बुधवार, 21 नवंबर 2012

व्यंग्य 18.....चलते चलते --

[ व्यंग्य ज़रा लम्बा है --अत: धीरज की ज़रूरत होगी ]😆😆😆


छपाना एक पुस्तक का..... 
’जो बालक कह तोतरि बाता
सुनहि मुदित मन पितु अरु माता
या
छमिहहि सज्जन मोरि ढिठाई
सुनिहहिं बाल वचन मन लाई 

(इस व्यंग्य से यदि कोई सुधि पाठक मनसा आहत होते हैं तो गोस्वामी जी की तरह मैं भी क्षमा प्रार्थी हूँ ,आप अन्यथा न लेंगे.।--लेखक)

प्रकाशक महोदय का उत्तर प्राप्त हो गया.लिखा है "व्यंग्य -संग्रह" सहकारिता के आधार पर प्रकाशित किया जा सकता है.बशर्ते कम से कम 200 प्रतियां कमीशन के आधार पर हम उन से खरीदें.मन हर्षित हुआ.क्या नैवेद्य है ! ’त्वदीयं वस्तु गोविन्द: तुभ्यमेव समर्पयामि" परन्तु इन 200 प्रतियों का मैं करुँगा क्या? मात्र इस के कि अब गली गली हाँक लगाता फ़िरूँ -व्यंग्य ले लो ,अटपटे व्यंग्य ले लो ,चटपट व्यंग्य ले लो.ज्ञातव्य है व्यंग्य ’कसना’ और व्यंग्य ’लिखना’ दोनों ही स्थितियों में एक प्रच्छन्न ख़तरा सन्निहित रहता है.सोचा कुछ प्रतियां कम ही उठानी पड़े तो उत्तम होता. अत: संशोधन प्रस्ताव रखा.200 प्रतियां क्रय करने में अपनी असमर्थता जताई.अपना कटोरा दिखाया ,अपनी गरीबी रेखा दिखाई.काफी तोल-मोल के बोल के पश्चात प्रकाशक महोदय जी मान गए.हिन्दी के थे ,दयालु थे.अन्तिम निर्णय दिया -’भाई जी !आप की ’दन्त-चियारी’ व आप की शाश्वत गरीबी रेखा को ध्यान में रखते हुए यह हर्ष पूर्वक निर्णय लिया गया है कि अब आप प्रस्तावित 200 प्रतियों से 2 प्रति कम क्रय कर सकते हैं.अन्य शर्तें यथावत रहेंगी सोचा,भागते भूत की लँगोटी भली.वैसे भी हिन्दी लेखक के पास ज़्यादा विकल्प होता भी नहीं.इस से अच्छा तोल-मोल तो मैं सब्ज़ी वाले से कर लेता हूं.यह और बात है कि वह तौल में डण्डी मार देता है,तथापि खुश हम दोनों रहते हैं -अपनी अपनी मोल-भाव क्षमता पर.मैं खुश इस लिए भी था कि उक्त प्रकाशक महोदय ,मेरी श्रीमती जी की मोल-भाव क्षमता से परिचित नहीं हैं अन्यथा पुस्तक छापने के बजाय ’कुकर’ बेंचते नज़र आते. बचपने में माँ एक कहानी सुनाया करती थी.एक अहीर भाई और एक दर्ज़ी भाई थे.दोनों में प्रगाढ मित्रता थी.एक दिन अहीर भाई ने सोचा -क्यों न दर्ज़ी भाई से कुछ सिलवा लूं !जब मुफ़्त ही सिलवाना है कच्छा बनयाइन क्या एक बड़ा सा शामियाना ही सिलवा लेते हैं.अहीर भाई ने प्रस्ताव रखा.संयोगत: ’दर्ज़ी भाई’ भी समान मेधा स्तर के थे.उन्होने भी तुरन्त पलट प्रस्ताव रखा -’हम भी बहुत दिन से सोच रहे थे कि एक गाय मिल जाती तो...."दर्ज़ी भाई ने सोचा जब मुफ़्त ही माँगना है क्या बकरी बछिया माँगें, गाय ही माँग लेते हैं दूध-दही की भी सुविधा हो जाएगी.दोनो ही मित्र आपस में प्रस्तावों पर वचनबद्ध हो गए कुछ दिनों बाद दर्ज़ी भाई ने शामियाना सिला और अहीर भाई ने गाय सौंप कर अपना-अपना सत्य वचन निभाया.अहीर भाई जब शामियाना कांधे पर लाद कर चलने को तत्पर हुए कि दर्ज़ी भाई ने हँसते हुए एक जुमला पढ़ा.. टुकड़ी-टुकड़ी कर चिकनाई भल भुलवलहूँ अहिरु भाई अहीर भाई भी कम काव्य चेतना स्तर के नहीं थे. शामियाना कंधे पर लादे-लादे ही पलट जुमला पढ़ा मुँह में दाँत नहीं ,पेट में बछरु पियबा दूध तब जनबा ससरु (टिप्पणी : पाठकों को स्पष्ट कर दें कि ’ससरु’ शब्द का प्रयोग यहाँ किसी आत्मीय सम्बन्ध ,छन्द विधान या शब्द विन्यास की बाध्यता से नहीं हुआ है अपितु अहीर भाई जी की स्वभावगत शब्द सहजता से हुआ है) जो प्रबुद्ध पाठक है वो इस कथा का आशय समझ गए होंगे.जो सुषुप्त पाठक हैं उन्हें स्पष्ट कर दें कि ऐसी ही दो पंक्तियां मैने भी पढ़ीं-- व्यंग्य में रस नहीं ,भाव भी बेमन छापेंगे जब तो समझेंगे श्रीमन कहने की आवश्यकता नहीं कि प्रकाशक महोदय का काव्य-बोध समतुल्य था - सहकारिता पर करौं छपाई बिक्यौ बिक्यौ नहीं अपुन का जाई तत्पश्चात हम दोनों अपनी अपनी प्रवंचना शक्ति पर आसक्त हो श्रद्धानत हो गए..........
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2 कम 200 प्रतियों का मैं क्या करता ? इन प्रतियों को यदि हिन्दी के ’गज’ अग्रज अनुज मनुज दनुज या अड़ोसन-पड़ोसन सास ससुर साली सालों को नि:शुल्क भी भेंट करता तो भी यह संख्या 50 से ऊपर नहीं बैठती थी.कवि से क्षमा याचना सहित 

ये सास ससुर साली साले ,बीवी बच्चे ये घर वाले
सब जोड़ तोड़ कर देखा तो पचास के भीतर ही पाया

सोचा कुछ प्रतियां काल-पात्र में डाल ’इण्डिया गेट’ कांची पुरम ,हावड़ा ब्रिज के नीचे दफ़ना दूँ कि अगर भविष्य में कभी पुरातत्व विभाग वाले उत्खनन करें और श्रद्धेय रामचन्द्र शुक्ल जैसा कोई समर्थ इतिहासकार उस काल में पैदा हो तो मेरी भी रचना प्रक्रिया पर कुछ प्रकाश पड़ सके और यह प्रमाण रहे कि पूर्वकाल मे भी कुछ साहित्यकार अकवास-बकवास अल्लम-गल्लम लिखा करते थे.

या फिर कुछ प्रतियां अयोध्या मथुरा काशी में ही काल-पात्रस्थ कर दूँ कि भविष्य में मेरे कुछ उर्दू-दाँ दोस्त मेरी रचना पर उर्दू-रचना खड़ा कर दें तो भगवा केसरिया स्कार्फ़ वालों को यह कष्ट न उठाना पड़े कि यह संग्रह मूलत: हिन्दी में था और बाद में अल्लाह के बन्दों ने अपना उर्दू महल इस पर खड़ा कर दिया

या फिर कुछ प्रतियां हिन्दी महापुरुषों की समाधि,चिता-स्थली,भस्म-स्थली या फिर तथाकथित हिन्दी के अखाड़ों ,खेमों ,गुटों ,हिन्दी संस्थानों में काल-पात्रस्थ कर दूं जिससे यह पता चलता रहे कि हिन्दी का व्यंग्य किस दिशा या दशागति को प्राप्त हो रहा है.

वैसे तो प्रकाशक महोदय की हार्दिक इच्छा थी कि में अपने हिस्से की समस्त प्रतियां उनके मुद्रणालय से उठा लूँ जिससे इस पॄथ्वी का कुछ बोझ हल्का किया जा सके .जब मैने स्पष्ट किया कि कुछ प्रतियां उठाने मात्र से ही धरती का बोझ हल्का नहीं हो सकता बल्कि कुछ तथाकथित स्थापित लोगों को भी उठाना पड़ेगा तो जाने क्या सोच कर वह स्वयं ही कुर्सी पे उठ गये.

अन्तत: सोचा कि कुछ प्रतियां हिन्द महासागर कि अतल गहराईयों में डुबों आऊँ कि इस संग्रह को चुल्लू भर पानी में डूब मरने का शर्मनाक कष्ट न झेलना पड़े,साथ ही भविष्य में यदि पुन: सागर मन्थन हो तो "पन्द्रहवां रत्न" जो पौराणिक काल में प्रगट होने से वंचित रह गया था ,वह तब निकल आये.भो सकता है भगवान ’नील-कण्ठ’को एक बार फिर अपने इस भक्त के लिए कष्ट उठाना पड़े.

कुछ प्रतियाँ स्वयंभू स्वनामधन्य तथाकथित स्थापित समीक्षकों के पास भेंज दी .समीक्षा अपेक्षित थी.ये समीक्षक भी एक विशेष किस्म के प्राणी होते हैं.प्राथमिक कक्षाओं में’मास्साब’ एक पट रटवाया करते थे -’हरि बोले ,हरि सुने, हरि गए हरि के पास...जब दोनों हरि मिल गए ,हरि हो गए उदास’. अर्थात एक समीक्षक बोलता है दूसरा सुनता है ,तीसरा सर धुनता है.

यह समीक्षक पहले लेखक का वज़न नापता है कि लेखक कितना ’गुरु’ (चालाक नहीं ,भारी) है उनके लिए अलग समीक्षा और नव लेखकों को ’उड़न छू’ (उड़ते हुए छूना) शैली की समीक्षा. यही कारण है कि ’शैल जी’ हर बार बाजी मार ले जाते हैं और ’चकाचक बनारसी’ रह जाते हैं .कुछ समीक्षक लेखक की चौड़ाई नापते हैं ,उसके खेमे का कितना विस्तार है ,मित्रों की (गुटबन्दियों की नहीं )कितनी संख्या है.? उसके खेमे में कितने खंबे हैं ,कितने खूंटे हैं ? ’बारह खंबा चौसठ खूँटा’ -की समीक्षा अलग ,बिना खेमे वाले की समीक्षा अलग.कुछ समीक्षक लेखक की ऊँचाई नापते हैं कि लेखक का कद कितना ऊँचा है .कहाँ कहां तक पहुँच है .भारत भवन हिन्दी संस्थान,कोई कमेटी ,कोई एकेडेमी? कोई कोर्स बुक चयन समिति छू सकता है कि नहीं ? उसकी समीक्षा विशेष अन्यथा ’टालू-मिक्चर’.आज तक यह रहस्य बना हुआ है कि ये प्राणी लेखक की ’गहराई’ कैसे नापते हैं? कदाचित लेखक के तोल-मोल की क्षमता या प्रवंचना प्रलाप शक्ति को ही गहराई का मापदण्ड मानते हों. ’गुरु’ बड़े ’गहरे हो......


अर्थात, समीक्षक लेखक के तन (मन?) का नाप अलेकर एक समीक्षा सिल देता है और पहना देता है उसके ’व्यक्तित्व, व ’कृतित्व’ को.।कुछ समीक्षक तो इतनी कसी समीक्षा सिलते हैं कि वो समीक्षा ’शर्ट’ न होकर ’चोली’ हो जाती है जिसे लेखक न पहन पाता है ,न छोड़ पाता है।एक-दो समीक्षक तो इतनी ढीली-ढाली समीक्षा करते हैं कि समीक्षा समीक्षा न हो ’भगवा’ हो जाती है और प्रकृति का ’रोमान्टिक कवि भी बाबा,त्रिशूलधारी कमण्डलधारी नज़र आता है।कुछ कुछ समीक्षक के यहां तो यह नाप-माप उनके अधीनस्थ छात्र लेते हैं ,भाई साहब तो मात्र ’कटिंग’ करते हैं।इन्हीं सब झंझटों से मुक्त होकर ,कुछ समीक्षक आजीवन ’घाघरा’ ही सिलते हैं -न नाप की चिन्ता ,न माप की।सबसे मुक्त ,सर्वमान्य, सार्वजनीन।कुछ बन्धुगण तो इस व्यापार में रेडिमेड की दुकान ही खोल दी है ,आप लेखक का ’साईज़’ और उम्र बताइए ,समीक्षा ले जाइए।’एक्स्ट्रा लार्ज’ की दर अलग।



कुछ समीक्षकों की अपनी अलग शैली होती है।कुछ लोग तो करुण रस में ही समीक्षा करते हैं-बेचारा लेखक,बेचारा कवि।----दया आती है बेचारे पर।एक भाई साहब तो धूपी चश्मा पहन कर ही समीक्षा लिखते हैं। समर्थ लेखकों की चकाचौंध रोशनी आँखों में चुभती है अत: चढ़ा लेते हैं अपनी सुरक्षा हेतु।बाद में ज्ञात हुआ कि सारी समीक्षा ’एक- दृष्टि’ से ही करते हैं.कुछ लोग तो यह रंगीन चश्मा वात्सल्य भाव से अपने ’आश्रम’ के शोध छात्रों को दे देतें हैं -वत्स ! तू भी लिख दे दो-चार विन्दु।फिर उस शोध छात्र को लेखक का सारा व्यक्तित्व व कृतित्व हरा ही हरा नज़र आता है। कहते हैं धूपी चश्में में ’पावर’ नहीं होता अत:कोई भी पहन सकता है ,समीक्षा लिख सकता है।



अन्धों ने हाथी देखा।किसी ने पांव टटोले .किसी ने पूँछ ,किसी ने कर्ण स्पर्श किया ,किसी ने सूँड़।किसी ने ’स्तुति-गान’ किया ,किसी ने ’स्वस्ति-वाचन’ और सभी ने अपनी अपनी मेधा शक्ति से हाथी की विस्तृत समीक्षा कर दी।एक सज्जन ने समीक्षा करते हुए लिखा--’लेखक पर वामपन्थी विचारधारा का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है ।’ वह और उसका जुलूस’ ’कटोरा बुधना का’,’कुत्ता बड़े साहब का’ ’हरहुआ और टी0वी0’ में निर्विवाद रुप से यह तथ्य स्थापित किया जा सकता है कि लेखक के हृदय में ’सर्वहारा वर्ग’ के प्रति असीम प्यार है और ’पूँजीवाद" व्यवस्था के प्रति विद्रोह। एक लेख (एम0जी0 रोड) में तो उन्होने ’लेनिन; मार्क्स’ जैसे शब्दों का प्रयोग भी किया है।

एक सज्जन ने इस मत का खण्डन करते हुए लिखा ---" यह स्पष्ट रूप से नहीं कहा जा सकता कि लेखक ’कम्यूनिज़्म’ से लेश मात्र भी प्रभावित है।वास्तविकता त्त यह है कि उस में देश-भक्ति कूट-कूट कर भरी है ,पाठक कृपया सन्दर्भ लें ’प्रधानमन्त्री और जन्म दिन,रघ्घू हटाओ देश बचाओ ,गुबार देखते रहे.।



एक नान सेकुलर समीक्षक ने लिखा-.." लेखक हिन्दुत्व और हिन्दू पौराणिक कथाओं के प्रति पूर्वाग्रह ग्रसित है ।कट्टर पन्थी,पुराणपन्थी ,पोंगा पन्थी ,साम्प्रदायिक लगता हुआ प्रतीत होता है ।पौराणिक कथाएं चुरा चुरा कर व्यंग्य करता है।"सुदामा फिर अइहौ" सावित्री लौट आई,"गुरु-दक्षिणा आदि का सन्दर्भ लिया जा सकता है।"नेता जी और पंच-तन्त्र "जैसी कहानियाँ भी खींच-खाँच कर इस श्रेणी में रखा जा सकता है। मैं पूछता हूँ कि क्या लेखक को सम्पूर्ण अदीब में एक भी कोई ऐसा प्रतीक ,प्रतिबिम्ब या कथा वस्तु नहीं मिला कि उसे अपने व्यंग्य का आधार बना सके?अत: यह मत स्पष्ट रूप से स्थापित किया जा सकता हैकि लेखक कहीं न कहीं साम्प्रदायिक हो उठा है \अत: "सेक्यूलर" है 



और अन्त में,अपना सार-तत्व इन पंक्तियों में निचोड़ कर रख दिया

न तू ज़मीं के लिए ,है न आस्मां के लिए

तेरा "व्यंग्य" है महज़ ख़ामख्वाह के लिए 

और मैं श्रद्धानत हो गया।

यदि किसी ने मेरे कृतित्व की सम्यक समीक्षा की तो वह थे आचार्य पण्डित रमणीक लाल जी। लिखा-"लेखक के ऊपर एक पत्नीवाद का प्रभाव है।उनकी कथाऒ ,लेखों यथा -’शरणम श्रीमती जी" " एक भाषण मेरा भी ""श्रीमती जी की काव्य-चेतना" "(अपवाद-विज्ञापनी शादी )" समर्पित है..." में कहीं भी किसी अन्य पत्नी या उप-पत्नी की चर्चा प्रत्यक्षत: नहीं आई है। यह अछूता तथ्य निर्विवाद रूप से मण्डित किया जा सकता हैकि लेखक -"पत्नी को परमेश्वर मानो"- का मध्यम पुरुष है ।प्रथम और उत्तम पुरुष श्रद्धेय श्री गोपाल प्रसाद व्यास जी हैं।लेखक की व्यंग्य लेखन निर्भयता एवं निष्पक्षता इस बात से भी प्रगट होती है कि वह किसी अस्त्र-शस्त्र (अपवाद-बेलन) से नहीं डरता।सन्दर्भ तदैव-(एक भाषण मेरा भी)।अत: लेखक एक पत्नीवाद का प्रबल समर्थक ,पोषक व पक्षधर है।



मैं मन ही मन रसिक लाल जी के प्रति कृतज्ञ हुआ कि उन्होंने "एक पत्नीवाद" ही लिखा ।’बहु-पत्नीवाद’ लिखते तो यह बन्दा खाक़सार न घर का होता न घाट का।अपितु किसी पत्नी-पीडित शरणार्थी शिविर में जूता सिलाई कर रहा होता।

एक वयोवृद्ध समीक्षक ने मेरे अन्दर समस्त वाद का प्रभाव देखते हुए लिखा कि लेखक आल इन वन (All in one) है गुड फ़ार नन(Good for none) है। ..................

-समस्त ’फूल और पत्थर’ या ’फूल और काँटे’ के बावज़ूद मैं अब भी 2कम 200 प्रतियों के प्रति चिन्तित था।इसी दुविधा में पड़ा हनुमत स्मरण किया कि मिश्रा जी आ टपके। पाठक गण मिश्रा जी से अबतक परिचित हो गए होंगे ,जो वंचित रह गए हैं बे कृपया ’विज्ञापनी शादी’ ’रावण नहीं मरता’ ’सखेद सधन्यवाद’ आदि कथाओं का सन्दर्भ लें जिसमें किसी में वो मेरे लिए ’संजीवनी (ग्लायकोडीन) ,किसी में खेमा,किसी में नि:शुल्क प्रतियों की व्यवस्था करते हैं । मैं उनका तो नहीं परन्तु उनकी कविताओं का प्रथम और अन्तिम श्रोता अवश्य हूँ। यह पद व सम्मान प्राप्त करने कि लिए एक सरकारी विभाग में कठिन प्रशिक्षण लेना पड़ा -’कान खुला रख कर भी कुछ न सुनना"

मैने उन्हें अपनी चिन्ता से अवगत कराया। पहले मुस्कराए ,फिर मुँह बाए ,तत्पश्चात पान की पीक थूकते हुए बोले -"अरे! वो प्रतियां विक्रय के लिए होती भी नहीं, उनका वितरण ही श्रेयस्कर होता है । इससे नि:शुल्क प्रचार व प्रसार होता है अन्यथा टी0वी0 पर विज्ञापन देते फिरोगे ’--आ गया ..आ गया ...का नवीनतम तमतमाता ..धनधनाता..मारकाट मचाता व्यंग्य संग्रह...। और कोई प्रायोजक भी न मिलेगा।

"मगर यार ! ऎसी प्रतियां 50 से ऊपर नहीं बैठ रही है \

"लाओ मैं बैठा देता हूं । इसी लिए तो मैं कहता हूं रह गए तुम ’घों’ के "घों"।

"क्या मतलब ?"

’शब्द कोश में देख लेना।

मिश्रा जी समस्त प्रतियां लेकर अन्तर्ध्यान हो गए और मैं शब्दकोश लेकर सावधान हो गया। क्या अर्थ हो सकता है इस अर्ध-शब्द "घों’ का? देखा घोंचू ,घो्ड़ा,घोंघा ,घोंघा बसन्त,घोंघी (लतीफ़ घोंघी नहीं)। घों कुछ भी हो सकता है । मिश्रा जी के इस अर्ध-सम्मान के लिए अर्ध नत मस्तक हुआ।कुछ दिनों पश्चात मिश्रा जी प्रसन्नचित्त मुद्रा में पधारे और आते ही बोले-

’यार चलो ! उठो ,जनता के विचार लेते आएं’

क्या"?-मैने जानना चाहा

’अरे क्या क्या ?तुम्हारी सारी प्रतियां वितरित कर आया समाज के विभिन्न वर्गों में ,ज़मीन से जुड़े लोगों के मध्य। देशी ज़मीन के देशी लोगों मे।"

"क्यों’?

"क्योंकि ये लोग निस्पृह और स्पष्ट विचार रखते हैं।ये पूर्वाग्रह ग्रसित नहीं होते।ये शब्द चबा चबा कर नहीं बोलते। ये निर्मल और निश्छल होते हैं। सहमति और असहमति इनके दिल प्रदेश से निकलती है।"

"अच्छा ! मन हर्षित हुआ। चेहरे पर एक चमक उभर आई। मिश्रा ने एक सत्कार्य किया। देखते हैं यह ’स्वयंभू" क्या लिखते हैं? लोकतन्त्र है जनता की आवाज़ ही जनार्दन की आवाज़ है।उन समीक्षकों का क्या जो कमरे बन्द कर लिखते हैं और दिमाग कि खिड़कियां भी नहीं खोलते।

मैं झट तैयार हो ,मिश्रा के स्कूटर पर रथारुढ हो चल पड़ा अर्जुन की तरह।

पूरे मार्ग सोचता रहा कि मिश्रा ने अवश्य यह किताब किसी महाविद्यालय ,किसी विश्व-विद्यालय के प्राध्यापक को दिया होगा मेरा व्यंग्य-संग्रह।ये लोग भी तो ’सूर-सूर तुलसी शशि" पढ़ते पढ़ाते रहते हैं ।इनके अपने सन्तुष्ट और सौष्ठव विचार होते हैं। कुछ नव साहित्य पर चर्चा होगी,नए आयाम नए दृष्टिकोण पर वार्ता होगी कि मिश्रा ने अचानक एक हलवाई की दुकान के सामने स्कूटर रोक कर खड़ा किया। मैने समझा कि भारतीय संस्कृति के अनुरूप मिष्ठान वग़ैरह लेकर चलेगा ,समीक्षा मीठी होगी...कि मिश्रा ने दुकानदार से अनौपचारिक प्रश्न किया-

"कहो भाई ! कैसा चल रहा है?’

"सलाम स्साब ,1-किलो तौल दूं ?"

"अरे भाई ! आज मि्ष्ठान लेने नहीं ,विचार लेने आया हूं। आप ने वो किताब पढ़ी ?"

"कौन सी स्साब ?"

"अरे वही जो विगत सप्ताह दे गया था?

"अरे वो ! क्या करें स्साब ! धन्धा बड़ा मन्दा चल रहा है "

"यार मैं धन्धे की नहीं मै उस किताब...."

"व्यंग्य के धन्धे में कोई लाभ नहीं है स्साब !न लिखने में ,न प्रकाशन में। और उस किताब में तो स्साब ! पाक ही कच्चा रह गया था ,एक-रसता नहीं थी तार नहीं बन पाया था....।’

मैं आश्चर्य चकित रह गया। तो क्या मिश्रा ने एक प्रति इस हलवाई को सौंप दी थी ?किसी प्राध्यापक को देना उचित नहीं समझा? फिर भी मैं सज्जनता वश चुप था कि हलवाई ने पुन: कहा-

" स्साब ! जिस व्यंग्य का पाक कच्चा रहेगा ,तार नहीं बनेगा वह समाज को नहीं बाँध पाएगा ..अपितु कुछ दिनों बाद वही व्यंग्य एक सड़ान्ध गन्ध देगा.."

मैं हलवाई जी की इस विलक्षण समीक्षा प्रतिभा पर अचम्भित रह गया।हो न हो पूर्व जन्म में यह अवश्य ही कोई व्यंग्य लेखक रहा होगा और किसी दुर्वासा समीक्षक के श्राप से इस जन्म में हलवाई बन गया है

"तो कैसे बिकेगी यह किताब ?"-मिश्रा चिन्ता में डूब गया

"चिन्ता की कोई बात नहीं ,स्साब ! -हलवाई ने ढाढस बँधाते हुए कहा -"जब ऐसी मिठाईयां खराब हो जाती हैं तो हम लोग किसी मेले-ठेले में ,किसी सरकारी ’कैन्टीन’ में ठेल देते हैं।आप भी किसी सरकारी लाइब्रेरी या पुस्तक मेले में ठेल दीजिए स्साब ।सुना है कि कलकत्ता में तो लाईन लगा कर पुस्तक खरीदते हैं लोग।

मैं हलवाई जी की इस व्यापार-प्रतिभा पर नत मस्तक हो कर चल दिया ।

चलते चलते मिश्रा जी ने एक सिनेमा हाल के सामने स्कूटर खड़ा किया।मैने आशंका व आक्रोशवश प्रश्न किया -" तो क्या अब यह टिकट की खिड़की वाला बतायेगा कि ’व्यंग्य संग्रह ’ बाक्स आफ़िस पे हिट हुआ कि नहीं ?

"अरे नही यार ! " मिश्रा जी ने अनौपचारिक रूप से कह -" यह वह चेहरा है जो ’पब्लिक डिमाण्ड’ के हर एपिसोड में दिखाई देता है ।यह वह चेहरा है जो हर फ़िल्म,हर कहानी ,हर गाने पर अपनी बेबाक राय देता है ,स्पष्ट टिप्पणी करता है । यही है वो चेहरा जो माधुरी दीक्षित को माधुरी दीक्षित बनाता है ।नम्बर टेन के गाने को नम्बर वन पे लाता है ।तुम हिन्दी के लेखक हो यह सब आधुनिक बातें क्या समझोगे । तुम रह गए ’घों’ के ’घों’.....

"खबरदार मिश्रा ! तुम क्या समझते हि कि हमें ’घों’ का अर्थ नहीं मालूम ?"

मिश्रा जी सकपका गए। फिर उन्होने ने एक ’ब्लैक ’टिकट बेचने वाले को बुलाया

"सलाम स्साब ! कितना टिकट दूं साब ? दो का चार दो का चार"

’अरे नहीं मुन्ना भाई ! इधर तुम से कुछ पूछने को आया।’

’साब! धन्धे का टैम है । एक तो फिलिम सड़ेला है ऊपर से धन्धा ठण्डा चल रहा है । फ़ोकट में पूछना है तो बाद में आना साब 

बाद में क्या आता। विचार जानना था ,सोचा प्रतीक्षा करना ही श्रेयस्कर है। वैसे भी तो बड़े बड़े समीक्षक प्रतीक्षा ही तो करवाते हैं अपने अध्ययन कक्ष में । फ़ोन करो तो पता चलता है कि साहब बाथरूम में है। लगता है कि बाथरूम में ही बैठ कर समीक्षा लिखते हैं ,तभी तो ऐसी गन्ध आती है।

मैं विचलित हो रहा था } इस मिश्रा के बच्चे ने कहां लाकर फँसा दिया। समीक्षा न होती तो क्या बिगड़ जाता ? व्यर्थ में रक्त जला रहे हैं। ख़ैर , मुन्ना भाई धन्धा ख़त्म कर ,पुलिस का अंशदान कर निवृत हो कर आया।

"पूछो साब.क्या पूछना माँगता?"

’अरे ,वो किताब पढ़ी ?’

’कौन सी साब?’

अरे ! वही ,जो तुमको दे गया था’

’पढ़ी साब’-मुन्ना के चेहरे पे मुस्कान .आंखों में चमक ,कथन में आत्म विश्वास था। मैने भी उच्छवास छोड़ ,चैन की सांस ली। सरकार के प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम के महत्व का पता आज चला।सार्थक हो गई मेरी रचना ,सफल हो गया मेरा परिश्रम।

" कैसा लगा"-मिश्रा ने जिज्ञासा प्रगट की।

"धांसू साब,क्या जोरदार लिखा है ।क़सम साब ,मज़ा आ गया रात ’

’रात?’किधर पढ़ा?-मिश्रा चौंका

’उदर को साब ,खोली में पढ़ा’

’उदर काई कूं पढ़ा? इदर पढ़ने का नहीं क्या?-मिश्रा ने भाषा सामंजस्य स्थापित किया.विचारों के सहज आदान-प्रदान के लिए।

’इदर को साब ? फुटपाथ पे?इदर पढ़ेगा तो पुलिस जास्ती मारता’

"काइ कू मारता?’

’बोलता है ऐसी किताबें पढ़ेगा तो एक महीने को भीतर कर देगा’- मुन्ना ने अपनी स्थिति स्पष्ट की।

मैं दंग रह गया।मेरी किताब पढ़ने से पुलिस मना करती है?व्यंग्य लिखना कोई अपराध है?यह तो दर्पण है। आप का चेहरा विकृति है तो मत देखिए ,मगर दूसरों को पढ़ने से मना क्यों करते हो? यहां लोक तन्त्र है।अभिव्यक्ति की आज़ादी है। लिखने की आज़ादी,पढ़ने की आज़ादी।यह अन्याय है।मैं इस अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाऊंगा। मेरा संग्रह कोई ’सैतानिक वर्सेज’ नहीं ,कोई ’लज्जा’ नहीं कि लोग छुप-छुप कर रात के अन्धेरे में पढ़ें। हर विद्रोही कवि की तरह मैं उबल रहा था कि मिश्रा ने पूछा -

" भाई मुन्ना ! तुम कौन सी किताब की बात कर रहे हो?’

’वही साब ,जिसे बड़ा बड़ा साब लोग रात अकेले बेड रूम में पढ़ता है। हम छोटा लोग उदर खोली में पढ़ता । ऐसी किताबें मिलती कहाँ है यह तो मालूम, परन्तु छपती कहां से है मालूम नहीं ,साब।"

"मैने मिश्रा से कहा,"यार मिश्रा ,लगता है यह किसी ’पार्णग्रही’ किताब की बात कर रहा है ...राम! राम! राम!

"पार्णग्रही’ नहीं ’पार्नग्रफ़ी’ किताब की बात कर रहा है"

’हाँ,हाँ वही"-मैने स्पष्ट किया

अचानक वार्ता क्रम में मुन्ना भाई चहक उठा-’बरोबर पकड़ा साब। वही किताब। बाई गाड ,बड़ा मज़ा देती है’

अरे ! वो जो मैने दी थी’-मिश्रा ने स्पष्ट किया

’अरे वो? बण्डल साब। वही तो बेंच कर खरीदी थी। आठ आना मिला था। एक बात कहूं साब ,व्यंग्य-श्यंग कोई नहीं पढ़ता ,खाली आलमारी में सज़ा कर रखता है बड़ा साब लोग।

मैं व्यंग्य के भविष्य की चिन्ता माथे उठाए चला आया।

          मैने निश्चय कर लिया कि अब कहीं नहीं जाऊँगा । लिखना पढ़ना सब व्यर्थ।मिश्रा जी ने ढाढस बधाँया।दर्शन बताया ,समीक्षा का रहस्य समझाया।फिर भी...’आशा बलवती राजन’।अनमने मन से ,मिश्रा जी के साथ चल पड़ा। कदाचित कोई सुयोग्य समीक्षक मिल ही जाय कि अचानक मिश्रा ने स्कूटर खड़ा किया।

"सलाम साहब"- स्कूटर रुकते ही रहमान मियां ने कहा

रहमान मियां रद्दी बेंचने और ख़रीदने का काम करते थे।कबाड़ी थे। संग्रह की एक प्रति सम्भवत: मिश्रा जी उन्हें भी दे आए थे।

’किताब पढ़ी"?

’कौन सी साहब?’अच्छा वो ? बण्डल है साहब ,पेपर सड़ीला है ।इसका तो ठोंगा भी नहीं बनता। आप कहेगा तो तीन रुपया किलो लगा दूंगा।

’यार रद्दी का भाव नहीं ,व्यंग्य का भाव पूछ रहा हूं’

’व्यंग्य श्यंग्य सब बरोबर । फ़िल्मी मैगज़ीन चार रुपए किलो चल रहा है। साहब लोग ठोंगे में भूँजा खाता है और फ़ोकट में हीरोइन का फ़ोटू भी देखता है।’

’यार मिश्रा ! ’-मैने कहा-’व्यंग्य का भाव अब किलो में ?तीन रूपया?’

’तुम कहेगा साहब’-रहमान मियां मेरी तरफ़ मुड़ कर बोले-’आठ आने जास्ती लगा दूंगा।यह साहब तो अपने मुहल्ले में रहता है इस वास्ते’। व्यंग्य श्यंग्य का कोई मार्किट नहीं साहब !’

मैं गुस्से में उठा और वापस चल दिया घर की ओर।अब कहीं नहीं जाना। निश्चय कर चुका था कि मिश्रा ने अचानक स्कूटर एक रिक्शा वाले के सामने रोक दिया। मैं फिर चौंका। तो क्या मिश्रा अब मुझे स्कूटर से उतार कर रिक्शे से रवाना करेगा ?

मिश्रा ने तुरन्त रिक्शेवाले के कंधे पर हाथ रख दिया अपनापन जताने के लिए।कुछ इधर-उधर की अनौपचारिक वार्ता के बाद ज्ञात हुआ कि यह भी एक पहुँचा हुआ समीक्षक है। उसकी मान्यता है या उसे यह भ्रम है कि रिक्शे के तीनों पहिए साहित्य की विधायें हैं-कविता ,कहानी,उपन्यास-जिन्हें वह गति देता है। अगर किसी ने गति पकड़ी तो ’आलोचना’ का ’ब्रेक’ भी लगा देता है।

मिश्रा ने पूछा-’अरे वो किताब पढ़ी?

कौन सी?

अरे वही?

अरे वो? वो तो फ़ालतू थी साहब।

क्यों?

’क्यों कि भीतर कोई फोटू ही नहीं था .बस ’कवर’ का फोटू जानदार था साहब।मगर ’टाइटिल’ बण्डल। अब आप ही बताइए साहब -"शरणम श्रीमती जी’-यह भी कोई टाइटिल है? लेखक को दीदी के ’शरणम’ की नहीं "चरणम’ की ज़रूरत है बिल्कुल ’भिरगू’ मुनि की तरह। उधर बस्ती वाला बोलता है कि दीदी अपनी तरफ़ की है।

बाद में ज्ञात हुआ कि उक्त रिक्शावाला ,अपने ही ससुराल क्षेत्र का था। भृगु क्षेत्र ’बलिया’ का

तत्पश्चात ,सारी समीक्षा वहीं की वहीं रख आए। लौट कर बुद्धू..नहीं नहीं ’घों’..घों’ घर को आये।

अस्तु

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-आनन्द.पाठक--