू हूँ तो समझो की सारे हिन्दुओं का वोट मेरी झोली में । उन्हे विकल्प चाहिए । परिवर्तन चाहिए।सो मैं हूँ। मैं  गो-माता की सेवा करूँगा । बचपन में करता था --गाय भी दुहता था । मगर जब गईया मईया ने दुहते समय दो-चार लात मार दी तब से गो सेवा  बन्द कर दी  है। चुनाव काल में फिर शुरु कर दूँगा।तो ’समस्त गो-रक्षक " का वोट मेरी झोली में। मैं  शाकाहारी हूँ ,तो समस्त  शाकाहारी भाई मेरी तरफ़। ’ओरिजनल ’जनेऊधारी हूँ  -गायत्री मन्त्र पढ़ सकता हूँ -तो समस्त शिखाधारी भगवादरी मेरी तरफ़। -’बेरोज़गार हूँ तो समझो कि सारे बेरोज़गारों का नेता मैं ,तो उनके वोट मेरे ॥-मेरे पिता जी एक ग़रीब किसान परिवार से आते थे अत: मै ग़रीबों का और किसानों दोनो का दर्द समझता हूं~ 1-2 बार हल भी पकड़ा था लड़कपन में ।अत: सारे गरीबों का वोट मेरी झोली में --मैं इन्जीनियर भी हूं~ तो सारे बेरोज़गार इन्जीनियरों का वोट  समझो कहीं नहीं गया  -बस कोई सपना दिखाने वाला चाहिए -तो मुझ से अच्छा कौन होगा सपना दिखाने में---मैं भी बोली लगा दूँगा ग़रीबों की---मैं72000/- की जगह  80,000/- दूँगा---चाँद पर खेत दिला दूँगा--मैं भी 15 लाख की जगह 20 लाख खाते में डलवा  दूँगा ---और कुछ सपने बताऊँ क्या ?आलू से सोना बनाने वाली बात 2024 वाले चुनाव में करूँगा । मेरा तो बस एक ही सपना है कि एक बार चुनाव जीत जाऊं~तो ये सब मेरे खाते में आ जाए तो  --उनके खाते में डालूं ।
 
मिश्रा जी ने बीच  में बात काटते हुए कहा-- ’ झूठ, सफ़ेद झूठ ,तुम बेरोज़गार कहाँ हो ? अच्छी खासी सर्विस करने के बाद रिटायर हुए हो। बैठे बैठे पेन्शन चाँप रहे हो  ऊपर से ---
-यार मिश्रा! तुम्हारी यही आदत बुरी है। बीच में बात काट देते हो । चुनाव काल में झूठ-सच नहीं देखते हैं  । झूठ भी सच लगता है । पकड़े गए तो ’सुप्रीम कोर्ट’ से माफ़ी माँग लेंगे।और क्या ।अरे ! हम खाली निठ्ल्ले  बैठे हुए हैं तभी तो बेरोज़गार हैं। रिटायर के बाद किसी ने मुझे रोज़गार दिया ही नहीं । बहुत से लोग रिटायर के बाद ’जाब’ ढूँढ लेते है, जुगाड़ लगा लेते हैं और  एडवाइजर बन जाते हैं  ऐश करते हैं। और यहाँ ! धेला एक नहीं मिलना ,श्रीमती जी की सेवा करो ऊपर से, झाडू-पोंछा लगाओ अलग से । पेन्शन से  ज़्यादा तो हाथ वाले भइया मेरे खाते में डालने को बोल गए हैं और वो भी ”टैक्स-फ़्री’। वो झूट बोलेंगे क्या?
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मेरी "यही बुरी आदत’ वाली बात पे मिश्रा जी को लग गई और नाराज़ हो गए ।  शाप देते हुए कहा --’जाओ खड़े हो जाओ ! एक वोट भी न मिलेगा तुम्हें।
-’3-वोट तो पक्का है । एक तुम्हारा ,एक मेरा और एक श्रीमती जी का’ ।
 
काशी से उठो,बनारस से उठो , वाराणसी से उठो , तीनो सीट में से कहीं से उठो।  मेरा वोट तो भूल ही जाओ ’नोटा’ दबा देना क़बूल मगर तुम्हे वोट देना---"
 
"मेरे बूते मत खड़ा होना -मैं पहले  ही बता दे रहीं हूँ "- भीतर किचन से आवाज़ आई - मुझे उस दिन ब्युटी पार्लर जाना है ।
 
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खड़ा होने का प्रोग्राम अभी स्थगित। अब 2024 में  देखेंगे।दुष्यन्त जी से  क्षमा-याचना सहित
 
सामान कुछ नहीं है ,फटेहाल हूँ मगर
झोले में मेरे पास भी इक संविधान है

अस्तु
-आनन्द पाठक-
 
 
                   

 

एक व्यंग्य 74:---कीचड़ फेंकना---

 
                ---कीचड़ फेंकना,,,,
 
[ नोट- मैं पहले ही स्पष्ट कर दूँ कि यह कोई गम्भीर लेखन नहीं है ।,इसके लिए अन्य क़िस्म के प्राणी होते हैं जिसे बुद्धिजीवी या चिन्तक कहते है। और मैं बुद्धिजीवी नहीं हूँ।पहले ही माफ़ी मांग लेता हूं कि कहीं बाद में किसी नेता की तरह बयानों से मुकरने या माफ़ी मांगने की नौबत न आ जाय  ।थूक कर .....नौबत न आ जाय ]
       हाँ तो, हिन्दी में एक मुहावरा - ’कीचड़ फेकना" -काफी प्रचलित मुहावरा  है। राजनीति में तो ख़ैर यह खुल कर व्यावाहारिक रूप से बिना किसी रोक-टॊक के प्रयोग होता है। कभी कभी तो व्यक्तिगत स्तर आमने-सामने सार्थक रूप से प्रयोग होता है ।साहित्यकार भी आजमाने लगते हैं इस मुहावरे का सांस्कृतिक संस्करण -’कीचड़-प्रक्षेपण"। यह बात अलग है कभी ’कीचड़’ लग जाता है ,कभी नहीं  लगता है ।कभी चिपक जाता है। कभी नहीं चिपकता ।यह सब  कीचड की ’गुणवत्ता’ और आप की ’फेकन’ क्रिया पर निर्भर करता है
       कहीं कहीं इसके पर्याय में ’कीचड़ उछालना’ भी प्रयोग होता है । ’कीचड़ में लात मारना’ कम ही प्रयोग होता है ।इसके पर्याय में ’गोबर में लात मारना’ ज़्यादे प्रभावकारी लगता है सो चलता है । हो सकता है अन्य अंचल में कोई अन्य ’आंचलिक’ प्रयोग होता हो। कीचड़ पर बात चली तो ’कीचड़ में लोटना’ भी एक प्रयोग होता है ।कीचड में छपछ्पाना ’मुहावरा अभी बना नहीं ।राजनीति का यही हाल रहा तो वह भी बन जाएगा।
तो क्या यह सब मुहावरे एक -से हैं ? प्रथम दॄष्टया लगता तो ऐसा ही है। पर गहराई में जाने पर ऐसा है नहीं।
कीचड़ फ़ेकना’-एक क्रिया है जिसमें व्यक्ति अपने सामने वाले पर ’फेंक ’ कर आत्म-सन्तोष पद को प्राप्त होता है। आत्म-मुग्ध हो जाता है।क्या लपेटा है स्साले को । इसी आत्ममुग्धता में उसे यह भी ख़याल नहीं रहता कि उसका स्वयं का भी हाथ गन्दा हुआ ।अपनी नाक कटी तो क्या हुआ ,दूसरे का शगुन तो बिगड़ा। तो फिर क्या ? यही कामना सामने वाला भी करता है । फिर दोनों आत्म-सुख में विभोर हो जाते है। कीचड़ फ़ेंकना ’एकल-दिशा’ की [uni directional] क्रिया है ।आप एक समय में कई लोगो पर कीचड़ नहीं फेंक सकते ।एक समय-बिन्दु पर एक आदमी पर ही फेंक सकते है ।
तो फिर "कीचड़ उछालना"??
"फेंकने" और ’उछालने’ में फ़र्क है? फेंकने में लक्ष्य निर्धारित है । निशाना लगा तो लगा ।नहीं लगा तो नही लगा ।सामने वाला अपनी सुरक्षा की दॄष्टि से भविष्य के लिए सचेत रहता है ।क्रिकेट में ’बाल’ फेक कर ’विकेट’ गिराने का जुनून रहता है ।उछालने’ में क्या है?उछालेगा तो विकेट गिर भी सकता है ,नही भी गिर सकता है ।कहीं अपने ही ऊपर गिर गया तो अपनी ही भद्द पिट जाती है । उछालने की क्रिया में उतना ’आत्म सुख’ नहीं मिलता जितना ’फेकने’ की  क्रिया में मिलता है ।
       तो फिर ,"कीचड़ में लात मारना" या "गोबर में लात मारना"? -[गोबर किसी का हो चलेगा?,निर्धारित नही है ?,गाय का हो .भैस का हो ,गोबर के लिए आवश्यक शर्त नहीं है ] हाथी के ’गोबर’ को गोबर नहीं लीद कहते हैं और उतना एक साथ उठा कर फ़ेकना या उछालना ज़रा मुश्किल काम होगा ”कीचड़ में लात मारना ’वाला मुहावरा कीचड़ फेकने से एक स्तर ऊपर वाला मुहावरा है । इसमें गुस्से का समावेश है ।गुस्से में आदमी यह भी भूल जाता है कि सामने कोई है भी कि नहीं । इसमें आत्म सुख से ज़्यादा -बदले की भावना प्रबल होती है।इसमें कीचड़, सामने वाले पर लगे न लगे गारन्टी नहीं  मगर अपने आप पर लगने की पूरी गारन्टी है ।यह ’बहु-दिशा प्रक्षेपित ’ वाली ’क्रिया है साथ कई लोग पर प्रभावी हो सकती है । यह निर्भर करता है कि आप कितनी जोर से लात मारते हैं ?
"मगर कीचड़ में छपछपाना"-?
 क्यों नहीं बना यह मुहावरा? बनता तो काफी सशक्त और प्रभावकारी होता ।छपछपाने से अपने तो रंगते ही रंगते ,भाव विभोर होते रहते और एक साथ एक ही क्रिया से कई को रंग देते गले गले मिल कर ।आत्म सुख दुगुना हो जाता -आत्म मुग्धता दुगुनी हो जाती। इस पर हिन्दी के विद्वानों को सोचना चाहिए।
 "कीचड़ में लोटने का सुख तो वर्णनातीत है ।इसमें रत व्यक्ति अपने आप में सुख पाता है।-दुनिया से कोई मतलब नहीं ।वो अपनी ही दुनिया में मस्त रहता है ।यह परमानन्द की अवस्था होती है ।
 
 आप मन ही मन में समझ लीजिए
 इसमें क्या है मज़ा हमसे न पूछिए
 
यह क्रिया दूसरों के कष्ट का कारक नही बनता ।इसमें प्राप्त होने वाले सुख को कोई ’सुअर या सुअर का बच्चा’ ही बता सकता है ।सुअर भाई माफ़ करना -इस से अच्छा दॄष्टान्त न दिखा,न मिला। 
 
[नोट : पाठकों से अनुरोध है कि इस लघु-लेख पर ’नाक भौं न सिकोड़ियेगा । आप अब सुविचारित निर्णय ले सकते है कि इस लेखक पर कौन सा कीचड़ फेका जा सकता है ।वैसे भी ’चिकने घड़े पर पानी नहीं ठहरता ’तो कीचड़ क्या ठहरेगा । निठल्लम  था तो ’लिख दिया अल्लम-गल्लम । वैसे यह सामग्री आप के लिए है भी नहीं ।आप सब तो पाठक के पाठक हैं और एक पाठक दूसरे पाटक पर  कीचड़ नहीं फेकता ।
फेकने वाले और किस्म के प्राणी होते हैं
 अस्तु