रविवार, 25 मई 2014

व्यंग्य 22 : चिरौंजी लाल कहिन.....


चिरौंजी लाल कहिन........

"शादी तो जनाब हमारे ज़माने में हुआ करती थी । आजकल जैसा नहीं कि बस चट मँगनी और पट विवाह ,झटपट तलाक। शाम ढले बारात गई और रात रहे वापस"- आते ही आते गुस्से से भरे चिरौंजी लाल ने कहा
-" आज सुबह ही सुबह किधर से आ रहे हैं ?"-मैने जिज्ञासा प्रगट की
" अरे जनाब ! मत पूछिए। भिखमंगे हैं सब भिखमंगे। कहते थे कलकत्ता में बिजनेस है,मुम्बई में बिजनेस है। सुबह होने से पहले ही हाथ जोड़ लिए।न नाश्ता .न पानी। विदाई कर दी...ढोल के पोल है सब...। यह भी कोई शादी हुई ? आप ही बताइए।"
मैं उनकी मुखाकॄति व आक्रोश भाव से समझ गया कि आज फिए किसी बारात से सीधे आ रहे हैं और वहाँ उनकी सेवा भाव में कुछ कमी रह गई होगी।
"अरे कोई बात नहीं ,हम आप को नाश्ता-पानी करा देते हैं’- मैने तो यह बात मित्र-धर्म भाव से कही थी परन्तु श्रीमती जी सचमुच नाश्ता-पानी की व्यवस्था करने चली गईं\चिरौंजी लाल जी सद्य: अनुभवित शादी वृतान्त क्रम जारी रखे रहे।
"....जनाब शादियाँ तो हमारे ज़माने में हुआ करती थीं। क्या शादियाँ हुआ करती थीं।साल भर से बात चला करती थी।जाति परखी जाती थी ,परिवार परखा जाता था,खानदान परखा जाता था खून परखा जाता था।अब आप समझिए कि उस ज़माने में लड़्का-लड़की की शादी नहीं हुआ करती थी ’मूछों’ की शादी होती थी । गाँव की इज़्ज़त का सवाल होता था। गाँव की मूछ नीची नहीं होनी चाहिए।बाबू साहब की मूँछ नीची हो गई तो पूरे गाँव की मूछ नीची हो जायेगी।चिरौंजी लाल जो कहिन सो कहिन..।

और अब?

-"अब तो लोगो ने मूछें ही रखना ही छोड़ दिया।क्लीन शेव हो गये सब के सब...."
चिरौंजी लाल अपना दुख दर्द सुनाते रहे और बीच बीच में मैं हाँ हूँ करता रहा, उनको यह प्रतीत न हो कि मैं उनका कथा-पुराण नहीं सुन रहा हूँ।उनका आख्यान जारी रहा।

"....कितने शान से हम लोग कहा करते थे फ़लाना गाँव में हमारी बेटी व्याही हुई है।हमारी बेटी ,माने सारे गाँव की बेटी। पूरा गाँव घराती हो जाता था।चिरौंजी लाल जो कहिन सो कहिन ...। और अब...?अब तो समझिए जनाब कि....अखबार में विज्ञापन देकर शादी कर रहे हैं...जैसे एवरेस्ट मसाले...अशोक मसाले...बेंच रहें हो...."
चिरौंजी लाल जी अभी और कुछ ’पुराने ज़माने’ ’नये ज़माने’ की तकनीकी पहलुओं का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करते और बीच बीच में ’कहिन सो कहिन’ करते-मैनें बीच ही में बात काटना उचित समझा। बिल्कुल वाल्मीकि जी की तरह स्वत: एक श्लोक अकस्मात प्रस्फुटित हो गया-

पुराणमित्येव न साधु सर्वम् ,न चापि सर्वम नवेति अवद्यम्
सन्त: हृदयात् अन्त: परिक्ष्यते ,मूढ: परिप्रत्यनेव  बुद्धि
अर्थात हे चिरौंजी लाल! यह परम्परा पुरानी है इसलिए सब कुछ अच्छा है और यह परम्परा नई है इसलिए अच्छा नहीं है- ऐसी बात नहीं है। श्रेष्ठ जन किसी भी चीज़ को पहले हृदय से विचार करते हैं जब कि मूढ़ लोग तुरन्त मान लेते हैं
मेरे इस अक्स्मात व अप्रत्याशित श्लोक वाचन से चिरौंजी लाल जी का मुँह खुला का खुला रह गया जैसे लालू जी ने ’जूलियस सीज़र’ का कोई संवाद बोल दिया हो।चेतनावस्था में आते ही उन्होने अपनी शंका प्रस्तुत की-" तो जनाब ! पूर्व जनम में  आप संस्कृताचार्य थे?"
 " अरे नहीं भाई !जैसे पूर्व जनम में आप नारद नहीं थे’-मैने कहा
फिर हम दोनों सद्य: नेवेदित परस्पर विशेषणों पर हँसने लगे कि इसी अन्तराल में श्रीमती जी ने नाश्ता प्रस्तुत किया

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चिरौंजी लाल कोई काम करते हो या न करते हों ,परन्तु एक काम बड़े मनोयोग और ईमानदारी से करते हैं-और वो काम है हर किसी की शादी में शामिल होना। मुहल्ले में किसी की शादी हो और चिरौंजी लाल जी शामिल न हों-हो नही सकता।
दुनिया इसे उनका आत्मसुख मानती है पर वो इसे पुनीत कार्य में अपना ’योगदान’ मानते हैं।यदा-कदा अपने इस योगदान में उन्हें ख़तरा भी उठाना पड़ जाता है विशेषत: तब जब ’वर-पक्ष’ और ’कन्या-पक्ष’ किसी बात पर वास्तविक रूप से भिड़ जाते हैं। और इनके पक्ष वाले इन्हें अग्रिम मोर्चे पर किसी सैनिक की तरह खड़ा कर देते हैं और एकाध डंडा ये भी खा लेते हैं। ऎसे लोग महान होते है,हानि-लाभ से परे होते हैं,यश-अपयश से ऊपर होते हैं,हास-परिहास से मुक्त होते हैं। निन्दा-स्तुति से निर्विकार होते हैं। इनके इन्हीं गुण विशेष और विशेषत: इनके इसी योद्धापन से प्रभावित होकर, मुहल्ले वाले शादी का प्रथम निमन्त्रण पत्र इन्हें अवश्य भेंजते हैं।
चिरौंजी लाल जब किसी बारात से लौट कर आते हैं तो किसी विजयी योद्धा की तरह सप्ताह पर्यन्त आद्योपान्त सजीव वर्णन करते हैं । द्वार पूजा से लेकर विदाई तक।कैसे नत्थू भाई ने गोली चलाई कि घोड़ी भड़क गई।कैसे घोड़ी ने दुलत्ती मारी कि दुल्हे भाई जमीन पर आ गिरे।कैसे लड़की वालों ने मितव्ययिता का परिचय दिया कि एक ही कुल्हड़ में मिठाई और नमकीन रख दी । नाश्ता कर लेना और उसी कुल्हड़ से पानी पी लेना। कैसे हम बारातियों ने लड़की के बाप के पसीने छुड़ा दिये कि अन्त में पानी माँगने लगा।कैसे लड़के ने ’खिचड़ी’ नहीं खाई तो लड़की के बाप ने पैर पर ’पगड़ी’ रख दी। मुहल्ले वाले बड़े चाव से सुनते थे ऐसे क़िस्से।सम्भवत: वो भूल जाते थे कि उनके भी घर में कोई लड़की है जिसकी शादी में ऐसा ही कोई चिरौंजी लाल आयेगा।......

लेकिन उससे ज़्यादा रोचक प्रसंग वह तब सुनाते थे जब किसी शादी में वास्तविक लड़ाई हो जाती थी और ’वर-पक्ष’ और ’कन्या-पक्ष’ सशरीर भिड़ जाते थे।तब चिरौंजी लाल जी बराती न होकर ’योद्धा’ बन जाते थे। फिर ’लोहा सिंह’ के नाटक की तरह वर्णन करते थे--"....जब मैं काबुल के मोर्चे पर था ...खदेरन का मदर...तब दुश्मन की फ़ौज़ को...। कैसे हलवाई की भट्टी से एक जलता हुआ चैला निकाला ...कि सारे लड़की वाले भाग खड़े हुए"। इनकी अपनी वर्णन शैली है और इनका अपना इतिहास है।

चिरौंजी लाल का वास्तविक नाम ’चिरंजीव लाल ’ है ।उनके माता-पिता ने कितना सोच कर इतना अच्छा नाम रखा था। मगर वो जब से शहर में आ कर बसे है कि चिरंजीव लाल से ’चिरंजी लाल’ हो गए औए कालान्तर में भाषा-विज्ञान के श्राप से ’चिरौंजी लाल ’ हो गए। शहरवालों की यह अपनी नामकरण शैली है-जैसे गाँव का ’लालू’ शहर में आकर ’लल्लू’ और फिर ’ललुवा’ हो जाता है। जैसे पहले यहाँ का श्रमिक मारीशस सूरीनाम में पहले ’एग्रीमेन्ट-लेबर’ फिर ’एग्रेमेन्टिया लेबर ’ और अन्त मे ’गिरमिटिया लेबर’ हो जाता था। भाषा-विज्ञान में इसे मुख-सुख कहते हैं।

चिरौंजी लाल अपना कोई काम करें न करें परन्तु दूसरों का काम करने हेतु सर्वदा तत्पर रहते हैं।किसी का कोई कचहरी का काम हो,आफ़िस पोस्ट-आफ़िस का काम हो,स्कूल-अस्पताल का काम हो ,हमेशा आप के साथ खड़े मिलेंगे। परन्तु थाना-पुलिस के कार्यों से क्यों दूर रहते हैं आज तक रहस्य बना हुआ है।उनके इन्ही गुण-विशेष से उन्हें कभी भी चाय-पानी की दिक्कत नहीं हुई।जहां बैठ गए ,वहीं महफ़िल।मुद्दों की कोई कमी नहीं।बिना मुद्दे के वह घंटों गुज़ार सकते हैं किसी सिद्ध नेता की तरह। आवश्यकता है तो बस छेड़ने की।फिर क्या!
अख़बार का पुलिंदा दबाए चिरौंजी लाल जी सुबह ही सुबह पधारे
"...कैसे कैसे हो गए हैं आजकल लोग ,दहेज के नाम पर...हर लड़के का बाप लगता है कि भूखा-नंगा खड़ा है...कैसे नोच लें लड़की के बाप को...?"
मैं समझ गया आज फिर कोई लड़की फाँसी चढ़ गई । चिरौंजी लाल जी जारी रहे...
"....अरे जनाब ! दहेज तो हमारे ज़माने में लोग माँगा  करते थे -देने वाला खुश.लेने वाला खुश।चिरौंजी लाल कहिन सो कहिन।जनाब एक बार एक बारात में गए थे हम,।...वर-पक्ष और कन्या-पक्ष में पहले से ही सब कुछ तय हो गया था। लड़की के पिता अच्छे गृहस्थ थे,अच्छी खेती बारी थी । बारात गई ,द्वार-पूजा हुई ,स्वागत भाव हुआ ,जलपान हुआ।मंगलाचरण के समय लड़के के पिता [समधी] की दृष्टि खूंटे पर बँधी एक गाय पर पड़ गई।समधी जी का मन विचलित हो गया।कैसे यह गाय माँगी जाय। लेन-देन तय होते समय यह ’गाय’ सूची में तो नहीं थी । अब इसे कैसे जोड़ा जाय।अब उन्हें द्वार-पूजा,पाँव-पूजा मंगला चरण विधि-विधान से कोई लगाव नहीं रह गया । यह सब तो पंडितों का काम है वो तो कर ही रहे हैं ।हमें तो ’गाय’ लेनी है ,जुगत भिड़ानी है।लड़के के बाप जो ठहरे।
द्वार-पूजा कार्यक्रम के पश्चात ,बारात वर ठहराव स्थल [जनवास] वापस भी आ गई।मगर समधी जी का मन वहीं द्वार पर बँधी ’गाय’ में अटक गया।विवाह के अगले कार्यक्रम की तैयारी होने लगी मगर समधी जी उधेड़ बुन में लग गए।कन्या-पक्ष से ’वर-मेटी’[आज्ञा] माँगने का संदेश आया। अचानक समधी जी का दिव्य-ज्ञान जग गया-यही अवसर है बदले में गाय माँगने का।अत: उन्होने नि:संकोच अपनी माँग रख दी।इस अकस्मात और असामयिक माँग से कन्या-पक्ष ’भौचक’ हो गया और उस के बाद ’भौं’..भौं..चक..चक शुरु हो गया}अब कन्या-पक्ष ने अपनी असमर्थता व्यक्त की। दोनों पक्षों में हुज्जत शुरु हो गई। दोनो समधी ’मुख-सुख’ पर उतर आये।’आप ने मुझे क्या दिया....आप ने मुझे कहाँ का छोड़ा...अरे अपनी भी इज्जत है 10 गाँव में.......तो हम क्या भिखमंगे नज़र आते हैं ..हम लड़के के बाप है ..लड़के के....

विवाद निरन्तर बढ़ती ही जा रहा था । चिरौंजी लाल का ’योद्धापन’ करवटें बदलने लगा। उन्होने ’शिरस्त्राण’ और ’कवच’ पहना शुरु कर दिया न जाने कब इसकी आवश्यकता पड़ जाय।इसी वाद-विवाद के मध्य कन्या-पक्ष के किसी योद्धा ने ललकारा-"...अरे नहीं देता है मेटी तो छीन लो इस समधी के बच्चे से"
इस ललकार पर समधी जी सावधान हो गये।सचमुच अगर यह मेटी छिन जायेगी तो गाय नहीं मिल पायेगी। इस से पहले कि सचमुच कोई योद्धा आकर पॄथ्वीराज की तरह मेरी ’मेटी’ का अपहरण कर ले,समधी जी स्वयं मेटी लेकर पलायन कर गए। आगे आगे  समधी जी ,पीछे पीछे कन्या पक्ष।अनिवर्चनीय दॄश्य। इससे पहले कि वह पकड़े जाते,समधी जी मेटी लेकर पेड़ पर चढ़ गए।कन्या-पक्ष ठिठक कर पेड़ के नीचे खड़ा हो गया बिल्कुल उस कहानी की तरह जिसमें एक कौआ था ,उसकी चोंच मे वर की मेटी थी और नीचे कई लोमड़ियाँ खड़ी थीं।.........

मान मनौव्वल अनुग्रह-मनुहार शुरु हो गया । समधी जी की वीरता महानता का बखान शुरु हो गया।लोग उनके पराक्रम के क़सीदे पढ़ने लगे, तो कुछ लोग स्तुति वाचन करने लगे।कुछ लोग पुराने रिश्तों की दुहाई देने लगे तो कुछ लोग उनकी वंश परम्परा का इतिहास बताने लगे। इन सबका असर न उन पर पड़ना था, न पड़ा।चिरौंजी लाल ने कहा -’कन्या के पिता को गाय दे देनी चाहिए ,अरे वर के पिता ने ’गऊ माता’ की इच्छा ही तो प्रगट की है ,कोई सोना-चाँदी तो नहीं माँगा है। आख़िर लड़के का बाप है ।उसका भी कुछ हक़ बनता है कि नहीं?"। बारातियों में से 2-4 लोगों ने समवेत स्वर से समर्थन किया।
अन्त में पण्डित जी ने संदेश भिजवाया-" जजमान शीघ्रता करें ,मुहुर्त निकला जा रहा है।अन्ततोगत्वा ,कन्या के पिता ने समधी जी से कहा-"आप के लड़के के लिए अपनी बछिया तो दे ही रहा हूँ महराज, आप के लिए गाय की बछिया दे दूँगा । अब तो नीचे उतर आइए।"
दोनों समधी अपनी लेन-देन की क्षमता पर आत्म-मुग्ध हुए। फिर शादी का कार्यक्रम आगे बढ़ा।समधी जी ने भी दान की बछिया के दाँत नहीं गिने। यह अन्य बात है कि कालान्तर में वह बछिया ’बाँझ’ निकली।
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आज चिरौंजी लाल के हाथ में कोई अख़बार तो नहीं था ,मगर माथे पर चिन्ता की रेखा अवश्य थी। चेहरे पर कुछ सकुचाहट का भाव था जैसे वो कुछ पूछना चाहते हैं ,मगर पूछ नहीं पा रहे हों।अन्तत: उन्होने पूछ ही लिया
" किब्ला, ये इन्टर्नेट चैटिंग क्या बला होती है?"
" जब हम-आप टाइम पास करते हैं तो ’गलाचार’ कहते हैं और जब कम्प्युटर के माध्यम से लड़का-लड़की आपस में बात करते हैं तो ’इन्टर्नेट-चैटिंग’ कहते हैं। मगर आप को क्या आन पड़ी?"
-’सुना है फ़िरंगी लाल का बेटा इन्टरनेट चैटिंग से शादी कर रहा है। चैटिंग से शादी कैसे होती होगी? इसमें बारात में जाने का अवसर मिलता है क्या?"-चिरौंजी लाल ने अपना दर्द बताया
अब मैं पूरा मामला समझ गया।चिरौंजी लाल जी की चिन्ता का कारण-बारात सुख से वंचित- भी समझ गया। फिर मैने उन्हे विस्तार से समझाया कि कैसे लड़का-लड़की इंटरनेट से बातें करते हैं ,फिर एक दूसरे को समझते-बूझते हैं ,मिलते-जुलते हैं फिर शादी करते है। कभी कभी ’चैटिंग’ में ’चीटिंग’[धोखा] भी हो जाती है।
अभी मैं उन्हे समझा ही रहा था कि चिरौंजी लाल बीच में ही बोल उठे-’राम राम राम ! कईसा घोर कलियुग आ गया है ।जनाब! शादी से पहले मिलना-जुलना??"
-"हाँ ,तो क्या हुआ?"
-" आप कहते हैं कि क्या हुआ? अरे! कहिये कि क्या नहीं हुआ?’शादी से पहले मिलना-जुलना? तो बचा ही क्या?’चैटिंग से शादी? न खून का पता,न ख़ानदान का पता -चिरौंजी लाल कहिन सो कहिन
न अगुआ ,न पंडित ,न नाऊ
इन्टर्नेटी  शादी  देन हाऊ ?
[अगुआ : वो व्यक्ति जो दोनो पक्षों के बीच शादी और बातचीत लेन देन तय कराने में आगे रहता है और झगड़ा होने पर भाग जाता है फिर दोनो पक्ष उसे मिल कर खोजने लगते हैं]

’वाह वाह क्या मिसरा पढ़ा है ....सुभानाल्लाह सुभानाल्लाह..’-मैने दाद दिया उन्होने सर झुका लिया।
"अरे ! शादी तो जनाब हमारे ज़माने में हुआ करती थी ...शादी से पहले मिलना जुलना तो दूर.....लड़का लड़की एक दूसरे को देख भी नहीं सकते थे।
एक बार एक लड़के ने शादी से ठीक 2 दिन पहले लड़की देखने की इच्छा प्रगट की----जानते हैं लड़की के बाप ने क्या कहा? कहा-अगुआ जी !अगर यह लड़का मेरा होने वाला दामाद न होता न तो देता कान के नीचे दो...आज उसी लड़के का लड़का इंटरनेट से शादी कर रहा है...राम राम राम क्या घोर कलियुग आ गया है !"
" आप तो इन्हीं दकियानूसी विचारों के कारण अब तक यहीं बैठे रह गए।आगे नहीं बढ़ पाए "-मैने छेड़ा
’जनाब ! हम तो शादी कर के बैठे हैं ,वो तो तलाक़ दे के बैठे हैं"-चिरौंजी लाल जी ने रहस्य समझाया
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"दहेज के नाम पर लड़की ने बारात वापस कर दी ...कानपुर देहात..लड़के के पिता ने..." -चिरौंजी लाल जी ने आते ही आते मेरे सामने अख़बार पटक दिया। मैं समझ गया अब यह ’हिज मास्टर वायस’ की तरह पूरा रिकार्ड बजा कर ही दम लेगा।
-"...लड़की ने बारात वापस कर दी...? चिरौंजी लाल जी शुरु हो गए-"..राम राम राम ,क्या ज़माना आ गया।अरे बारात तो हमारे ज़माने में वापस हुआ करती थी।" न भूतो,न भविष्यत’। ऐसी घटनायें ,सैकड़ों में एक होती हैं। भृगु क्षेत्र बलिया गया था । कन्या पक्ष से आमन्त्रित था। बारात काशी क्षेत्र से कहीं से आई थी।लेन-देन में क्या तय हुआ था यह पता न चलता अगर उस रात झगड़ा न हुआ होता ।बारात सही समय पर पहुँची,द्वारपूजा हुआ ,मंगलाचरण हुआ। पता नहीं किस बात पर उन्नीस-बीस हो गई।
दोनों समधी एक ही व्यवसाय के थे ,समान मेधा स्तर के थे।दोनों ही पैसे को दाँत से पकड़ते थे। दोनों की मान्यता थी जो पैसा जेब से न निकले ,वही आमदनी है ,वही कमाई है।दोनों अपने को मितव्ययी कहते थे पर दुनिया उन्हे ’कंजूस’ कहती थी।कन्या के पिता को लगा कि जो स्वर्ण-हार वर पक्ष को चढ़ाना था वह किधर है? तो वर के पिता को लगा कि जो धनराशि लेन-देन में तय हुआ था वो किधर है? दोनो पक्ष अविश्वास के वातावरण से ग्रसित हो गये। फिर दोनों पक्षों के लोगों ने अपने अपने पक्ष को हवा देना शुरु कर दिया । अविश्वास का बादल घनीभूत होने लगा।
दोनों लोग पुनर्संशोधित  ’लेन-देन’ पर बहस कर ही रहे थे कि ’तम्बू-कनात’ वाले को कुछ शंका हो गई।इस पानीपत की लड़ाई में उसे अपना पैसा डूबता नज़र आया।तम्बू लगाया तो था लड़के वालों के लिए पर सट्टा[Agreement] किया था लड़की वालों ने। बारात वापस चली गई तो पैसा किस से वसूलेगा? लड़के वाले फिर कहाँ मिलेंगे?यही सुनिश्चित करने के लिए उस ने अपने बिल के भुगतान हेतु ’वर के पिता के समक्ष प्रस्तुत किया।वर के पिता भड़क उठे। डाँटते हुए भगा दिया -" हमसे क्यों माँगता है? जा उन से माँग जिस ने तुम से सट्टा किया है। इस अप्रत्याशित उत्तर से तम्बू वाला सकपका गया।
वर पिता यह रहस्य जानते थे कि सट्टा तो कन्या के पिता के नाम है। हम क्यों भरें? वही भरें ,वही भुगतें। जो ही 3000/- 4000/- की बचत होगी।ऊर्जा की बचत-ऊर्जा की कमाई।तम्बू वाला अब कन्या के पिता के पास गया।अपनी व्यथा कथा सुनाई।अब कन्या के पिता श्री के भड़कने की बारी थी ।
’क्या कहा?सट्टा हमने किया है ? लड़के वाले ने ऐसा कहा?अरे वो तो हमने उनके कहने पर उनकी तरफ़ से मदद के तौर पर तम्बू-कनात की व्यवस्था करा दी वरना लाते अपने यहाँ से।भलाई का ज़माना ही नहीं रहा ।अब कहते हैं कि पैसा नहीं देंगे। यह तो धोखाधड़ी है , विश्वासघात है । हे राम ! क्या ज़माना आ गया!आदमी का आदमी पर भरोसा करना मुश्किल हो गया...."
’मालिक हमारा हिसाब हो जाता तो ..."-तम्बू वाले ने गुहार लगाई
"अरे ! ठहर तो ज़रा ,क्या शोर मचाता है ...ज़रा फेरे तो पूरे होने दे ..हम कौन से भागे जा रहे हैं ...कि तू मरे जा रहा है ?"
 सिन्दूरदान हो गया।फेरे भी पूरे हो गये।कन्या के पिता ने तम्बू वाले को बुलाया-" ला अपना बिल ...ले अपना हिसाब। कहते हैं सट्टा मेरे नाम से है ...तो जा उखाड़ दे तम्बू ...’-कन्या के पिताश्री ने आदेश दिया।
उधर वरपक्ष तम्बू में बैठ कर अगली रणनीति पर गहन विचार कर रहा था कि तम्बू वाले ने सचमुच तम्बू उखाड़ना शुरु कर दिया । इस अप्रत्याशित ’तम्बू उखाड़न प्रक्रिया’ से  वरपक्ष भौचक रह गया। अब कौन सी रणनीति बनेगी ? युद्ध में जो पहले प्रहार कर दे वो विजयी।अब खुले आसमान के नीचे बारात पड़ी रहे ये तो सरासर अपमान है। अरे भाई ,हम लड़के वाले हैं ,कोई उठाईगीर नहीं । वर पक्ष के सिपहसालारों ने सलाह दी-" अरे तम्बू उनका है तो क्या रेलवे प्लेटफ़ार्म तो उनका नहीं । अब अगली रणनीति हम वहीं बैठ कर बनायेंगे।
आधी रात को पूरी की पूरी की बारात रेलवे प्लेटफ़ार्म पर आ गई- चिरौंजी लाल ने बताया
"नहीं ,पूरी बारात तम्बू उखड़ने के पहले ही प्लेटफ़ार्म पर आ गई थी"- मैने संशोधन प्रस्तुत किया
"अरे! आप को कैसे मालूम? घटना तो 30 साल पुरानी है"- चिरौंजी लाल विस्मित हो गए
" क्योंकि उस शादी की रात मौर पहने खाली पेट प्लेटफ़ार्म पर मैं ही सोया था"
" अजी छोड़िए भी ,क्या एक ही बात को फेंट रहे है 30-साल से"--श्रीमती जी ने सकुचाते हुए कहा और नाश्ता रख कर भीतर चलीं गईं

अस्तु     
-आनन्द.पाठक