मंगलवार, 6 अक्तूबर 2020

एक व्यंग्य 73 : किस्सा सास-बहू का...

 
किस्सा सास-बहू का...
 
[क्षमा याचना : उन समस्त महिलाओं से, जो अब तक सास बन चुकी हैं या बनने की प्रक्रिया में हैं । और उन महिलाओं से भी जो बहू बन चुकी हैं या बनने की प्रक्रिया में है। और उन महिलाओं से भी जो अब सास की सास बन चुकी है और उन बहुओं से भी जो बहू उतारने के क्रम में हैं ।
एक बात और ,मेरे व्यंग्य को कोई पाठक गम्भीरता से नहीं लेता है ,आप भी न लीजियेगा ।
      
हाल ही में, मेरे एक मित्र महिपाल जी ने एक ’लोकोक्ति’-"का जिक्र किया था -- बहू को होत है ' मठा ' देवन ना देवन वारी ? देगी तो ,सासुई देगी "। इस -लोकोक्ति का सरल अर्थ यह कि  सास के रहते हुए बहू कौन होती  है अपने मन से किसी को मठा ( छाछ ) देने या न देनेवाली । अभी सास ज़िन्दा है ,देगी तो सास ही देगी ।
 
।मूल लोकोक्ति शायद ब्रज-भाषा[ बुन्देली ????] की हो ।कहावत तो सही है ।सास के अधिकार की बात कही गई है। सही बात है -जब सास मौज़ूद है तो बहू की इतनी हिम्मत !!सास के अधिकार को चुनौती । बहु स्वयं ही निर्णय ले ले ?? नहीं नहीं यह नहीं चलेगा।अरे! शासन ,प्रशासन ,अनुशासन,भय ,आतंक नाम की कोई चीज़ होती है कि नहीं ?पुरानी फ़िल्मों में दिखाते थे  कि सासू जी चाबी का एक गुच्छा कमर में लटकाए इधर उधर घूमती फिरती रहती थी जो इस बात का प्रतीक था  कि देख बहू मालिकाना हक़ इधर है।तिजोरी की चाबी मेरे फेंटे में है ।बस तू तो काम करती जा । ’ कमर में चाबी ’आजकल नहीं दिखती । बहू हँसती है आजकल । तेरी चाबी तेरे फेंटे में --तेरा बेटा मेरे फेंटे में ।
 महिपाल जी ने लेख के अन्त में मेरा नाम "आनन्द.पाठक’ उजागर कर दिया ।  नतीज़ा यह हुआ कि मैं ’सास-बहू’ के सीधे निशाने पर आ गया। साहब तो पीछे हट गये ,हमे आगे कर दिया ।  मंच की सभी सास-बहू कहती फिर रहीं है- " महिपाल जी तो चलो भले आदमी थे ।इस मुआ पाठक को क्यों बुला लिया? अब यह हम लोगों की ’बखिया उधेड़ेगा’।
  मरता क्या न करता ।अब लिख रहा हूँ-अयाज़ुबिल्लाह । इसीलिए ’बिच्छू-डंक नाशक मन्त्र’ पहले ही पढ़ लिया [ हमें नहीं ,ऊपर देखें -क्षमा-याचना-मन्त्र। हम तो शुरु से ही सास-बहू जैसे संवेदनशील मुद्दे पर लिखने से हमेशा बचते रहे ।क्यों लिखें ?आ बैल मुझे मार !मगर वो तो  महिपाल जी ने बेमतलब मुझे घसीट लिया इस सास-बहू के चक्कर में ।इधर गिरे तो कुआँ--उधर गिरे तो खाई।
       पहली बात तो यह कि  सास-बहू के झगड़े में किसी ’बेचारे पति’ को नहीं पड़ना चाहिए। ’मनमोहन सिंह’ ही बने रहना उचित है। बोललो तो गेलो [ अगर बोले तो काम से गए समझो । अगर पत्नी की तरफ़ से बोले तो ’जोरू का गुलाम’ और माँ की तरफ़ से बोले तो ’-जाओ माँ की पल्लू में बैठो- मम्मी का बबुआ कहीं का-सुनना पड़ेगा ।दोनों तरफ़ से आप पर ही प्रहार। खरबूजा चाकू पर गिरे या चाकू खरबूजा पर । एक ही बात ।एक बार  ऐसी ही ग़लती मैने कर दी थी । घर निकाला होते होते बचा। मुझे आज तक नहीं पता चला कि मैं किस की तरफ़ से बोल गया था ।
       झगड़ा और रार में फ़र्क़ है। झगड़ा, समझ लें कि रार का उच्च स्तर है ।रार , झगड़े की पूर्वाभ्यास स्थिति है। रार कभी भी शुरु हो सकती  है ,कहीं से भी शुरु हो सकती है।आँगन में बैठी सास सब्जी काटती रहेगी ,कुछ भुन-भुन करती रहेगी ।क्या ज़माना आ गया है । नन्हकू की पतोहू सर पर पल्लू नहीं रखती है। बहू इस बात का मर्म समझती है।-ज़माना किधर है और निशाना किधर है।आगरा में बैठ कर दिल्ली पे निशाना ?बहू रसोई घर से ही बोलती है आज कल सर पर पल्लू कौन रखता है ,माँ जी? बस सासू जी यही तो चाहती थी कि बहू कुछ बोले तो शुरु हों। तो शुरू हो गईं। अरे! हमारे ज़माने में तो-- -हमारे यहाँ तो - हमारे घर में तो.-- -.हमारे खानदान में तो ।-..तेरे यहाँ  किसी ने कुछ नहीं सिखाया क्या ? मामला गर्म हो रहा है,। ऐसे में अगर कोई पति नाम का प्राणी वहाँ बैठ कर अखबार पढ़ रहा हो तो तुरन्त वहाँ से उसे नौ-दो-ग्यारह हो जाना चाहिए नहीं तो संभावित युद्ध में वो भी एक गवाह बनाया जा सकता है।
       क्षणिक साहित्यिक शोध से यह पता लगा कि पहले सासू ने बहू पर कहावतें बनाई होंगी ,फिर प्रतिक्रिया स्वरूप  बहुओं ने मिल कर सास पर कहावते बनाई होंगी। कोई उत्साही पाठक चाहे तो अपनी पी0एच0डी0 के लिए इस पर गहन शोध कर सकता है ।
 सास बहू की हुई लड़ाई,करैं पड़ोसन हाथापाई।यानी लड़ तो सास-बहू रही हैं मगर पड़ोसन [ जो जिसकी समर्थक हो ] बेमतलब आपस में हाथापाई कर रही हैं ।
सास की चेरी ,सब की जिठेरी- यानी सास का इतना कड़ा शासन [आतंक??] कि सास की सेविका भी देवरानियोंके लिए सास जैसी ही लगती है।
रामायण में तो ’सास’ का चरित्र-चित्रण तो बहुत अच्छा किया गया है । चाहे कौशल्या जी का हो .सुमित्रा जी का हो ।यह त्रेता युग की बात है ।मगर  कैकेयी कल भी थी -कैकेयी आज भी है । अमर पात्र है । हर युग में ज़िन्दा है ।आज कल तो फ़िल्मों में माँ माने कामिनी कौशल --सुलोचना ,निरुपा राय ,सास माने ललिता पवार।
       सास न ननदी ,आप आनन्दी। अब इस लोकोक्ति का अर्थ क्या बताना । अर्थ स्पष्ट है । उस  बहू को आनन्द ही आनन्द है जहाँ न कोई सास ,न कोई ननद।न कोई देवरानी, न कोई जेठानी ,। न कोई टोका-टोकी , न कोई रोका-रोकी। दुनिया तो यही समझती है मगर ऐसा है नही। एक पिताश्री अपनी कन्या के लिए वर ढूँढ गए थे ,संयोग से एक घर मिल भी गया। लौट कर बड़े उत्साह से अपनी श्रीमती जी को बताया ।-घर बहुत अच्छा है , न सास न ननदी ,बेटी की आनन्दी। न जेठानी न देवरानी। राज करेगी मेरी बेटी...बहूरानी ।..
बीच में बेटी बोल उठी -" ऊँ ...पप्पा ! तो मैं लड़ूँगी किससे ?
बहू के लिए शायद यह भी ज़रूरी है !!
बहुओं ने भी सास के खिलाफ़ कहावतें बनाई तो ज़रूर होंगी ,मगर सास को कभी सुनाई नहीं होंगी । सुनाई भी होंगी तो अपनी अपनी सहेलियों को। हूँ! मेरी सास ! कोठे की घास है । तो सहेली कौन सी पीछे रहने वाली थी ।उसने भी अपनी सास का सुना दिया- ’हूँ! आप तो समझो कि सास का ओढ़ना , बहू का बिछौना है । न बिछा के रख्खूँ तो समझो कि सर चढ़ जायेंगी वो।
       ऐसे में पड़ोसन भी ऐसी लोकोक्तियाँ  कहने में पीछे कब रहने वाली हैं । उन्हे अपने घर की नहीं ,पड़ोस के घर की ज़्यादा चिन्ता रहती है ।-किसी परोपकारी की तरह। अरे !  शर्मा के घर की तो बात ही छोड़ दो। उनके यहाँ तो -सास भी रानी ,बहू भी रानी ,कौन भरे कूएं का पानी। अब शहर में कुआँ तो रह नहीं गया ,लोकोक्ति रह गई ।  पड़ोसन भी चटखारे लेकर सुनाती है-सास तो कोठे कोठे ,बहू चबूतरे। क्या मतलब? मतलब कि सास तो लुक्का ,लुक्का ,बहू बुक्का ,बुक्का । क्या मतलब ? मतलब कि सास तो सब ढंक-ढाप के काम करती है और बहू-खुल्लम-खुल्ला करती है ।
इसी लिए ज्ञानियों ने कहा है -अन्धों के आगे रोना--.हकला के आगे हकलाना --,सास के आगे बहू की बड़ाई --कभी नहीं करनी चाहिए।
सास-बहू पर मुहावरे तो बहुत है ।कहाँ तक गिनाऊँ। जब तक किसी के ’बेलन-प्रहार’ से घायल न हो जाऊँ ,जाते जाते एक मुहावरा और सुनाता जाऊँ।
सास मर गई अपनी अखाह तूंबे में छोड़ गई । मतलब यह कि मर जाने के बाद भी सास की आत्मा बहू को कष्ट देती है ।वैसे ही जैसे चिड़ियों को डराने के लिए खेतों में पुतले खड़े कर देते हैं। मुहावरे तो मुहावरे है । हमने -आप ने तो बनाए नहीं ।मगर प्रचलन में हैं। वक़्त बदल गया है -अब ऐसा नहीं है ।
       मगर हर बार ऐसा नहीं होता कि सास ,बहू का ख़याल नही रखती। कोई कोई सास तो बहू को बेटी जैसी मानती है । बहू जब कभी रोती है तो सास बड़े दुलार से उस के आंसू पोछती है । सास छोहहिलीं ,गोईंठा से आँस पोंछलीं -[यह भोजपुरी कहावत है] मतलब जब सास को दुलार [छोहहिलीं] उमड़ा तो बहू के आंसू "गोईठा" [गाँव में सर्वसुलभ ] से पोंछने लगती है।दुलार तो दुलार है । आज भी बहुत सी सास हैं जो कहती फिरती है मेरी बहू को तो मेरी आँख की पुतरी जानो --बहू नहीं है --बेटा है --बेटा--बुढ़ापे की लकड़ी--।
अब आप यह न पूछियेगा कि यह "गोईठा" क्या होता है? इस पर कभी विस्तार से बात करेंगे। अभी तो फ़िलहाल यही समझ ले कि को एक ’गोबर-उत्पाद" है और कंडा,चिपरी,उपला जैसी कोई चीज़ है ,राबड़ी देवी ज़्यादा विस्तार से बता सकती हैं । उन्हें इसका विशद अनुभव है।
अन्त में उन सभी सास-बहू ,जो एक ही सिक्के के दो पहलू हैं ,से क्षमा -प्रार्थी हूँ क्योंकि सास भी कभी बहू थी ।
अस्तु
 

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