रविवार, 19 सितंबर 2021

एक व्यंग्य 82 : शायरी का सर्टिफिकेट

  एक व्यंग्य : शायरी का सर्टिफ़िकेट 

चाय का एक घूँट जैसे ही मिश्रा जी के हलक के अन्दर गया कि एक शे’र बाहर निकला।
चाय की प्याली नहीं है , ज़िन्दगी का स्वाद है, 
मेरे जैसे शायरों को आब-ओ-गिल है, खाद है ।
[आब-ओ-गिल है खाद है = यानी खाद-पानी है ]
मिश्रा जी ने अपनी समझ से शे’र ही पढ़ा था कि पास खड़े एक आदमी ने कहा--
-जी ! आप कौन ?
-जी ! बन्दे को शायर कहते है। शायर  फ़लाना मिश्रा ’-मिश्रा जी ने झुकते हुए कहा।
-मगर आप का नाम-वाम तो कहीं सुना नहीं ?
-भाई जान ! हम फ़कत ’ नाम ’ के शायर नहीं ’सचमुच’ के शायर हैं।
-अच्छा !  आप ’शायरी’ भी करते हैं ? -उसने आश्चर्य से देखा-"हम तो समझे कि आप ’जुमलाबाजी’ करते हैं। आप ’जुमला’ अच्छा कह लेते हैं।
- हाँ जनाब ! जिन्हे शायरी समझने की तमीज नहीं है --वो ’जुमला’ ही समझते हैं ।
फिर दोनो हा--हा--ही -ही- हो- हो करते हुए अपनी अपनी राह लग लिए। एक संभावित दुर्घटना होते होते टल गई । बात आई-गई हो गई
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मगर मिश्रा जी को बात लग गई। और सीधे ’नीर भरी दुख की  बदली’ लिए हुए  ’-मेरे यहाँ पधारे और पधारते ही ,झरझरा कर बरस पड़े।बदली फट गई। 
’ भई पाठक! अब शायरी करने का ज़माना नहीं रहा, सोचता हूँ  शायरी करना छॊड़ दूँ’-अपनी अन्तर्वेदना उड़ेलते हुए फ़फ़क पड़े - लोगों में अब शायरी समझने की तमीज
नहीं रही। ख़सूसन मेरी शायरी। आज चचा ग़ालिब होते तो थोड़ा बहुत समझते , मीर साहब ज़रा ज़रा समझते ,अल्लामा साह्ब कोशिश करते तो शायद---तो वह सड़क छाप आदमी मेरा शे’र क्या समझता---
’अगर सौ लाख सर मारे तो शायद ही खुदा समझे:- मैने बीच ही में बात काट दी और  बतौर-ए- सलाह कहा -
-"अरे ! तो तुम  शायरी का सर्टिफ़िकेट रख कर क्यों नहीं चलते पाकेट में -ड्राइविंग लाइसेन्स की तरह ?
कितनी बार कहा  तुम से कि अपने नाम के आगे शायर लिखा करो  वरिष्ठ शायर लिखा करो । ।आजकल  बहुत से लोग लिखते हैं अपने नाम के आगे फ़ेसबुक पर ,ह्वाट्स अप पर--
शायर अलाना सिंह, शायर फ़लाना सिंह। कुछ तो ’भूतपूर्व’ शायर भी लिखते हैं अपने नाम के आगे। नहीं लिखोगे तो यही होगा साथ में दो-चार चेला चापड़ भी ले कर चला करते  तो तुम्हारा परिचय भी वही सब कराते चलते- और  वाह वाह करते सो मुफ़्त में। जब अपना ’कीमती’ शे’र चाय की थड़ी पर, ’गुमटी’ पर सुनाओगे तो यही होगा।
भई ! फ़ेसबुक पर कई मंच वाले सर्टिफ़िकेट दे रहे है -शायरी का। अब तो बहुत से मंच वाले ; मोटर ड्राइविंग सीखें 7-दिन में  -की तर्ज़ पर ग़ज़ल कहना सीखें 7-दिन में ।
 ’आन-लाइन’क्लास भी चला रहे हैं । एक सज्जन तो कविता की पाठशाला, शायरी का मकतब, ग़ज़ल का कोचिंग इन्स्तीच्यूट भी खोले हुए हैं । नियमित क्लास चलती है वहाँ ।डिस्टैन्स  लर्निंग कोर्स सेर्टिफ़िकेशन। कुछ कुछ तो अमेरिका से चलाते है दुबई से चलाते हैं ,सिंगापुर से चलाते हैं ।अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर चलाते है। कुछ लोकल हैं कुछ ’वोकल’ हैं -वर्क फ़्राम होम- से शायरी करना सीखें ग़ज़ल कहना सीखें । एडमिशन क्यों नहीं ले लेते  एकाध मंच पर  ? जेब में सर्टिफ़िकेट रहता तो वह आदमी  क्या ’चालान’  कर पाता  तुम्हारा ? मार न देते एक सर्टिफ़िकेट उसके मुंह पर दुबारा ज़ुर्रत न करता। इस सर्टिफ़िकेट के आधार  पर ही  दुनिया तुम्हें शायर मान लेती।---मै हतोत्साहित मिश्रा  जी के हृदय में "का चुप साधि रहेहु बलवाना" शैली में हवा भर रहा था ।
और मिश्रा जी अविलम्ब -’जामवन्त के वचन सुहाए’  शैली में- उठते भए और पता नहीं कहाँ चलते भए।
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एक महीने बाद-मिश्रा जी  पधारते भए। 
आँखों में चमक थी - मन में आत्मविश्वास । सीना चौड़ा  । गरदन में अकड़  । आते ही  आते 15-20 शायरी के प्रमाण-पत्र ,सर्टिफ़िकेट सम्मान-पत्र ,सनद, कुछ पत्रिकाओं के कतरन पटक दिए मेज पर और एक हसरत भरी नज़र देखते हुए  बोले -"लो -देखो !-अब कोई माई का लाल आकर कोई पूछे  कि मै कौन?"
मैं वह तमाम सर्टिफ़िकेट देखने लगा --किसी ने ’ग़ज़ल श्री’ का सम्मान दिया.-.किसी ने ग़ज़ल गौरव कहा--किसी ने-" शे’र बहादुर" कहा -किसी ने ग़ज़ल विभूति कहा -किसी ने इन्हें ’अन्तरराष्ट्रीय शायर, बताया, किसी ने ’ अन्तर्राष्ट्रीय़ शायर
एक मंच वाले ने हद कर दी जब इन्हे ’21 वीं सदी का आख़िरी महान शायर ’ का ख़िताब दे दिया था -। दूसरे मंच वाले ने तो कमाल ही कर दिया था। बहुत ही चित्ताकर्षक  रंग-बिरंगी ’सर्टिफ़िकेट" बनाया था
उस पर ग़ालिब--मीर--दाग़--मोमिन ---ज़ौक़--फ़िराक़ के चित्र भी चिपकाए थे और अन्त में मिश्रा जी का ’फोटू’।-फ़लाना शायर मिश्रा जी का नाम तो लिखा था, परन्तु ---सम्मान वाली लाइन
ब्लैंक ------ छोड़ रखी थी । बिलकुल बियरर चेक की तरह । एक कागज का टुकड़ा भी नत्थी किया था। लिखा था --सयाणॆ ! तेरा अख्खा ग़ज़ल पढ़ेला है, भेजे में  घुसेला तो नी मगर दोहा राप्चिक लिखेला है। जो चाहे सम्मान
भर ले बीड़ू ! अपुन का पास टैम नहीं। 
-शायर से ज़्यादा मंच। जितने भेड़ नहीं, उतने गड़ेर। इन्हीं मंचों की कृपा से अब हर दूसरा व्यक्ति शायर हो गया।
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-मिश्रा जी ! एक बात कहूँ ? - 
- हाँ हाँ कहों मित्रवर नि:संकोच कहो ?क्या?
-कि वह आदमी ग़लत नहीं कह रहा था।
इस से पहले की मिश्रा जी अपनी कोई ’ सुभाषित वाक्य’ मेरे सम्मान में उचारते --मैंने भाग जाना ही उचित समझा।
अस्तु
-आनन्द.पाठक-
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