शनिवार, 5 सितंबर 2015

एक व्यंग्य 39 : बास कथा चरितम


                                            बॉस कथा चरित्रम्


दैवो न जानाति ;’बॉस चरित्रम’- संस्कृत में आप ने पढ़ा होगा ?। ’त्रिया चरित्रम’ और ’बॉस चरित्रम्’ में कोई ख़ास अन्तर भी नहीं होता । दोनों ही तुनुक मिज़ाज,दोनों ही सेवा से असन्तुष्ट ,दोनो ही कज़रवी [ऐंठ के चलना] दोनों ही सीधे मुँह बात नहीं करते कि उनका मुँह सीधा करते करते करते अपुन  का सीधा हो जाता हैं बाप ,मगर दोनो ही..

हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता
बॉस कथा ज्यूँ  सन्ता-बन्ता

-"हे श्रोतागण ! जिस प्रकार हरि अनन्त है और हरि कथा अनन्त है उसी प्रकार बॉस की कथाएं भी ’सन्ता-बन्ता’ की कथाओं  की तरह रस पूर्ण है और कभी खत्म न होने वाली अनन्त है ...आप रिटायर हो जायेंगे ..आप की सर्विस खत्म हो जायेगी परन्तु ’बॉस’ की कथा कभी खत्म न होने वाली है } एक बार प्रेम से बोलिए ’बॉस’ महराज की जै....

लगता है कि गोस्वामी तुलसी दास जी भी अपने समय में किसी ’बॉस’ से पीडित रहे होंगे तभी उन्होने आगे लिखा

करू भलु 'बॉस' नरक कर ताता 
दुष्ट संग जन देहु बिधाता 

अर्थात..हे भगवन ! मुझे भले ’नरक’ में पोस्टिंग दे दो मगर किसी ;रावण’ जैसे बॉस के साथ अटैच न करें .अब इस के आगे अर्थ बताने की ज़रूरत नहीं है --जो पीडित हैं वो इसका अर्थ अच्छी तरह जानते है और जो ऐसे ’बॉस’ की चपेट में नहीं आये है बाद में जान जायेंगे

तो कथा आरम्भ करते है

एकदा नैमिष्यारणे.. एक बार नैमिष्यारण में भ्रमण करते हुए एक रिटायर ऋषि माधवानन्द  जी पधारते भए। Rule-14 &16 kका  बनवास झेल रहे उस जंगल में कुछ राजकीय कर्मचारी/अधिकारी  एकत्र हो कर प्रार्थना करने लगे और कहा-" हे ॠषि प्रवर माधवानन्द जी ।इस जंगल में पधार कर आप ने महती कृपा की वरना तो लोग रिटायर के होने के तुरन्त बाद ही कहीं न कहीं अन्य कार्य का अपना जुगाड़ बैठा लेते हैं ..कुछ तो रिटायर होने के बाद उसी विभाग के सेवा सलाहकार बन जाते है जिसका उन्होने अपने सेवाकाल में भट्टा बैठा दिया था ..मगर आप उनसे अलग है..निस्पॄह हैं..निर्विकार है ..निष्कंलक है ...निष्कपट है...और इसी कारण आप को इस विभाग ने या किसी विभाग ने ’सलाहकार’ पद के योग्य नहीं समझा ...और आप भ्रमण करते करते यहाँ पहुँच गये. ..यह हम लोग का अहो भाग्य है कि आप के दर्शन हो गये।साधु । साधु । सुना है कि आप ने अपने सेवा काल में बहुत से ’बॉस’ निपटाये हैं---सो हे प्रभु ! कुछ बॉस चरित्रम पर  प्रकाश डाले -- तो हम लोगों की तपती दग्ध आत्मा को शीतलता प्राप्त हो । बॉस कितने किस्म के होते है ...कैसे होते हैं ..वो क्या क्या करते है ..उनका चरित्र कैसा होता है  --चरित्रवान होते है या चरित्रहीन ...जानने की हम कर्मचारियों/अधिकारियों की  बड़ी उत्कंठा है ...आप सविस्तार बतायें सर ! कि आने वाली पीढियाँ आप के  ग्यान से लाभान्वित हो सके......
 माधवानन्द जी ने अपना ’ब्रीफ़ केस" एक तरफ़ सरकाते हुए और ’लैप टाप’ सम्भालते हुए कहा’-" मित्रों ! ’नो लुक वियाण्ड फ़र्दर’ अर्थात अब तुम्हे और कहीं देखने की ज़रूरत नहीं ..तुम सही जगह आए हो...अब तुम्हारी समस्या समझो कि मेरी समस्या हो गई। आप की ’बॉस कथा चरित्रम ’ सुनने की उत्कंठा से मुझे बड़ी खुशी हुई कि बॉस की चुगली करने और सुनने में आप सब की आदत आज भी वैसे ही है जैसे पहले थी। आप लोगों ने जो विश्वास मुझ में प्रगट किया है और जो यहाँ मंच प्रदान किया है और  गौरव दिया है मैं इस हेतु आप सब का आभारी हूं। मैं अपने पूरे सेवा काल में काम से ज़्यादा बॉस के चरित्र का जिस गहराई से अध्ययन किया है वो आप को अन्यत्र नहीं मिलेगा..आप को रिटायरी तो बहुत मिल जायेंगी परन्तु ऐसा सूक्ष्म अन्वेषक नहीं मिलेगा....
’महर्षि अब आप ज़्यादा समय न लें अब हम लोगों की प्यास बुझायें’----भक्तों ने समवेत स्वर में कहा
"तो सुनो...."
भक्तो !तुमने वो कहावत तो सुनी होगी ’-बॉस के अगाड़ी और घोड़े के पिछाड़ी ’ नहीं रहना चाहिए। यह सेवा का मूल मन्त्र है।
पता नहीं किस भक्त ने पहली बार यह मुहावरा कहा होगा...मगर जब भी कहा होगा ..बड़े अनुभव और अध्ययन के आधार पर कहा होगा ...या तो वो घोड़े के पीछे की 2-4 दुल्लत्ती खाई होगी या बॉस ने उस के पीछे पर 2-4 दुलत्ती जमाई होगी ..तभी वो बिलबिला कर यह मुहावरा कहा होगा। मुझे आज तक यह  पता न चला कि वह पीड़ित कर्मचारी ने बॉस के लिए घोड़ा ही क्यों चुना ...गधा भी तो चुन सकता था..गधा भी तो दुलत्ती मारता है...गधा और बॉस में सामंजस्य भी ठीक बैठता ..गधा के पास जब काम नहीं रहता तो ढेंचू ढेंचू करता रहता है -खाली समय में।
घोड़े के बारे में तो नहीं कह सकता मगर ’गधा’ के बारे में कहीं पढ़ा था कि गधा ही एक ऐसा प्राणी है कि वो अपनी आंख से सामने भी देख सकता है और  पीछे  भी देख सकता है और यही कारण कि उस की दुलत्ती खाली नहीं जाती। बॉस तो पीछे देख नहीं सकता क्योंकि वो गधा नहीं है अत: अपने से आगे वाले के "पॄष्ट-भाग’[पीठ भी हो सकता है और पीठ से ज़रा नीचे भी हो सकता है -यह बॉस के विवेक पर निर्भर करता है ] पर "एक-लत्ती" मारता है[ दुलत्ती मारने की सुविधा सिर्फ़ गधे को प्राप्त है और बॉस गधा नहीं है]
गधे और बॉस में एक बात और दॄष्ट्व्य है -बॉस गधा हो सकता है मगर गधा बॉस नहीं हो सकता -यह एक सार्वभौम सत्य है....
"हे मुनिवर! यह बॉस कौन होता है ...यह किस किस्म का प्राणी होता है? आप सविस्तार वर्णन करें ..हमें जानने की महती उत्कंठा है
"भक्तो ! बड़ा ही अच्छा प्रश्न किया है ..बॉस की परिभाषा अंग्रेजी के शब्दकोश में कई प्रकार से दी गई है जिससे आप दिग्भ्रमित भी हो सकते है ।बस आप तो सर्व साधारण और सर्व सुलभ परिभाषा समझे । Boss is always right| मैने इसी परिभाषा के सहारे सारी सर्विस गुज़ार दी ..भविष्य में आप भी इसी मन्त्र से गुज़ार देना
बॉस स्वतन्त्र इकाई नहीं है एक सापेक्ष प्राणी है बॉस का भी बॉस होता है । बॉस निरपेक्ष नहीं होता..अगर वह स्वतन्त्र रूप से बॉस है और उसके under  कोई स्टाफ़ नहीं हो तो वो Boss नहीं होता ..श्री हीन होता है .कौड़ी का तीन होता ...जल बिनु मीन होता है .और .फिर वो निराशा भाव से मर जाता है। अत: Boss होने के लिए ज़रूरी है कि उसके अधीनस्थ 10-20 स्टाफ़ हो जिस से वो अपने को Boss और अधीनस्थ को ’घास’ समझे। जितनी बड़ी संख्या अधीनस्थ स्टाफ़ की उतना ही बड़ा बॉस।
इस परिभाषा से एक चपरासी भी बॉस हो सकता है बस शर्त यह कि वो किसी लतिया सके ।
"एक चपरासी भी बॉस हो सकता है? आश्चर्य ! मुनि श्रेष्ठ आश्चर्य !  कैसे मुनिवर ? समझाने का कष्ट करेंगे?---एक भक्त ने जिग्यासा प्रगट की
" सत्य वचन वत्स !  सत्य वचन! मैं इस बात की पुष्टि एक घटना से करता हूँ --आप सभी लोग मनोयोग से सुने।
एक बार इन्द्रप्रस्थ प्रदेश [जो आजकल दिल्ली नगरी है] में एक सरकारी कार्यालय में किसी बड़े साहब ने कोई ’फ़ाईल’ तलब किया । बहुत खोजबीन के बाद मालूम हुआ कि उक्त फ़ाइल गायब है , मिल नहीं रही है तो बड़े बाबू ने यह बात बड़े साहब को बताई ---फिर क्या था बड़े साहब चीख उठे---तुम सब निकम्मे...कामचोर..हरामखोर.. एक फ़ाइल सम्भाल कर नहीं रख सकते है और शर्म नहीं आती कह रहे हो कि फ़ाईल मीसिंग है....जाओ ’नोट शीट’ पर लिख कर लाओ कि फ़ाइल मीसिंग है फिर देखता हूँ तुम सब को..बताता हूँ कि सर्विस करना क्या होता है .....
बड़े साहब यहाँ ;बॉस’ हैं अभी सही चल रहे है,,,
बड़े बाबू ने "नोट शीट ’ तैयार किया और लिखा -as desired ,file is missing'--फिर क्या हुआ आदेश हुआ कि फ़ाइल खोजी जाय...बड़े बाबू का जो तिया-पाँचा हुआ सो अलग
बड़े बाबू ने अपने सेक्शन के अधीनस्थ बाबू को बुलाया और उसी शैली मे  डाँटा जिस शैली में उसके  बॉस ने डांटा था -अब यहाँ बड़े बाबू  बॉस हो गये...
यह क्रम चलते चलते एक मरियल से कनिष्ठ लिपिक तक पहुँचा और उस ने ’चपरासी’ को बुलाकर डाँटना शुरु किया....निकम्मे ..कामचोर सब के सब हरामखोर ..एक फ़ाईल भी सम्भाल कर नहीं रख सकता ...अब यहा कनिष्ठ लिपिक चपरासी का बॉस हो गया ...
अन्तत: चपरासी ने स्टोर रूम में जा कर फ़ाईल खोजना शुरु किया ...कनिष्ठ लिपिक महोदय  ने पहले से ही  मूड आफ़ कर दिया था..ऊपर से फ़ाईल नहीं मिल रही थी कि देखा कि 2-आलमीरा के बीच एक कुत्ता बड़े आराम से सोया हुआ था कि चपरासी महोदय ने एक लात जमाया उस कुत्ते को...स्साला ! मेरी फटी जा रही है हमें मरने की फ़ुरसत नही और ये हराम खोर निकम्मा ...कामचोर...कुत्ते का बच्चा .यहाँ आराम से....। और कुत्ता कें ..कें..कें..करता हुआ भाग गया...
यहाँ अब चपरासी बॉस हो गया कुत्ते का ...जो लात मार दे वो बॉस
तो भक्तो ! अब स्पष्ट हो गया होगा कि बॉस एक शॄंखला है ...बॉस वो जो लतिया सके अधीनस्थ वो जो लात खा सके..

तो भक्तों ! इस कथा का अभी यहीं विराम देता हूं.......बाक़ी कथा अगले प्रवचन में सुनाऊँगा....
सभी लोग एक बार प्रेम से बोलें - बड़े बॉस की जय हो...

बॉस जन तो तेणे कहिए पीड़ पे पीड़ बढ़ाई रे--

anand pathak

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रविवार, 22 मार्च 2015

व्यंग्य 38 : शान्ति भंग

" उस मकान वाले को इस मुहल्ले से निकालो। एक मछली सारे तालाब को गन्दा कर रही है ।  मकान में अवैध धन्धा चलवा रहा है’----बूढ़े व्यक्ति ने चिल्ला चिल्ला कर कहा
किसी ने अपनी खिड़कियाँ नहीं खोली
 थाने में रिपोर्ट लिखाने गया-रिपोर्ट नहीं लिखी गई
कुछ दिनो बाद.....
उसे गिरफ़्तार कर लिया गया -शान्ति-भंग के जुर्म में
कि वह बूढ़ा आदमी मुहल्ले का शान्ति भंग कर रहा था
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-आनन्द.पाठक

बुधवार, 18 मार्च 2015

व्यंग्य 37 : लघु कथा : मान-सम्मान


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"....कुछ तर्बियत बची है कि नहीं कि सब घोल कर पी गये  तुम लोग..." -पड़ोसी अब्दुल चाचा ने नन्हें को लानत भेजते हुए फोन पर साधिकार कहा- " तुम लोगो को मालूम है कि नहीं कि भाई जान यानी तुम्हारे पिता जी एक हफ़्ते से खाट पकड़े है ...पंडित जी को कोई देखने वाला नही...और तुम लोग हो कि.."
पिछले हफ़्ते बाथरूम में फिसल गये  पिता जी ---चोट गहरी लगी थी --खाट पकड़ लिया था  । कोई देखने वाला नहीं--कोई सेवा करने वाला नही। शून्य में कुछ निहारते रहते थे। मन ही मन कुछ बुदबुदाते रहते थे एकान्त में  ।लड़के सब बाहर अपने अपने काम में व्यस्त। देखने कोई नहीं आया  । अब्दुल चाचा ने नन्हें को ख़बर कर दिया  ।
नन्हें भागा -भागा पिता जी को देखने आया ।देख कर घबरा गया।मरणासन्न स्थिति में आ गये हैं अब तो। हालत देख कर आभास हो गया कि पिता जी अब ज़्यादा दिन नहीं चलेंगे।
" भईया ! पिता जी को आप दो महीने अपने यहाँ रख लेते तो मैं अपनी बेटी की शादी निपटा लेता फिर मैं उन्हें अपने यहाँ ले जाता"- नन्हें ने बड़े भाई को टेलीफोन पर अपनी व्यथा बताई
" नन्हें ! तू तो जानता ही है कि मैं हार्ट का मरीज़ हूँ डाइबिटीज है ..सुगर लेवेल बढ़ गया है आजकल....मैं तो ख़ुद ही मर रहा हूँ"- बड़े भाई ने अपनी असमर्थता जताई और पत्नी पार्श्व में खड़ी निश्चिन्त हो गईं
नन्हें ने  छॊटे भाई से बात की--" छोटू ! पिता जी को अगर दो महीने के लिए अपने पास रख..लेता तो......"
बात पूरी होने से पहले ही छोटू बोल उठा-" भईया ! बम्बई की खोली में एक कमरे का मकान भी कोई मकान होता है ---पाँव फैलाओ तो दीवार से सर लगता है...स्साला रोज घुट घुट कर जीना-पड़ता है अरे !--इस जीने से तो मर जाना बेहतर---भईया ! आप मेरी मज़बूरी तो जानते ही हो..." छोटे ने अपनी असमर्थता जताई और पत्नी पार्श्व में खड़ी मुस्कराई
 थक हार कर नन्हे एम्बुलेन्स’  खोजने निकल गया कि कोई उधारी में एम्बुलेन्स मिल जाता तो.....
 पिता जी अकेले खाट पर पड़े शून्य में बड़ी देर तक छत की ओर निहारते रहे....कुछ सोचते रहे...शायद अतीत चलचित्र की भाँति एक बार उनके नज़रों के सामने से घूम रहा था......बेटों के जवाब सुनने से पहले..भगवान ने सुन ली...टिमटिमाटी लौ थी...बुझ गई...कमरे में धुँआ फैल गया ...एक इबारत उभर गई

तमाम उम्र  इसी  एहतियात  में  गुज़री
                  कि आशियाँ किसी शाख-ए-चमन पे बार न हो

[बार =भार]

 नन्हें ने सबको खबर कर दिया ....
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"नन्हें ! तू वहीं रुक ,मैं आ रहा हूँ ! पिता जी का क्रिया-कर्म गाजे-बाजे के साथ बड़ी धूम-धाम से होना चाहिए ..पूरे गाँव को बुलाना है...पूरे शहर को खिलाना है
पूरे शहर में कितना "मान सम्मान"था पिता जी का। शहरवालों को भी तो पता चले कि वकील साहब के लड़को ने मान-सम्मान में कोई कसर नहीं छोड़ी...."-बड़े भाई ने फोन किया

जो ’मर ’ रहे थे वो ’ज़िन्दा’ हो गए .... जल्दी जल्दी तैयार होकर अपनी गाड़ी निकाली और रवाना हो गए---पिता जी की ’विरासत’ सम्भालने और ’नगदी’-गहने भी !

-आनन्द.पाठक
09413395592

मंगलवार, 10 मार्च 2015

व्यंग्य 36: लघु कथा .: हाथ का मैल

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---’तीये’ की बैठक चल रही है । पंडित जी प्रवचन कर रहे हैं -"अस्मिन असार संसारे !..इस असार संसार में ..जगत मिथ्या है .ईश्वर अंश ...जीव अविनाशी
ज्ञानी ध्यानी लोगो ने कहा है ---पानी केरा बुलबुला अस मानुस की जात... तो जीवन क्या है... पानी का बुलबुला है ...नश्वर है..क्षण भंगुर है..मैं नीर भरी दुख की बदली...उमड़ी थी कल मिट आज चली...जो उमड़ा ..वो मिटा..जो आया है वो जायेगा ,,’जायते म्रियते वो कदाचित...तो फिर किसका शोक ....जो भरा है वो खाली होगा..यही जीवन है यही नश्वरता है गीता में लिखा है -"वासांसि जीर्णानि यथा विहाय ....अर्थात यह शरीर क्या है माया है ..फटा पुराना कपड़ा है ...आदमी इसे जान ले कि व्यर्थ ही इस कटे-फटे कपड़े को सँवार रहा था तो शरीर छूटने का कोई कष्ट नहीं....शरीर तो दीवार है .मिट्टी की दीवार ..एक घड़े की दीवार की तरह...जल में कुम्भ...कुम्भ में जल है ..बाहर भीतर पानी....फुटा कुम्भ जल जल ही समाना ...यह तथ कहें गियानी---... .."-
--"तुलसी दास जी ने कहा है क्षिति जल पावक गगन समीरा ...जब यह शरीर क्षिति का बना है मिट्टी का बना है तो इसके मिटने का क्या शोक करना.....मिट्टी का तन मिट्टी का मन क्षण भर जीवन मेरा परिचय...तो सज्जनों ! आप सब जानते है ..एक फ़िल्म का गाना है---चल उड़ जा रे पंक्षी कि अब यह देश हुआ बेगाना...शरीर पिंजरा है ..आत्मा पंक्षी है..आत्मा ने पिंजरा छोड़ दिया अब वह और पिंजरे में जायेगी...
पंडित जी ने अपना प्रवचन जारी रखा,, उन्हें आत्मा-परमात्मा जीव के बारे में जितनी जानकारी थी सब उड़ेल रहे थे

और धन ...धन तो हाथ का मैल है ...सारा जीवन प्राणी इसी मैल के चक्कर में पड़ा रहता है...इसी मैल को बटोरता है ..और अन्त में सब कुछ यहीं छोड़ जाता है ..धन तो माया है
धन मिट्टी है शास्त्रों में इसे "लोष्ठ्वत’ कहा गया है ...मगर सारी जिन्दगी आदमी इसी "लोष्ठ’ को एकत्र करता रहता है ..और अन्त में? अन्त में ’धन ’ की कौन कहे वो तो यह मिट्टी भी साथ नहीं ले जा सकता ... आदमी इस मिट्टी को समझ ले तो कोई दुख न हो....जब आवै सन्तोष धन ..सब धन धूरि समान’ अन्त में मालूम होता है कि आजीवन हम ने जो दौड़-धूप करता रहा वो सब तो धूल था ..तब तक बहुत विलम्ब हो चुका होता है---सब ठाठ पड़ा रह जायेगा...जब लाद चलेगा बंजारा...बंजारा चला गया..किस बात का शोक....
पंडित जी घंटे भर आत्मा-परमात्मा--जीव..जगत .माया...धन..मिट्टी आदि समझाते रहे और श्रोता भी कितना समझ रहे थे भगवान जाने

अन्त में ...अब हम सब मिल कर प्रार्थना करें कि भगवान मॄतक की आत्मा को शान्ति प्रदान करें और और परिवार को दुख सहने की शक्ति....."-पंडित जी का प्रवचन समाप्त हुआ

...लोग मृतक की तस्वीर पर ’श्रद्धा-सुमन’ अर्पित करने लगे ...पंडित जी ने जल्दी जल्दी पोथी-पतरा सम्भाला --चेले ने ’लिफ़ाफ़े’ में आई दान-दक्षिणा संभाली..इस जल्दी जल्दी के क्रम में चेले से 2-दक्षिणा का लिफ़ाफ़ा रह गया...पंडित जी की ’तीक्ष्ण दॄष्टि’ ने पकड़ लिया और चेले को एक हल्की सी चपत लगाते हुए कहा-" मूढ़ ! पैसा हाथ का मैल है..लिफ़ाफ़ा’ तो नहीं -यह लिफ़ाफ़ा क्या तेरा बाप उठायेगा..
पंडित जी ने दोनो लिफ़ाफ़े उठा कर जल्दी जल्दी अपने झोले में रख लिए...उन्हे अभी दूसरे ’तीये’ की बैठक में जाना है और वहाँ भी यही प्रवचन करना है---" अस्मिन असार संसारे !....पैसा हाथ का मैल है ....

-आनन्द.पाठक
09413395592

गुरुवार, 5 मार्च 2015

व्यंग्य 35 : लघु कथा : इवेन्ट मैनेजमेन्ट

मंच के सभी मित्रों को होली की शुभकामनायें........




"...आप ही ’आनन’ जी है? फ़ेसबुक पर आप ही "अल्लम-गल्लम’ लिखते रहते है तुकबन्दिया शायरी करते रहते है?"-आगन्तुक ने सीधा तीर मारा
" जी आप कौन ?"-मैने प्रश्नवाचक मुद्रा में पूछा
"अरे ! आप ने मुझे नहीं पहचाना? मैं कवि ’फ़लाना’ सिंह ..बहुत दिनों से आप फ़ेसबुक पर दिखाई नहीं दिए तो सोचा आप के दर्शन कर अपना जीवन सँवार लूँ।"
अकारण  स्तुति वाचन से ,मैं सचेत हो गया -: " अच्छा किया कि आप ने अपने नाम के आगे कवि जोड़ दिया है वरना श्रोताओं का कोई भरोसा नहीं कि क्या समझ लें आप को --भ्रम की स्थिति स्वयं दूर कर दी आप ने --हिन्दी साहित्य में फेसबुक के रास्ते बहुत घुसपैठिये आ गये है आजकल.....""मैने कहा

" हें ! हें ! हें !! अच्छा मज़ाक कर लेते है आप भी। आप ने मेरी कविता नहीं पढ़ी ? कल ही छपी है ’फ़लाना’ पत्रिका में ..कतरन तो इन्टरनेट के सभी साईटों पर चढ़ा दी ..सभी मंच पर लगा दी है ...सैकड़ों लोगों ने "लाईक’ किया है दर्ज़नो नें ’वाह , वाह किया...पच्चीसियों ने अपनी ’टिप्पणियाँ लिखी कि ऐसे कविता हिन्दी साहित्य में पिछले 3 दशक से नहीं लिखी गई ..अगर उस समय लिखी जाती तो ’तार-सप्तक’ में अवश्य स्थान पाती....सोचा कि आप का आशीर्वाद भी लेता चलूं"

और उन्होने पत्रिका की कतरन मेरे सामने रख दिया। पढ़ा। सम्पादक ने अपनी तरफ़ से , उनके परिचय में उन्हे वरिष्ठ कवि ..कविता जगत में नया हस्ताक्षर..हिन्दी साहित्य को उनमें छिपी अनेक संभावनाओं का लाभ......एक नये तारे का अभ्युदय....और भी बहुत कुछ लिखा था। मैं तय नहीं कर पा रहा था कि कवि और सम्पादक में कौन महान है ।आप इसे मेरी तंग नज़र भी कह सकते है
" तार सप्तक’ में नहीं छपी तो कोई बात नहीं..."कविता अनवरत" में छप जायेगी ’सूद’ जी छाप रहें है आजकल। 3-खण्ड निकाल चुके हैं अबतक । आप की कविता जो है सो है मगर मैं आप की क्या सेवा कर सकता हूँ"
" आनन जी ! बस आप तो आशीर्वाद दीजिये इस ग़रीब-उल-फ़क़ीर को"

  मैने आशीर्वाद स्वरूप, मेज की दराज से एक ’रेट कार्ड’ निकाल कर उन के सामने बढ़ा दिया.उन्होने पढ़ा..हल्का सा मूर्छित हुए फिर चेतनावस्था में आते हुए कहा
" अयं ,ये क्या ? इसमें तो सब आईट्म का रेट लिखा है ....सम्मान कराने का .अलग...ताम्र-पत्र का अलग..स्तुति गीत का अलग...नारियल-साल भेंट करने का अलग...श्रोता इकठ्ठा करने का अलग...फोटो खिचवाने का अलग ..समीक्षा करवाने का अलग...आरती करने कराने का अलग....टिप्पणियां ’फ़्री ’ में है .पुस्तक विमोचन करवाने का अलग वरिष्ठ कवियों को आमन्त्रित करने का मय यात्रा-खर्च और ठहराने का रेट अलग....ये सब तो ’इवेन्ट मैनेजमेन्ट का रेट है ."तो क्या आप ने शे’र-ओ-शायरी करना छोड दिया है?"----उन्होने जिज्ञासा प्रगट की

" जी ,बहुत पहले छोड़ दिया फ़ायदे का सौदा नहीं था सो "इवेन्ट मैनेजमेन्ट" कम्पनी खोल ली और आप जैसे "छपास पीड़ित’ लेखकों कवियों की सेवा करता हूँ। कहिए कौन सा ’डेट बुक’ कर दूं । मैं तो कहता हूं कि आप भी यह कविता वविता लिखना छोड़ मेरी कम्पनी ज्वाइन कर लें, सुखी रहेंगे"
" बस बस पाठक जी ! मिल गया आशीर्वाद:"-- कवि ’फ़लाना सिंह -जो गये तो फिर लौट के इधर न आये।
सुना है उन्होने भी कोई कम्पनी खोल रखी है

[नोट : सुरक्षा कारणों से कॄपया ’कवि’ और ’पत्रिका" का नाम न पूछियेगा]
-आनन्द.पाठक.
09413395592


सोमवार, 2 मार्च 2015

व्यंग्य 34 : लघु कथा : यू-टर्न



".....राम राम !राम !! घोर कलियुग आ गया ....अब यह  देश नहीं चलेगा ...चार दिन इन्टर्नेट पर ’चैटिंग क्या कर ली कि सीधे "शादी" कर ली । इन ’फेसबुक" वालों ने तो धर्म ही भ्रष्ट कर के रख दिया ....." पंडित जी ने नाक-भौं सिकोड़ते हुए कथन जारी रखा - "--- अब आप ही  बताइए माथुर साहब !-देखा न सुना ,न घर का पता न खानदान का ...अरे यह भी कोई शादी हुई ....शादी विवाह में जाति देखी जाती है.... बिरादरी देखी जाती है ...अरे हमारे यहाँ तो गोत्र की कौन कहे ..हम तो ’नाड़ी" तक चले जाते हैं.....धर्म-कर्म भी कोई चीज  है कि नहीं ...शास्त्रों में क्या झूट लिखा है ...मनु-स्मृति में ग़लत लिखा है...विजातीय विवाह कोई विवाह होता है ...और वो भी कोर्ट में ...न पंडित न फ़ेरा ..न वर न बरात ..न अग्नि का फेरा .....ऐसे में तो संताने ’वर्ण-संकर’ ही पैदा होगी....धर्म का क्षय होगा "
माथुर साहब धर्म की यह  व्याख्या वह बड़े ’चाव’ से सुन रहे थे कारण कि उनके पड़ोसी अस्थाना साहब की बेटी भाग कर कोई विजातीय " कोर्ट मैरिज" कर ली थी
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कुछ वर्षों पश्चात.....एक दिन

रास्ते में पंडित जी और माथुर साहब टकरा गये.एक "ट्रैफ़िक-पोस्ट" पर.। ....प्रणाम पाती हुआ ...
माथुर साहब---" ...सुना है आजकल आप का ’छुट्टन’ आया है विलायत से छुट्टी पर ..छोटा था तो देखा था अब तो बड़ा हो गया होगा ...साथ में कोई "अंग्रेजन बहू’ भी साथ लाया है... ?
"- बड़ी संस्कारी बेटी है मेरी बहू ....उतरते ही "हाय-डैडू’- कहा ..इसाई "ब्राह्मण" की बेटी है..सुना है उसके पिता भी पूजा-पाठ कराते  है वहाँ । भाई ! शादी विवाह तो ऊपर वाला ही बनाता है..... हम कौन होते हैं ..... क्या देश क्या विलायत ...जोड़ियाँ तो स्वर्ग से ही बनती है...भगवान बनाते है ..सब में एक ही प्राण ,सब में एक ही खून ..सबके खून का एक ही रंग ..ये तो हम हैं कि हिन्दू मुसलिम सिख ईसाई छूत-अछूत कर बैठे हैं...’सर्व धर्म सदभाव देश आगे बढ़ेगा... बहू भी वहाँ नौकरी करती है ..अच्छा पैसा कमाती है..बेटा भी कभी कभी कुछ भेंज देता है .......दोनो राजी-खुशी रहें हमें और क्या चाहिए......

माथुर साहब को इस बहू-कथा में ज़्यादा ’आनन्द’ नही आ रहा था क्योंकि यह उनके पड़ोसी ’अस्थाना" साहब की बेटी की कथा न थी ....
फिर कुछ औपचारिक बात-चीत के बाद दोनों ने अपनी अपनी राह ली
पीछे "ट्रैफ़िक-पोस्ट’ पर लिखा था--" यू-टर्न"

-आनन्द.पाठक-
09413395592

गुरुवार, 26 फ़रवरी 2015

व्यंग्य 33 : एक लघु कथा : चार लाठी

व्यंग्य लघुकथा 09 : चार लाठी
----उनके चार लड़के थे।  अपने लड़कों पर उन्हे बड़ा गर्व था। और होता भी क्यों न । बड़े लाड़-प्यार  और दुलार से पाला था । सारी ज़िन्दगी इन्हीं लड़को के लिए तो जगह ज़मीन घर मकान करते रहे और पट्टीदारों से मुकदमा लड़ते रहे, खुद वकील जो थे ।
गाँव जाते तो सबको सुनाते रहते -चार चार लाठी है हमारे पास ।ज़रूरत पड़ने पर एक साथ बज सकती है ।  परोक्ष रूप से अपने विरोधियों को चेतावनी देने का उनका अपना तरीका था। जब किसी शादी व्याह में जाते तो बड़े गर्व से दोस्तों और रिश्तेदारों को सुनाते -चार चार लाठी है मेरे पास -बुढ़ापे का सहारा।
 इन लड़को को पढ़ाया लिखाया काबिल बनाया और भगवान की कृपा से चारो भिन्न भिन्न शहरों में जा बसे और अच्छे कमाने खाने लगे ।
  समय चक्र चलता रहा जिसकी जवानी होती है उसका बुढ़ापा भी होता है।लड़के अपने अपने काम में व्यस्त रहने लगे । लड़को का धीरे धीरे गाँव-घर आना जाना कम हो गया । समय के साथ साथ गाँव-घर छूट भी गया।पत्नी पहले ही भगवान घर चली गई थी अब अकेले ही घर पर रहने लगे थे -अपने मकान को देखते ज़मीन को देखते ,ज़मीन के कागज़ात को देखते जिसके लिए सारी उम्र भाग दौड की-इन बच्चों के लिए। शरीर धीरे धीरे साथ छोड़ने लगा और एक दिन उन्होने खाट पकड़ ली...अकेले नितान्त अकेले... सूनापन...कोई देखने वाला नहीं--कोई हाल पूछने वाला नहीं...लड़के अपने अपने काम में व्यस्त...कोई उनको अपने साथ रखने को तैयार नहीं ...लड़को को था कि उन्हें अपनी ज़िन्दगी जीनी  है..."बढ़ऊ’ को  आज नहीं तो कल जाना ही है अपने साथ रख कर क्यों अपनी ज़िन्दगी में खलल करें।
-- हफ़्तों खाट पर पड़े रहे ... मुहल्ले वालों ने चन्दा कर ’अस्पताल’ में भर्ती करा दिया। चारों लड़के खुश और निश्चिन्त  हो गये -’पापा की सेवा करने वाली मिल गई-नर्से सेवा करेंगी।  --कोई लड़का न ’पापा’ को देखने गया और न अपने यहाँ ले गया ।वही हुआ जो होना था और एक दिन ’पापा’भी  शान्त हो गये....
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-कल तेरहवीं थी । चारों लड़के आये थे। एक साथ इकठ्ठा हुए थे पहली बार।
’भईया ! बड़े "संयोग’ से एक साथ इकठ्ठा हुए है हम सब। फिर न जाने कब ऐसा मौका मिलेगा ।’पापा’ का तो फ़ैसला हो गया। जगह ज़मीन का भी फ़ैसला हो जाता तो ....." -छोटे ने सकुचाते हुए प्रस्ताव रखा -बहुओं ने हामी भरी।

मगर .....फ़ैसला न हो सका --चारों ’लाठियां’ औरों पर क्या बरसती आपस में ही बज़ने लग गईं।

-आनन्द.पाठक-
09413395592

मंगलवार, 24 फ़रवरी 2015

व्यंग्य 32 : लघु कथा : चुनावी जुमला


---- पण्ड्ति जी आँखें मूँद,बड़े मनोयोग से राम-कथा सुना रहे थे और भक्तजन बड़ी श्रद्धा से सुन रहे थे। सीता विवाह में धनुष-भंग का प्रसंग था-
पण्डित जे ने चौपाई पढ़ी
"भूप सहस दस एक ही बारा
लगे उठावन टरई  न टारा "

- अर्थात हे भक्तगण ! उस सभा में "शिव-धनुष’ को एक साथ दस हज़ार राजा उठाने चले...अरे ! उठाने की कौन कहे.वो तो ...
तभी एक भक्त ने शंका प्रगट किया-- पण्डित जी !  ’दस-हज़ार राजा !! एक साथ ? कितना बड़ा मंच रहा होगा? असंभव !
पण्डित जी ने कहा -" वत्स ! शब्द पर न जा ,भाव पकड़ ,भाव । यह साहित्यिक ’जुमला’ है । कवि लोग कविता में प्रभाव लाने के लिए ऐसा लिखते ही रहते है"
भक्त- " पर तुलसी दास जी ’हज़ारों’ भी तो लिख सकते थे ....। "दस हज़ार" तो ऐसे लग रहा है जैसे "काला धन" का 15-15 लाख रुपया सबके एकाउन्ट में
      आ गया
पण्डित जी- " राम ! राम ! राम! किस पवित्र प्रसंग में क्या प्रसंग घुसेड़ दिया। बेटा ! 15-15 लाख रुपया वाला ’चुनावी जुमला" था । नेता लोग चुनाव में प्रभाव लाने के लिए "चुनावी जुमला ’ कहते ही रहते हैं । ’शब्द’ पर न जा ,तू तो बस भाव पकड़ ,भाव ......

"हाँ तो भक्तों ! मैं क्या कह रहा था...हाँ- भूप सहस द्स एक ही बारा’----- पण्डित जी ने कथा आगे बढ़ाई..

-आनन्द.पाठक
09413395592

शुक्रवार, 13 फ़रवरी 2015

व्यंग्य 31: एक लघु कथा : गिद्ध दॄष्टि

एक लघु व्यथा : गिद्ध दॄष्टि

----  वह अपनी माँ के चार बेटों में सबसे छोटा बेटा था ।  माँ ने बड़े प्यार दुलारा से पाला था कि उसका बेटा डाक्टर बन जाय ।  माँ के आशीर्वाद से वह डाक्टर बन भी गया
... जीवन के आखिर में माँ को "लकवा" मार गया और वो शैया ग्रस्त हो गईं। 3-महीने तक खाट पर पड़ी रही ,उठ बैठ नहीं सकी, पर आँखे निरन्तर राह देखती रही  कि "छुट्ट्न" एक बार आ जाता तो देख लेती....खुली आंखें हर रोज़ छत  निहारती रही ....मगर ’वह’ नहीं आया ।

एक ही बहाना -कार्य की व्यस्तता।---वह पिछले 2-साल से एक  "बुढ़िया’ की प्राण-प्रण से सेवा कर रहा था क्योंकि उस "बुढिया’ के पास 3-कठ्ठा ज़मीन का टुकड़ा था और उस की कोई सन्तान नही थी।

... प्रतीक्षा करते करते आखिर उसकी माँ ने एक दिन आँखें मूद ली । माँ की ’तेरहवीं’ में आया मगर ’ब्रह्म भोज’ खाने से पहले ही फ़्लाइट से वापस चला गया।कारण वही -कार्य की व्यस्तता। उसे मालूम था घर की ज़मीन तो बँटवारे में मिलेगी ही मिलेगी ,जो मर गया उसको कौन रोये जो मरने जा रही है उसको पकड़ो।

---कुछ दिनों बाद वो ’बुढ़िया" भी मर गई । उसने  बुढ़िया के मरने से पहले वह ज़मीन अपने नाम लिखवा ली थी ।

वह लड़का ’गिद्ध’ तो नहीं था ,मगर - ’गिद्ध-दॄष्टि’-ज़रूर थी।

-आनन्द.पाठक-


बुधवार, 11 फ़रवरी 2015

व्यंग्य 30 : लघु कथा: मेढक और बैल

एक लघु व्यंग्य कथा- 06

.......... नेता जी ने तालाब का उद्घाटन कर दिया। तालियां बजने लगीं।किनारे पर बैठा मेढक, मारे डर के छपाक से पानी में कूद गया
तालाब में मेढक के साथियों ने पूछा- क्या हुआ?  घबराए हुए क्यों हो?
मेढक - मैने एक नेता देखा
अन्य मेढक ने पूछा  - नेता कैसा होता है?
मेढक - बड़ी बड़ी तोंद होती है ।सफ़ेद खादी का कुर्ता पहनता है । टोपी पहनता है और पहनाता है
अन्य मेढक ने पूछा- खादी कैसा होता ?
मेढक -सफ़ेद होता है
अन्य मेढक - तोंद कैसी होती है ?
इस बार मेढक सावधान था .।उसे मालूम था कि पिछली बार उस के पिताश्री इन्ही मूढ़ मेढकों को "बैल" का आकार समझाने के चक्कर में पेट फुला फ़ुला कर समझा रहे थे कि मर गए  । इस बार का मेढक समझदार था।
मेढक ने कहा - तुम सब मेढक के मेढक ही रहोगे। बाहर चल कर देख लो कि नेता का तोंद कैसा होता है?
सभी मेढक टर्र टर्र करते उछलते कूदते नेता जी का तोंद देखने किनारे आ गये ।मगर नेता जी उद्घाटन कर वापस जा चुके थे
मेढको ने कहा -नेता का तोंद कैसा होता है?
इस बार मेढक पास ही बैठे जुगाली करते हुए सफ़ेद साढ़  की पीठ पर उछल कर जा बैठा और बोला-"ऐसा"
तभी से सभी मेढक ’जुगाली करते साँढ़’ को ही ’नेता’ का पर्याय मानने लगे ।
वो मेढक कुएँ के मेढक नहीं थे ।

-आनन्द पाठक-
09413395592

मंगलवार, 27 जनवरी 2015

व्यंग्य 29 : एक लघुकथा : सप्रेम भेंट


   ----- नवोदित लेखक ने बड़ी मेहनत से अपना "काव्य-संग्रह’ प्रकाशित करवा कर प्रथम प्रति  एक तथाकथित स्वनामधन्य "साहित्यकार" को बड़े आदर और श्रद्धा से विनम्र होते हुए भेंट किया और लिखा-" मेरे प्रेरणास्रोत ! मान्यवर श्रद्धेय साहित्यशिरोमणि वरिष्ठ आदरास्पद "....अमुक जी" को  पारस स्पर्श हेतु एक तुच्छ सप्रेम भेंट....." ---एक अकिंचन

 फिर वह नवोदित लेखक बड़े गर्व से अपने साहित्यिक मित्रो ,यहाँ वहाँ मंच पर, फेसबुक पर ,-कि "अमुक जी" ने मुझे अपने आशीर्वचन दिये ,आशीर्वाद दिया ,मुझे अपना बेटा कहा--धन्य हो गया ..."बताते हुए फिर रहा है

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.....कुछ दिनों बाद ,"अमुक जी; ने 125/- का एक मनीआर्डर उस नवोदित लेखक के नाम भेंज दिया।
अपना मूल्य और किताब का मूल्य मिला कर।

आनन्द.पाठक


गुरुवार, 22 जनवरी 2015

व्यंग्य 28 : एक लघु कथा : खरगोश और कछुआ



.... एक बार फिर
"खरगोश" और ’कछुए’ के बीच दौड़ का आयोजन हुआ
पिछली बार भी दौड़ का आयोजन हुआ था मगर ’गफ़लत’ के कारण ’खरगोश’ हार गया ।मगर ’खरगोश’ इस बार सतर्क था। यह बात ’कछुआ: जानता था
इस बार ....
दौड़ के पहले कछुए ने खरगोश से कहा -’मित्र ! तुम्हारी दौड़ के आगे मेरी क्या बिसात । निश्चय ही तुम जीतोगे और मैं हार जाऊँगा। तुम्हारी जीत के लिए अग्रिम बधाई। मेरी तरफ़ से उपहार स्वरूप कुछ ’बिस्कुट’ स्वीकार करो। खरगोश इस अभिवादन से खुश होकर बिस्कुट खा लिया।
दौड़ शुरू हुई....खरगोश को फिर नीद आ गई ...कछुआ फिर जीत गया
xxxxx               xxxxx    xxxxx

पुलिस को आजतक न पता चल सका कि उस बिस्कुट में क्या था। जहरखुरानी तो नहीं थी ?
इस बार कछुआ एक ’ राजनीतिक पार्टी ’ का कर्मठ व सक्रिय कार्यकर्ता था
 इस नीति से आलाकमान बहुत खुश हुआ और कछुए को पार्टी के ’मार्ग दर्शन मंडल’ का सचिव बना दिया

-आनन्द.पाठक
09413395592

रविवार, 18 जनवरी 2015

व्यंग्य 27 : एक लघु कथा : साधु और बिच्छू



.... नदी में स्नान करते हुए साधु ने पानी में बहते हुए ’बिच्छू’ को एक बार फिर उठा लिया
’बिच्छू’ नें फिर डंक मारा। साधु तड़प उठा। बिच्छू पानी में गिर गया
साधु ने  पानी में बहते हुए ’बिच्छू’ को फिर उठाया ।
बिच्छू ने फिर डंक मारा । साधु तड़प उठा । बिच्छू पानी में गिर गया।
साधु ने फिर......।यह घटना पास ही स्नान कर रहे एक व्यक्ति बड़े मनोयोग से देख रहा था।
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........कुछ वर्षों पश्चात
वह ’व्यक्ति’ उसी नदी में स्नान कर रहा था कि पानी में बहता हुआ ’बिच्छू’ उधर से निकला।
उस व्यक्ति ने बहते हुए बिच्छू को उठा लिया।  इस से पहले कि बिच्छू डंक मारता ,उस व्यक्ति ने पट से मार कर "डंक’ मरोड़ दिया और पानी में फ़ेंक दिया
इस बार ’बिच्छू’ तड़प उठा ....
बेचारे बिच्छू को मालूम नहीं था कि ’दिल्ली’ में सत्ता बदल गई है।

-आनन्द.पाठक
09413395592

रविवार, 11 जनवरी 2015

व्यंग्य 26 : एक लघु कथा : राम --रहीम--इन्सान


" तुम ’राम’ को मानते हो ?-एक सिरफिरे ने पूछा
-"नहीं"- मैने कहा
उसने मुझे गोली मार दी क्योकि मै उसकी सोच का हमसफ़ीर नहीं था और उसे स्वर्ग चाहिए था
"तुम ’रहीम’  को मानते हो ?"-दूसरे सिरफिरे ने पूछा
-"नही"- मैने कहा
उसने मुझे गोली मार दी क्योंकि मैं काफ़िर था और उसे जन्नत चाहिए थी।
" तुम ’इन्सान’ को मानते हो"- दोनो सिरफिरों ने पूछा
-हाँ- मैने कहा
फिर दोनों ने बारी बारी से मुझे गोली मार दी क्योंकि उन्हें ख़तरा था कि यह इन्सानियत का बन्दा कहीं  जन्नत या स्वर्ग न हासिल कर ले
 xx                       xxx                           xxx                      xxx

बाहर गोलियाँ चल रही हैं। मैं घर में दुबका बैठा हूँ ।
 अब मेरी ’अन्तरात्मा’ ने मुझे गोली मार दी कि मैं घर से बाहर क्यों नहीं निकलता
मैं घर में ही मर गया ।

-आनन्द.पाठक-
09413395592