मंगलवार, 10 सितंबर 2019

एक व्यंग्य 58: हिंदी पखवारा और मुख्य अतिथि

14-सितम्बर , हिंदी दिवस के अवसर पर विशेष-----]
एक व्यंग्य : हिंदी पखवारा और मुख्य अतिथि

"अरे भाई मिश्रा जी ! कहाँ भागे जा रहे हो ? " ---आफिस की सीढ़ियों पर मिश्रा जी टकरा गए
’भई पाठक ! तुम में यही बुरी आदत है है । प्रथमग्रासे मच्छिका पात:। मालूम नहीं कि आज से ’हिन्दी पखवारा" शुरू हो रहा है ?मालूम नहीं कि सरकारी विभाग में हिन्दी पखवारा का क्या महत्व है ? मरने की फ़ुरसत नहीं होती "---मिश्रा जी ने अपना तात्कालिक और सामयिक महत्व बताया।
’अरे ’मार ’कौन रहा है तुम्हें ?-’ बदले में मै ने सहानुभूति जताई ।
इसी बीच मिश्रा जी की हिंदी चेतना जग गई-" मरने" की बात कर रहा हूँ ’डाईंग’--’डाईंग- । ’मारने’ ’बीटिंग’ बीटिंग’ की बात नहीं कर रहा हूँ ।’मरना’ अकर्मक क्रिया है --’मारना’ सकर्मक क्रिया है । मालूम भी है तुम्हें कुछ । मालूम भी कैसे होगा? "फ़ेसबुकिया" हिंदी से फ़ुरसत मिलेगी तब न ।
’अरे जाओ न महराज ,मरो’--मै ने अपना पीछा छुड़ाते हुए ,वहाँ से खिसकना ही उचित समझा।
मेरे पुराने पाठक ,मिश्रा जी से अवश्य परिचित होंगे। जो नए पाठक हैं ,उन्हें मिश्रा जी के बारे में संक्षेप में बता दूँ । मेरा सम्बन्ध मिश्रा जी से वही है जो कभी राजनारायण जी का चौधरी चरण सिंह से था , के0पी0 सक्सेना जी का किसी ’मिर्ज़ा’ से था या अमित शाह जी का मोदी जी से है। मिश्रा जी अतिउत्साह में जब कहीं ’लंका-दहन’ कर के आते हैं तब मुझे ही ’लप्पो-चप्पो’ कर के स्थिति सँभालनी पड़ती है।
मिश्रा ने सही तो कहा । मैं आत्म-चिन्तन में डूब गया । सरकारी विभाग में हिंदी-पखवारा के दौरान हिन्दी -अधिकारी का काम कितना बढ़ जाता है ।कितनी भाग दौड़ करनी पड़ती है ।जाके पैर न फटी विवाई ,सो क्या जाने पीर पराई ।
अब मिश्रा जी ने चिन्तन शुरू कर दिया -आसान काम है क्या एक ’हिंदी-अधिकारी ’ का काम ।बड़े साहब का हिंदी में संबोधन-सन्देश लिखना ,स्वागत-भाषण लिखना, धन्यवाद प्रस्ताव लिखना, हिन्दी की क्या महत्ता है -पर आलेख लिखना । उदघाटन के लिए मुख्य-अतिथि चुनना ,पकड़ना और पकड़ के लाना ।और मुख्य-अतिथि चुनना भी आसान काम है क्या? बड़े-बड़े साहित्यकार तो पहले से ही बुक हो जाते है । शादी के मौसम में बाजा वालों को समय से ’बुक’ न करो तो बजाने वाले भी नहीं मिलते। नखरे ऊपर से।
मुख्य अतिथि पकड़ने-धकड़ने में पिछली बार कितनी परेशानी हुई थी ,।एक ठलुआ निठ्ठल्लुआ साहित्यकार के पास गया था। बैठ कर मख्खी मार रहा था मगर ’किसी हिंदी कविता कहानी ग्रुप का ’फ़ेसबुकिया एड्मिनिस्ट्रेटर’ था । हिंदी-ग्रुप का फ़ेसबुकिया संचालक भी अपने आपको हिंदी का "मूर्धन्य साहित्यकार’ मानता है । और जो उसे नहीं मानता ,वह उसे ’लतिया’ देता है अपने ग्रुप से । वह अपने नाम के आगे ’कवि अलानवी ’ वरिष्ठ लेखक , कथाकार ढेकानवी ..शायर फ़लानवी लिख लेता है । ख़ुद ही मोर पंख लगा लेता है।
ऎसे ही एक महानुभाव के पास .हिंदी-दिवस के लिए निमन्त्रित करने गया ।
"भई मेरे पास तो टैम नहीं है ’मुख्य अतिथि’ बनने का । दसियों जगह से निमन्त्रण आए हैं ।आप ही बताएँ कहाँ कहाँ जाऊँ। आप मेरे ’रेगुलर क्लाईन्ट’ है तो कुछ न कुछ करना ही पड़ेगा ।डायरी देख कर बताता हूँ।भाई साहब ने अपनी डायरी देखी,माथे पर कुछ चिन्ता की लकीरें उभारी, कुछ मुँह बनाया,कुछ ओठ बिचकाया ,कभी चश्मा उतरा ,कभी चश्मा चढ़ाया और अन्त में प्रस्फुटित हुए--" मुश्किल है भाई साहब । किसी प्रकार एक-घंटा निकाल सकता हूँ आप के लिए।भई मेरे पास गाड़ी तो नहीं है आप को ही ले जाना पड़ेगा और वापस छोड़ना पड़ेगा। बच्चों के लिए कुछ उपहार होना चाहिए -’पत्रम-पुष्पम’ वाला लिफाफा ज़रा वज़नदार होना चाहिए-----"
"सर ! यह कुछ ज़्यादा नहीं है ? इतना बजट नहीं है ,सर अपना "-मैने अपनी ’दंत -चियारी ’ करते हुए सरकारी असमर्थता जताई ।
" तो आज ही उदघाटन करा लो,फीता कटवा लो । सस्ते में कर दूँगा’---उन्होने हिंदी सेवा का अपना व्यापारिक रूप दिखाया
’सर !’हिंदी दिवस’ आज नहीं है न ,वरना आज ही बजवा लेता मतलब फीता कटवा लेता।
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पितॄ-पक्ष में कौए पूजे जाते हैं । अच्छे-अच्छे पकवान खिलाये जाते है। इस उमीद से कि पुरखे तर जाएंगे ।हिंदी-पखवारा में न जाने क्यों हिन्दी साहित्यकार ही बुलाए जाते हैं।इस उमीद से कि हिंदी तर जायेगी । मान्यता है बस।

कोई मिला नहीं तो थक हार कर उन्हीं महोदय को मोल भाव कर के लाया । पखवारा का अन्तिम दिन था सस्ते में --गाड़ी से ले आने-ले जाने की शर्त पर मान गए ।
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हिंदी पखवारा का आख़िरी दिन । 14-सितम्बर।
सभागार भरा हुआ है । सरकारी अधिकारी मंच पर बैठ गए।माला फूल हार पहना दिए गए। सरस्वती-वंदना हो गई । दीप-प्रज्ज्वलित हो गया । उदघाटन हो गया-। मुख्य अतिथि महोदय माइक पर आए और भाषण शुरु किया।
"-- पहले मैं आप सभी का धन्यवाद ज्ञापन कर दूँ कि आप ने इस पावन अवसर पर इस अकिंचन को याद किया ---आप सब जानते हैं -आज ही के दिन हिंदी हमारी ---गाँधी जी ने कहा था अगर देश को एक सूत्र में कोई पिरो सकता है तो वह है हिंदी---नेहरू जी ने कहा था-----हिन्दी एक भावना है ---जो भरा नहीं है भावों से ,जिसमें बहती रसधार नहीं , वो हृदय नहीं है पत्थर है-- ।हिंदी भारत माँ की बिंदी है------
"बात यहीं से शुरु करते हैं --हिन्दी पखवारा--’ उन्होने पीछे मुड़ कर दीवार पर टँगे हुए बैनर को देखते हुए कहा--" हिंदी-पखवारा। कभी आप ने ध्यान दिया कि यह शब्द कैसे बना? नहीं दिया न ? आज मैं बताता हूँ-- ’पखवारा ’- पक्षवार से बना है ।जैसे ’ईक्ष’ को "ईख’ को बोलते हैं । यानी’क्ष’ को ’ख’ बोलते है । पक्ष यानी 15-दिन का एक पक्ष--कॄष्ण पक्ष--शुक्ल पक्ष। अब तो लोग ’हिंदी-सप्ताह’ को भी लोग हिंदी पखवारा बोलने लग गए। कहीं कहीं कुछ लोग ’हिंदी-पखवाड़ा’ भी बोलते है ।कुछ जगह तो लोग -’ड़’- को -’र’ भी बोलते है जैसे "घोरा सरक पर पराक पराक दौर रहा है ’ ।यह किस प्रदेश की भाषा है यह न पूछियेगा । आप इस चक्कर में न पड़े कि पखवारा है कि पखवाड़ा-है । मगर --बैनर हमेशा वक्ता के पिछवाड़ा ही टँगा रहता है
--तालियाँ बजने लगी । क्या ज्ञान की बात कर रहा है बन्दा ।वाह वाह ।उन्होने अपना भाषण जारी रखा।
"अन्त में । हिंदी सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषा है---मैं पिछली बार जब अमेरिका गया था-तो लोगों का हिंदी प्रेम देख कर मन अभिभूत हो गया --अगर आप कभी ’ऎडीसन’ गए हों --’ऎडीसन’ न्यूजर्सी की एक काउन्टी है -तो आप को लगेगा कि आप फिर भारत में आ गए जैसे कि आप यू0पी0 में हैं बिहार में हैं -- उस से पहले मैं रूस गया था तो वहाँ भी हिंदी बोली जाती है--आवारा हूँ [मैं नहीं] -मेरा जूता है जापानी --मेरा दिल है हिन्दुस्तानी ---हिंदी सुन कर मेरा सर श्रद्धा भाव से झुक गया हिन्दी के अगाध प्रेम के प्रति। जापान की बात तो खैर और है -। एक बार जापान भी गया था ।वहाँ के विश्वविद्यालय में आमन्त्रित था---
"अन्त में --. हमें हिंदी को आगे बढ़ाना है ।आप लोग सरकारी अधिकारी हैं ,कर्मचारी है ।देश के कई भाग से आए होंगे --कोई .तमिल’ से आया होगा --कोई आन्ध्रा से -कोई केरला से -।हिंदी बहुत ही सरल भाषा है । जिन भाइयों को हिंदी नही आती --घबराने की कोई बात नहीं --आप आफ़िस की नोटिंग में कठिन अंगरेजी शब्दों को देवनागरी में लिख दें --बस हो गई हिंदी--
"अन्त में -----
अन्त में --अन्त में कह्ते कहते 1 घन्टे के बाद अन्तियाए और सभा समाप्त हो गई ।हिन्दी दिवस मना ली गई एक सरकारी कार्यालय में ,और मुख्यालय को रिपोर्ट भेज दी गई ।
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बड़े साहब-- ’ मिश्रा ! इस मुए को कहाँ से पकड़ के लाया था। इस से अच्छी हिन्दी तो मैं ही बोल सकता था।
मिश्रा जी -----’सर ! आप विभाग के ’मुख्य महा प्रबन्धक’ हैं ,आप ’मुख्य अतिथि ’कैसे हो सकते थे। यह आदमी निठ्ठला खड़ा था आज के दिन ’लेबर चौक’ पर, सो पकड़ लाया। ’सस्ते’ में ’अच्छा’ भाषण दिया।
’या ,या ’-कह कर बड़े साहब ने अपने घर की राह ली।
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बाद में मालूम हुआ कि वह वक्ता भाई साहब जो ”दसियों निमन्त्रण’ की बात कर रहे थे वो अपना भाव बढ़ाने के लिए कर रहे थे और जो डायरी देख कर बताने की बात कर रहे थे उस में वह रोज नामचा लिखते हैं।वह इदेश-विदेश कहीं नहीं आते-जाते ।साल में एक बार अपने गाँव चले जाते है और उसी को ’विदेश-यात्रा " कह कर उल्लेख करते रहते हैं ।यह रहस्य उनके एक दूसरे प्रतिद्वन्दी हिंदी सेवक भाई ने बताई।
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मुख्य अतिथि महोदय के ’अंगरेजी के कठिन शब्दों को देवनागरी में लिखने वाले ’प्रवचन’ का कितना प्रभाव-- तमिल --कन्नड़ -मलयालाम भाषी भाइयों पर पड़ा होगा ,मालूम नहीं ।मगर मिश्रा जी पर काफी गहरा प्रभाव पड़ा ।
अगले दिन उन्होने ’हिंदी वर्जन विल फ़ालो" वाले एक अंगेरेजी सर्कुलर का हिन्दी अनुवाद कर अधीनस्थ कार्यालयों को यूँ भेंज दिया
" टू द मैनेजर
प्लीज रेफ़र दिस आफिस लास्ट लेटर डेटेड----
आइ एम डाइरेक्टेड टू स्टेट दैट-------
नान कम्प्लाएन्स आफ़ द इनस्टरक्शन विल भी ट्रीटेड सीवीर्ली--

हिंदी आफ़िसर
फ़लाना आफ़िस

अस्तु
-आनन्द पाठक-



बुधवार, 1 मई 2019

एक व्यंग्य 57 : बड़ा शोर सुनते थे--

एक व्यंग्य : बड़ा शोर सुनते थे---

--’बड़ा शोर सुनते थे पहलू में दिल का ’ ।ख़बर गर्म थी ।उनकी नाक उनकी दादी जैसी है। दादी की झलक है ।वह आँधी हैं ’आँधी"। अगर बनारस से उठ गईं तो ’कमल’ की तमाम पँखुड़ियां उड़ जाएँगी ।हाथी साथी सब हवा हो जायेंगे। उनके कार्यकर्ताओं मे गजब का उत्साह  भर जाता था जब वो  पूछती थीं --’ बनारस से उठ जाऊं क्या’ --? खड़ी हो  जाऊँ क्या ?।कार्यकर्ता भी सब अभिभूत हो जाते थे   ,झूमने लगते थे , नाचने लगते थे  ।उन्हे लगता था आयेगा मज़ा जब आयेगा ऊँट पहाड़ के नीचे---
"अबे ! किसको ऊँट बता रहा है बे !"--एक कार्यकर्ता ने आपत्ति जताई
’कमल आयेगा पहाड़ के नीचे, भाई साहब !’ -पहले ने सफ़ाई दी ।
’अच्छा ! मैं समझा कि---। दूसरे ने सन्तोष की साँस ली --" अरे वो हम कार्यकर्ताऒं का कितना सम्मान करती हैं ।  ,उन्हे क्या ज़रूरत आन पड़ी  हम जैसे कार्यकर्ताओं से पूछ्ने की । वह  तो "स्वयं प्रभा समुज्ज्वला" हैं--उन्होने पार्टी से नहीं ,पहले हम से पूछा, हम समर्पित कार्यकर्ताओं से पूछा-- हम सब से पूछा -- हम सब ही तो पार्टी हैं- हम सबकी ’अनुमति’ के बग़ैर वो कैसे उठ सकती हैं भला । हमारी पार्टी अन्य पार्टियों की तरह नहीं  कि बाहर से उम्मीदवार लाया और  ’थोप’ दिया हम कार्यकर्ताओं पर ।. उतार दिया ’पैराशूट’ से  किसी बाहरी उम्मीदवार को ।-30 साल से झंडा उठा रहे है हम निर्विकार भाव से बिना किसी पद की इच्छा के, बिना टिकट की  लिप्सा से ---। वो तो स्वयं ही पार्टी है
पहले भाई साहब ने बात काटी--’नहीं भाई साहब ! ऐसा नहीं । वो खुद पार्टी नहीं है। वो पार्टी की एक विनम्र कार्यकर्ता है, एक सिपाही हैं --बिल्कुल हमारे-आप जैसे । हमारी पार्टी में लोकतन्त्र है अनुशासन है-जब तक पार्टी नहीं कहेगी तब तक  वो  अपने आप कैसे चुनाव में खड़ी हो जायेंगी ?पार्टी प्रेसिडेन्ट नाम की  कोई चीज होती है कि नहीं । पार्टी में ऐसे ही कोई प्रेसिडेन्ट बन जाता है क्या ? ---कार्यकर्ता भाई साहब ने अपना "पार्टी-ज्ञान’ बघारा।

--चीरा तो क़तरा-ए-खूं न निकला ।हाय अफ़सोस कि पार्टी ने उन्हें टिकट नहीं दिया ।

यह होता है पार्टी का संविधान ।कोई कितना भी बड़ा क्यों न हो ,अपनी बहन ही क्यों न हो, अपना जीजा ही क्यों न हो , पार्टी के संविधान से बड़ा कोई नहीं ,बहन भी नहीं ।विरोधी पार्टी झूठे आरोप लगाती है  कियह  एक परिवार की पार्टी है । भईया आप ही बताओ उन्होने  बहन को  टिकट दिया क्या ?नहीं दिया न । यह होता है ’न्याय’। वो और भी ’न्याय’ करेंगे  -चुनाव के बाद।

पार्टी प्रवक्ताओं ने बताया उन्हे देश देखना है ।ग़रीबों को देखना है, बेरोज़गारों को देखना है नौजवानों को देखना है हिन्दू को देखना है मुसलमान को देखना है।समय कम है,इसी चुनाव काल में देखना है  ।समस्यायें असीमित है  ,एक ही लोकसभा क्षेत्र में ’सीमित’ नहीं करना है उन्हें ।
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कुछ दिन पहले मैं भी बनारस गया था । नामांकन करने नहीं ।घूमने। बनारस के दशाश्वमेध घाट की सीढ़ियों पर बैठे बैठे सोच रहा था -गंगा मईया की बेटी थी आने को कह रही थी ,इसी गंगा मईया के जल से आचमन किया था मगर अफ़सोस।
ख़ुदा क़सम , अल्लामा साहब याद आ गए

न आते ,हमें इसमें तक़रार क्या थी
मगर वादा करते हुए  आर क्या थी?

[आर=लाज ,लज्जा]
प्रवक्ता ने बताया कि उन्होने ख़ुद ही मना कर दिया ।

 मैने पूछा। इक़बाल साहब ने पूछा

तअम्मुल तो था उनके आने में क़ासिद
मगर ये बता तर्ज़-ए-इनकार क्या थी ?
[ तअम्मुल=संकोच}

न उन्होने बताया,न  प्रवक्ता ने बताया  कि -तर्ज़-ए-इनकार क्या थी।
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कुछ दिनों बाद
किसी चुनाव रैली में ,उसी कार्यकर्ता ने दादी की नाक से  पूछ लिया--बहन जी !---
"ऎं ! मैं बहन जी जैसी दिखती हूँ क्या ? भईए ! ’बहन जी" तो ’बबुआ’ के साथ घूम रहीं है----
-’ नहीं मैडम ! मेरा मतलब यह था कि आप बनारस से क्यों नहीं उठी---हम लोग कितनी उत्सुकता से आप की प्रतीक्षा कर रहे थे कि आप आतीं तो पार्टी को एक संजीवनी मिल जाती।जान फूँक देती । अन्य  पार्टियाँ "फुँक" जाती, विरोधी पस्त हो जाते ,हाथी बैठ जाता, साइकिल पंचर हो जाती --आप उठती  तो नोट बन्दी का ,जी0एस0टी0  का बेरोजगारी का , सब एक साथ बदला ले लेते --आप समझिए कि इस एरिया का 15-20 सीट तो कहींयों नहीं गया था---

’नहीं रे ! दिल छोटा न कर । पार्टी ने टिकट ही नहीं दिया वरना तो हम--"
-’मैडम ! आप लोग कितने महान है । औरों को पिलाते रहते है और खुद प्यासे रह जाते है। कितना बड़ा त्याग करते रहते  है आप लोग देश के लिए।खुद को कुर्बान कर देते हैं पार्टी के लिए----
-सही पकड़ा । बनारस से बड़ा चुनाव और चुनाव से बड़ा देश --हमें पूरा देश देखना है ।बनारस में क्या रखा है ? यहाँ तो मेरा पुराना वाला उम्मीदवार ही काफी है  हिसाब किताब करने के लिए  । तू चिन्ता न कर।चुनाव के बाद तू बस हमी को देखेगा---बम्पर मेजारिटी से वापस आ रहे हैं --मैं देख रही हूँ --मुझे दिख रहा है --तू भी देख---।

इसी बीच किसी ने शे’र पढ़ा--
थी ख़बर गर्म कि ’ग़ालिब’ के उड़ेंगे पुर्ज़े
देखने हम भी गए थे तमाशा न हुआ

"ऎं यह शे’र किस ने पढ़ा  ?"---मैडम ने त्योरी चढ़ाते हुए पूछा
कार्यकर्ता ने हकलाते , घबराते और  मिमियाते हुए बोला--- मैं नहीं मैडम ! ग़ालिब ने--
-’अच्छा ग़ालिब मियां  का ? उन्हे सलाम भेजना। उनकी भी बिरादरी का ’वोट’ लेना है।
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-आनन्द-पाठक-

शुक्रवार, 12 अप्रैल 2019

व्यंग्य 56 : : आम चुनाव और नाक

एक व्यंग्य :आम चुनाव और नाक

2019। चुनाव का मौसम और मौसम का अपना मिजाज।

आजकल चर्चा मुद्दों पर नहीं, नाक पर चल रही है । मुद्दे तो अनन्त है --हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता -जैसा ।
कुछ मुद्दे तो शाश्वत हैं,-जैसे ग़रीबी,बेरोज़गारी,महंगाई,भ्रष्टाचार,महिला सुरक्षा,कानून-व्यवस्था। ये तो हर चुनाव में नाक घुसेड़ देते हैं। पर इस चुनाव में किसी और की नाक घुस गई।
उनकी नाक उनकी दादी जैसी है ।अच्छी बात है। होनी भी चाहिए। खानदानी नाक है -खानदान पे ही होनी चाहिए। भई ,गर दादी जैसी नहीं होगी तो क्या माओत्सेतुंग जैसी होगी ?
जनता आत्म विभोर है। दादी की छवि दिख रही है। उनको भी दिख रही  है जो दादी को कभी देखा नहीं होगा ।सुना ही सुना होगा । सुन रहे हैं तो सुना रहे हैं ।आख़िर पार्टी के कार्यकर्ता हैं । अरे भई ,नाक की बारीकियाँ वो न देखेंगे तो क्या बीजेपी वाले देखेंगे?
अब नाक का नख-शिख वर्णन हो रहा है। नाक ऐसी है ,नाक वैसी है। किसी ने अति उत्साह में यह भी पता लगा लिया कि राजनीति में आने से पहले ये नाक वैसी नहीं थी ,सर्जरी कराई है छवि दिखाने के लिए । भगवान जाने क्या सच है।
जो लोग अपनी नाक पर मख्खी नहीं बैठने देते थे  , अब वही नाक पर वोट माँगने निकले हैं
 यूपी के दो युवा थे । कल तक नाक के बाल थे आज वही नाको चने चबवा रहे है ।  चुनाव का मौसम जो न करा दे ।
 सुपुत्र ने तो अपने ही पिता जी की नाक कटवा दी और पार्टी से धकिया दिया। व्यक्ति से बड़ी पार्टी -और पार्टी से बड़ी नाक। लोग गठबन्धन किए घूम रहे है- अब तो कई पार्टियों के नाक का सवाल है - एक पार्टी का नाक काटने के लिए।
नाक कटे बला से, सामने वाले का शगुन तो बिगड़ा।
और जनता ?
जनता का क्या है ? उसी के हित के लिए तो सब पार्टिया लड़ ही रही है । उसे क्या करना है ।राम झरोखे बैठ , सब का मुज़रा देख । उसे तो तमाशा देखना है उसे तो वोट देना है ।  ग़रीबी,बेरोज़गारी,महंगाई,भ्रष्टाचार,महिला सुरक्षा,कानून-व्यवस्था से क्या लेना देना ?। वोट दिया तो था । किसने हल कर दिया? न 70-साल वालों ने ,न 5-साल वालों ने।चुनाव में यह सब चलता ही रहेगा।ये सब  "चुनावी रेसिपी" है ,बनाते हैं, पकाते हैं, परोसते हैं --मज़दूर का, किसान का ,,,बेरोज़गार का,अली का ,बजरंग बली का, नाम लेकर । पार्टियों की मज़बूरी है ।उनकी मज़बूरी अलग ,हमारी मज़बूरी अलग । हमें तो  देखना है ---जाति की नाक न कट जाए -बिरादरी  की नाक ऊँची रहे ।  जाति है तो हम हैं -अपनी ही जाति  का बन्दा खड़ा  है । हिन्दू की नाक नीचे नहीं होनी चाहिए---अली  की नाक ऊपर नहीं होनी चाहिए---शोषित की नाक अलग--दलित की नाक अलग --सब पार्टियां अपने अपने ’वोट बैंक’ की नाक लेकर खड़ी हैं चुनाव मैदान में।

गाँव का ’बुधना’ सोचता है । । हाथ वाले भईया का हाथ हमारे ऊपर है । कर्ज़ा माफ़ हो ही गया । अब काहे का काम करना ,काहे की ग़रीबी ।72000/- रुपया खाते में आ ही जायेगा --बोल गए हैं । खानदानी आदमी हैं -ज़बान के पक्के ही होंगे
हमें तो जिसने "प्यार से पिला दिया ,हम उसी के हो गए" और मस्त हो कर गा रहा है
"अरे हथवा कS वोटवा लेई भागा
ई बुधना अभागा  नहीं  जागा "
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यह चुनाव देश की नाक का सवाल है--कोई नहीं सोचता।

-आनन्द.पाठक-

बुधवार, 27 मार्च 2019

व्यंग्य 55: हिन्दी सेवा वाया फ़ेसबुक सेवा

एक व्यंग्य : हिन्दी सेवा उर्फ़ फ़ेसबुक सेवा

- भाई साहब ! सोचता हूँ कि अब मैं भी कुछ हिन्दी की सेवा कर लूँ।" -मिश्रा जी ने चाय की चुस्की लेते हुए कहा l
-" क्यों ? अब कितनी सेवा करोगे हिन्दी की ? सरकारी नौकरी में 30-साल तक ’हिन्दी-पखवारा" में हिन्दी की सेवा ही तो की है ।हर साल बड़े साहब की ’स्तुति-गान ’ करते रहे और बजट लेते रहे । आप उन्हें ’शाल-श्रीफल" से सम्मानित करते रहे, उद्घाटन के लिए चाँदी की तश्तरी, कैंची लाते रहे और वो लेते रहे । कितना मनोयोग से शुद्ध संस्कृत निष्ठ शब्दों से आप उनका स्वागत भाषण लिखते थे ।हिन्दी की उपल्ब्धियाँ गिनाते थे ,हिन्दी कैसे आगे बढ़े, रास्ते बतलाते थे। पूरा विभाग हिन्दीमय हो जाता था उन दिनों । आप ने विभागीय हिन्दी मैगज़ीन का सम्पादन किया,स्मारिका छपवाई ,मुद्रक-प्रकाशक से दान-दक्षिणा ली।अपनो को रेवड़िया बाँटी । बड़े साहब की मिसेज को वरिष्ठ कवयित्री बताया । भाई मिश्रा जी ! अब हिन्दी की कितनी सेवा करोगे?
मिश्रा जी का रिटायर्मेन्ट के बाद 30 साल का ’ हिन्दी-अधिकारी’ का दर्द छलक आया --" एक हिन्दी अधिकारी का दर्द तुम क्या समझ सकोगे आनन्द बाबू ! जाके पैर न फटी बिवाई, सो क्या जाने पीर पराई। हिन्दी अधिकारी का दर्द,किसी हिन्दी अधिकारी से पूछो, बुद्धिनाथ मिश्र जी से पूछो-

पीर बवर्ची भिश्ती खर हैं ,कहने को हम भी अफ़सर हैं
सौ सौ प्रश्नों की बौछारें,एक अकेले हम उत्तर है

इसके आगे, उसके आगे,दफ़्तर में जिस तिस के आगे
क़दमताल करते रहने को ,आदेशित हैं हमी अभागे

तन कर खड़ा नहीं हो पाए,सजदे में कट गई उमर है
पीर बवर्ची भिश्ती खर हैं-----

अब रिटायर हो गया हूँ ,सेवा निवृत हो गया हूँ,मुक्त हो गया हूँ सरकारी झंझटों से ,कलम आज़ाद हो गई है । सोच रहा हूँ अब कुछ मुक्त लेखनी से हिन्दी की मुक्त सेवा ही कर लूँ --माँ भारती बुला रही है -हिन्दी मुझे पुकार रही है।
" हिन्दी की ही सेवा क्यों ?"-मैने अपनी जिज्ञासा का समाधान किया-" सेवा-निवॄत के पश्चात तो और भी बहुत सी चीज़ें है सेवा करने के लिए --समाजसेवा--गो सेवा--जन सेवा--पर्यावरण सेवा---कार सेवा -मन्दिर सेवा--। बहुत से अधिकारी यही सब करते है रिटायर्मेन्ट के बाद और ’फोटू’ खिंचवाते रहते है ’फ़ेसबुक’ पर चढ़ाते रहते है --सेवा की सेवा--प्रचार का प्रचार ।
"-भई पाठक जी ! जन सेवा करने निकला था पर किसी पार्टी ने चुनाव का टिकट ही नहीं दिया तो हम जन सेवा कैसे करते? आप ही बताइए । पर्यावरण सेवा करने निकला तो कमेटी वालों ने ’एक पेड़ में बारह हाथ" लगा दिए । फोटू में तो सबके चेहरे खिले खिले थे बस पेड़ ही ’मुरझा’ गया था--और उसमें भी मेरा चेहरा कट गया था -सो पर्यावरण की सेवा छोड़ दी।
-’तो गो सेवा ही कर लेते’
-वो भी किया ।
घर से है गोशाला बहुत दूर चलो यूँ कर ले
सड़क पे किसी गाय को घास खिलाया जाए

मगर आने जाने के लफ़ड़े से अच्छा है कि हिन्दी की ही सेवा की जाए। घर में बैठे रहो और कुछ अल्लम गल्लम अगड़म-बगड़म फ़ेसबुक पे रोज़ रोज़ चिपकाते रहो। न हर्रे लगे न फिटकरी और रंग बने चोखा।
मैने कहा -’भाई मिश्रा जी !बहुत से लोग हैं हिन्दी की सेवा करने के लिए आजकल । फ़ेसबुक पर ,इन्टरनेट पर,व्हाट्स अप पर ,मंच पर ,ब्लाग पर हर दूसरा व्यक्ति ’सेवा ’ कर रहा है हिन्दी का --आप उसमे और क्या कर लोगे?
मिश्रा जी -’भाई साहब !आप के साथ यही ’प्रोब्लम’ है --प्रथम ग्रासे मच्छिका पात : -कर देते हों। आप जैसे लोगों के कारण ही, हिन्दी का स्तर दिन-प्रति दिन नीचे गिरता जा रहा है--भाषा का स्तर नहीं --वर्तनी का ख़याल नहीं --भाव किधर भाग रहा है -ध्यान नहीं ,बस फोटू पर फोटू लगाए जा रहे हैं लोग। यहाँ सम्मानित हुए--वहाँ सम्मानित हुए। यहाँ छपे--वहाँ छपे । यह प्रमाण पत्र --वह प्रमाण पत्र । इस मंच की अध्यक्षता की--उस मंच की अध्यक्षता की। यही सब है हिन्दी सेवा के नाम पर---
--तो आप क्या कर लोगे ?
---मैं संघर्ष करूँगा -आन्दोलन करूँगा --ज्योति जलाऊँगा----हिन्दी भाषा का विकास करूँगा ---स्तर ऊँचा करूँगा -लोगों को अपने साथ जोडूँगा -- ।फोटू खिंचवाऊँगा-- फोटू लगाऊँगा--
--कैसे?
-- ’फ़ेसबुक पर एक ग्रुप बनाऊँगा--
---फ़ेसबुक ही क्यों?
---उस में पैसा नहीं लगता -- और ’एडमिनिस्ट्रेटर बनूँगा ’फ़्री’ में सो अलग से ।
--अच्छा ’जब तोप का मुक़ाबिल हो ,अख़बार निकालो’-’मंच पे ही कुछ जुगाड़ लगा लो । मगर एड्मिनिस्ट्रेटर’ ही क्यों ?
--यार मज़े हैं -एड्मिनिस्ट्रेटर-बनने में --जब चाहे किसी को जोड़ लो ग्रुप में ,जब चाहे किसी को लतिया दो ग्रुप से -धकिया दो मंच से-अहम तुष्टी होती रहती है -और मुफ़्त में ब्लाग "प्रबन्धक" बनने का सुख अलग से --साहित्यकार होने का सुख भी मिलता रहता है।जिसको चाहो ’वरिष्ठ साहित्यकार- मूर्धन्य साहित्यकार ---हिन्दी के सशक्त हस्ताक्षर -- -राष्ट्र कवि -बता दो ।-कौन पूछता है-?--जिसको चाहो ’अज़ीमुश्शान शायर’- क़रार कर दो-- तगमा बाँटते चलो- ।-बुला बुला कर सम्मानित करूँगा- शाल उढ़ा दो ---दो चार दस पैसे तो बच ही जायेंगे ।
-आप कौन होते हैं ’रेवड़ी बाँटने वाले" ?-मैने विरोध किया
---भाई साहब ! हम न बाँटेंगे ,तो वो खुद ही बाँट लेंगे---शायर अमुक फ़लानवी--- कवयित्री ढेकानवी-- वरिष्ठ कवि अलानवी----कौन है रोकने वाला ? अब तो लोग अपने प्रोफ़ाइल में के पेशा/व्यवसाय कालम मे लिखते है कवि --शायर--साहित्यकार --सब ’स्वयंभू" के "स्वयंभू"। मानो कविता शायरी साधना न हो कर पेशा हो गई ,धंधा हो गई---
-एक बात कहूँ मिश्रा जी ?एक सुझाव दूँ ?
--हाँ हाँ ज़रूर कहें - मिश्रा जी ने चहकते हुए कहा
-"आप कुछ भी न लिखे तो हिन्दी की यही "सबसे बड़ी सेवा" होगी।
मिश्रा जी मुँह बनाते हुए, उठ कर चल दिए ।
अस्तु।


-आनन्द पाठक-

सोमवार, 21 जनवरी 2019

व्यंग्य 54 : धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे---

एक व्यंग्य : धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे---

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे   समवेता युयुत्सव:
मामका: पाण्डवाश्चैव  किमकुर्वत संजय

धृतराष्ट्र उवाच -- हे संजय ! सुना है मेरे ’ भारत’ भूमि पर  2019 में ’महाभारत’ होने वाला है?
संजय उवाच --- किमाश्चार्यम आचार्य ! किमाश्चार्यम !तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है राजन ! इस भारत भूमि पर तो वर्ष पर्यन्त ही ’महाभारत’ होता रहता है 
धृतराष्ट्र  --- मामका:--???
संजय    --- -’मामा’ जी मध्यप्रदेश में चुनाव हार गए
धृतराष्ट्र  --- आह - हतभाग्य-- -दुर्भाग्य  -। हे संजय ! 2019 में होने वाले महाभारत की क्या क्या तैयारियाँ चल रहीं है -
संजय ---- -हे ब्राह्मण श्रेष्ठ ! जैसा कि मैं देख रहा हूँ राजन ! सब लोग अपना अपना रथ निकाल कर धो-पोंछ रहे है । सजा रहे है ।रथ यात्रा निकालनी है --बंगाल से --बिहार से-- पूरब  से-- पश्चिम से-दक्षिण से -परिवर्तन रथ यात्रा---विकास रथ यात्रा-- सदभावना  रथ यात्रा-किसान रथ यात्रा----नवभारत यात्रा। कुछ लोग मन्दिर मन्दिर दौड़ रहे है---कुछ लोग जनेऊ धारण कर रहे हैं ---कुछ लोग जालीदार टोपी की नाप दे रहे हैं 
कुछ लोग नारे गढ़ रहे हैं---गली गली में शोर है---फ़लाना नेता चोर है ----चौकीदार चोर है---पूँजीपतियों का यार है--चोरों का सरदार है--कुछ लोग नारे लगा रहे हैं --भारत तेरे टुकड़े होंगे--इन्शा अल्लाह इन्शा अल्लाह-- कुछ लोग ज़ुबान की धार तेज कर रहे हैं--चुनाव काल में तीर चलाना है --कुछ लोग ’आरक्षण के कसीदे पढ़ रहे है --कुछ लोग मन्दिर राग में आलाप ले रहे हैं---कुछ लोग मस्जिद पर थाप दे रहे हैं-कुछ लोग ’गईया मईया’ की सेवा कर रहे हैं-कि शायद टिकट मिल जाए----सभी लोग ग़रीबों की बात कर रहें है --मगर ग़रीबी है कि 70-साल से हट नहीं रही है --
जगह जगह अपने अपने प्रदेश के  क्षत्रप एक मंच पर उपस्थित हो कर ’गठबन्धन’ कर रहे हैं --हाथ मिला मिला रहे है  ...मुस्करा रहे हैं--’फोटू’ खिंचवा रहे हैं--संदेश दे रहे हैं कि ’हम सब’ एक हैं
धृतराष्ट्र ---- अच्छा ,हाँ, हाँ याद आया  ,एक बार ऐसा ही सन -1977--में हुआ था जब ’ एक साथ -एक मंच पर कई दल  आये थे ।गठबन्धन की सरकार थी ।फिर क्या हुआ --जनता को तो याद  होगा ही ?
 संजय ----   नहीं  राजन ! जनता यह सब याद नहीं रखती ---जनता अपनी जाति याद रखती है  अपनी बिरादरी याद रखती है - मन्दिर याद रखती है --मस्जिद याद रखती है--- देश की अस्मिता याद नहीं रखती -प्याज का दाम याद रखती है-- पेट्रोल का दाम याद  रखती है ---दाल का दाम याद रखती  है-।- फ़्री में चावल कौन देगा --लैपटाप कौन देगा--टी0वी0 कौन देगा --याद करती  है --चाहे देश की ऐसी तैसी हो जाए---भले ही बाहरी शक्तियाँ आँख दिखाए--
धृतराष्ट्र ---- मगर हे संजय --वे सब एक ही मंच पर क्यों चढ रहे हैं--ऐसे तो मंच टूट जायेगा
संजय  ---- ’प्रधान-मन्त्री’ की कुरसी लेनी है राजन --कुरसी बाद में टूटेगी।  ये सभी दल कंधे से कंधा मिला कर नहीं ’सीने से सीना मिलाकर" लड़ रहे हैं  कि 56" वाले सीने को हराना है ।अकेले तो हरा नहीं सकते--
धृतराष्ट्र ---- सुना है कि लखनऊ वालों ने अपनी साइकिल पर हाथी बैठा लिया है ।उस ’युवा’ लड़के का क्या हुआ जो पिछली बार साइकिल पर बैठा था
संजय ---- उसको "अँगूठा दिखा दिया ।अब ’युवा’ की जगह ’बुआ" बैठ गई राजन ! कर्नाटका में  क्षत्रपों ने ’पंजा’ ही पकड़ा था  --अँगूठा नहीं  पकड़ा था ---अँगूठा फ़्री था --सो तमाशा खत्म होने के बाद दिखा दिया ---और ’सर्कस’ वाले भी तो ’हाथी का साइकिल चलाने वाला’ एक खेल दिखाते हैं ।
धृतराष्ट्र ---- अच्छा अब समझा ।तो वह एक खेल है? ज़रा रुको। यह शोर किधर से उठ रहा है --इतना कोलाहल क्यों? हंगामा है क्यों बरपा ?
संजय  ----   हा हा हा -राजन -यह कोलाहल नहीं ! यह महाभारत की जोरदार तैयारी चल रही है ---यह कोलाहल ’बंग प्रदेश’  से आ रही है ---एक और गठबन्धन की तैयारी चल रही है...
धृतराष्ट्र  ---- संजू sss  !उन्हे गठबन्धन पे भरोसा नईं क्या
गठबन्धन की बातें लगे गोल गोल---गोल गोल
जनता ने कर दे कहीं झोल झोल ---झोल झोल
नेता जी  करने लगे तोल-मोल  -----तोल-मोल
संजू ssss ्गठबन्धन पे भरोसा नईं क्या ?
संजय ---- राजन ! सच तो यह है कि राजनीति में किसी को किसी पर भरोसा नहीं  --अर्जुन की चिड़िया की तरह--- बस एक ही चीज़  निशाने पर रहती है  -प्रधान मन्त्री की कुर्सी । बस उस को ही पाना है --वही सत्य  --वही सार है --बाक़ी सब बेकार है
धृतराष्ट्र ----- मगर ’कुरसी’ तो एक है ---गठ्बन्धन अनेक । एक में अनेक कैसे समाएगा?
संजय    ----  एक बार बस कुरसी आ जाय ----बाद में सब समा जायेगा --- नेता लोग आपस में निपट लेगें --एक दूसरे को निपटा देंगे--
धृतराष्ट्र ---- समाज में--- गाँव के अन्तिम छोर पर बैठा --बुधना--नित्य-प्रति  स्वयं से लड़ता ’बुधना’---वह किधर है?
संजय  ---- यही विडम्बना है राजन ! उसी के नाम पर सारा चुनाव लड़ा जाता है  ,मगर केन्द्र में वह  नहीं होता  ।केन्द्र में होते हैं उसके नाम पे रोटी सेकने वाले--उसके नाम पे दलाली खाने वाले--उसके नाम पर घड़ियाली आँसू बहाने वाले।और  बुधना ?--गाँव में बैठा  मुस्कराता है , मस्त हो कर  गाता है --"अरेss   हथवा कss  वोटवा लेई भागा --ईss   बुधना अभागा नहीं जागा "
जिस दिन बुधना जग जायेगा ---लोकतन्त्र जग जायेगा
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धृतराष्ट्र उवाच ----संजय ज़रा इधर आना --ज़राअपना कान इधर देना--उस समय लोग कहते थे कि मेरे ’अन्ध पुत्र मोह’ के कारण महाभारत हुआ था । अब ?
संजय उवाच ---  अरे राजन ! उस समय तो मात्र  आप ही एक  धृतराष्ट्र थे --अब तो कई कई धृतराष्ट्रहो गये ---पुत्र-मोह में अन्धे हो गए  हैं---नाम बताऊँ क्या ?
धृतराष्ट्र उवाच- ---नहीं नहीं रहने दे पगले ! --- बात निकलेगी तो दूर तलक जायेगी---छी छी छी --ई कैसा महाभारत हो रहा है----महाभारत में क्या दुर्योधन-- शकुनी -दु:शासन ...जयद्रथ .. मरे नहीं थे? तो फिर कौन मरा था ?
संजय उवाच  ---   व्यक्ति मरे थे राजन व्यक्ति !"प्रवृति" -नहीं मरी थी । प्रवॄत्तियाँ आज भी जिन्दा हैं । जब तक यह प्रवृत्तियाँ ज़िन्दा रहेंगी तब तक महाभारत होता रहेगा --
धृतराष्ट्र उवाच ----धन्य हो संजय ! धन्य हो। तुमने तो मेरी ’आँखें खोल दी"
संजय उवाच ------ आँखे खुल गई न ---अब आगे का हाल टी0वी0 से देख लीजिएगा } मैं चला।

अस्तु 

-आनन्द.पाठक-

बुधवार, 16 जनवरी 2019

व्यंग्य 53 : आँख दिखाना---

एक व्यंग्य : आँख दिखाना

--आज उन्होने फिर आँख दिखाई

और आँख के डा0 ने अपनी व्यथा सुनाई--" पाठक जी !यहाँ जो मरीज़ आता है ’आँख दिखाता है " - फीस माँगने पर ’आँख दिखाता है ’। क्या मुसीबत है ---।

--" यह समस्या मात्र आप की नहीं ,राजनीति में भी है डा0 साहब " मैने ढाँढस बँधाते हुए कहा-"जब कोई अपना गठबन्धन छोड़ कर सत्तारूढ़ ’गठ बन्धन ’में आता है तो ’आँखें झुकाते’--नज़रे मिलाते हुए आता है और जाता है तो ’आँख दिखाते" हुए जाता है।
-आज उसने फिर आंख दिखाई
उन दिनों, जब मैं जवान हुआ करता था और आँखें मिलाने की स्थिति में था ।और जब मैने " उस से"आँख मिलाई तो उसने ’आँखे झुकाई’ । इसी मिलाई- झुकाई में पता नहीं कहाँ से उसका मुआ बाप आ गया और लगा आँखें दिखाने । वो तो भला हुआ कि पिटते-पिटते बचा।
मगर राजनीति में ’आँख दिखाना ’ का मतलब घटक दल का सत्तारूढ़ पार्टी को ’संदेश’ देना । ।वहाँ ’संदेशों’ का आदान-प्रदान ऐसे ही होता है।
विरोधी पार्टी आपस में कभी आँख नहीं दिखाते --बस आँखे मिलाते है और ’गठबन्धन’ बनाते है ।जब ज़रा और ’आंख दिखाना हुआ तो ’महागठबन्धन ’ बताते है -भले ही 2-आदमियों का गठबन्धन क्यों न हो। इससे जनता पर प्रभाव पड़ता है।
आँख दिखाने का काम सत्ता-पक्ष वाली पार्टियाँ करती रहती है -समय समय पर । अपने को ज़िन्दा समझवाने का एहसास कराने के लिए ।
--आज नेता जी ने फिर आँख दिखाई
अध्यक्ष जी ने पूछ ही लिया-
-"इशारों इशारों में धमक देने वाले ,बता ये हुनर तूने सीखा कहाँ से ?
तो नेता जी ने भी तुर्की ब तुर्की जवाब दिया -
’ जुमलों ही जुमलों सब को चराना ,मेरे सर जी! सीखा है तुम ने जहाँ से

कारण ? कारण कुछ भी नहीं । कारण बहुत कुछ । इतने साल ’सत्ता से चिपके रहे .मलाई खाते रहे । जब चुनाव नज़दीक आया तो अचानक ख़याल आया अरे मेरा तो ’सम्मान’ ही नहीं है इस पार्टी में ।आँख उठा कर देख भी नहीं रहे हैं ये लोग हमे तो । अरे भाई ,हम दलित हैं तो क्या--हम शोषित है तो क्या---हम वंचित है तो क्या ---मेरा असम्मान देश के समस्त दलित--शोषित पीड़ित --वंचित लोगों का अपमान है --हम अपने भाईयों का अपमान सहन नहीं-- देश हित का अपमान सहन नहीं कर सकते --
"-- भाई साहब ! दलितों शोषितों वंचितों के लिए तो बहन जी है न देख भाल के लिए"
"-अरे ऊ कब से दलितों की नेता बन गईं--दलितों - वंचितों का सबसे बड़ा नेता ’मैं ’।कल तक हम आप की "आँखों के तारे थे ,--आँखों की पुतली थे --अब --आँखों की किरकिरी बन गए ? अगर मुझे सम्मान जनक ढंग से सीटें न मिली तो गठबन्धन से अलग भी हो सकता हूँ।विकल्प खुले हुए हैं -- मैं ’पद’ का भूखा नहीं ,मैं कुर्सी का भूखा नहीं [शायद मलाई ख़तम हो रही है ] -मैं देश की ग़रीब भाईयों के बारे में सोचता हूँ --बेरोज़गार नौजवानों भाईयों के बारे में सोचता हूँ --किसान भाईयों के बारे में सोचता हूँ । देश हित के बारे में सोचता हूँ ---मेरी पार्टी को 2-सीट दे रहें है-। इतना चिल्लर तो भीखमंगा भी नहीं लेता आजकल ----मात्र 2-सीट ? अगर आप ने 10-15 सीट नहीं दे तो हम आप की आँखों से काजल भी चुरा सकते है ।10-20 एम0एल0ए0 हैं सम्पर्क में मेरे ।हम लोकसभा में ’आँखे नहीं मारते ।--हम आँख मूँद कर सपोर्ट भी नहीं करते -----फिर मेरे मजदूर किसान भाइयॊं का क्या होगा ? मेरी माताओं बहनों का क्या होगा? देश की सेवा का क्या होगा ? ---’ -नेता जी ’आखें दिखा रहे थे और सत्ता पक्ष रहस्य समझ रहा थ।
’--अरे भाई साहब ! देश हित सोचने के लिए और नेता है न -शहर की चिन्ता में काज़ी क्यॊं दुबला
" नेता ? कोन नेता ? मेरे सिवा और कौन नेता ? ---सब झूठ के नेता है --कहते है कि हमें राज्यसभा की सीट दिलवा दो।हमें राजपाल बना दो --हमें उस समिति का अध्यक्ष बना दो ---अरे वो क्या भला करेंगे देश का--??
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ख़ैर सत्ता-पक्ष के गठबन्धन ने उन्हें 3- सीट दे दिया
1-सीट और मिलने से , नेता जी का सम्मान लौट आया -पगड़ी -ऊँची हो गई --उनकी जाति भाईयों का सम्मान लौट आया । समझदार थे-पता था दूसरे दल के गठ बन्धन में जायें --चुनाव के बाद ’मलाई’ मिले न मिले }यहाँ जितना मिल रहा है -उतना तो चाट लें-डकार लें --चमचों में उत्साह दौड़ आया- कार्यकर्ताओं ने नारा लगाया ---" भईया जी अमर रहें-अमर रहें -जब तक सूरज चांद रहेगा--भईया जी का नाम रहेगा---भईया जी आगे बढ़ो--हम तुम्हारे साथ हैं"--देश का नेता कैसा हो? भईया जी जैसा हो ।-वातावरण ’महक’ उठा।
और नेता जी ने सुबह बयान दे दिया----देश का विकास --देश तोड़क शक्तियों का विनाश कोई कर सकता है -तो हमारा गठबन्धन ही कर सकता है_ सत्तारूढ़ पार्टी ही कर सकती है ---"हम सीटों की संख्या पर नहीं रिश्ते पर विश्वास रखते हैं --- निभाते हैं --हम अपने ग़रीब भाइयों के लिए ऐसी सीटों को दस बार लात मार सकता हूँ -----भारत माता की जय--वन्दे मातरम ---

इधर ’बुधना’ मन ही मन मुस्कराता है

बेख़ुदी बेसबब नहीं ग़ालिब’
कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है

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-सुना -कल साधु-सन्तों नें ’आँखें दिखाईं- । अगर ’राम मन्दिर’ नहीं बना तो आगामी चुनाव में क्या मुँह लेकर जायेंगे आप ?
---सत्ता पक्ष का गठ बन्धन व्यस्त हैं -"आँखे दिखाने " में
विरोधी पक्ष की पार्टियाँ मस्त हैं - ’आंखे मिलाने में। भले ही उनकी आँखों का पानी मर रहा हो ।
गाँव का ’बुधना’ त्रस्त है --अपनी आँख के मोतिया बिन्द से-।सोच रहा है कर्जा उतरे तो आपरेशन कराएँ।
"जनता तो पिछले कई दशक से एक ही चेहरा देखते आ रही है--झूट का चेहरा- ।

जब तवक़्को ही उठ गई ’ ग़ालिब’
क्यों किसी का गिला करे कोई


क्या मन्दिर-क्या मस्जिद ? मन्दिर बने न बने --बनते हुए प्रतीत होना चाहिए -- आग जलती रहनी चाहिए।
भारत का लोकतन्त्र आगे बढ़ रहा है इन्हीं ’आँख मिलाने से , आँख -दिखाने से-आँख मारने से --आँख चुराने से ।
अस्तु



-आनन्द.पाठक-