मंगलवार, 16 दिसंबर 2014

व्यंग्य 25 : छ्पाना एक हिन्दी पुस्तक का....

व्यंग्य 25 : छपाना एक हिंदी पुस्तक का---

कहते हैं प्रकाशन एक विधा है जैसे लेखन एक विधा है।मैं कहता हूँ प्रकाशन एक कर्म काण्ड है।पाण्डुलिपि का प्रकाशन कराते कराते अपना ही पिण्डदान बाक़ी रह जाता है।नवोदित व्यंग्यकार यह रहस्य समझते होंगे।लेखन आसान है-लेखनी ली ,अल्लम-गल्लम लिखा,दस बीस पन्ने रंग दिए पाण्डुलिपि तैयार। परन्तु प्रकाशन -ना बाबा ना।10-20 प्रकाशकों को टोपी पहनाते हैं तो कोई एक टोपी पहनता है बमुश्किल।[पाठकों को सूचनार्थ- सिर्फ़ मेरे प्रकाशक को छोड़ कर जो लेखक को ही टोपी पहनाता है] हिन्दी के व्यंग्य लेखक को 2-ही चिन्तायें सताती रहती हैं ।एक-बड़ी होती हुई बेटी ’रचना’ और दूसरी तैयार होती हुई पाण्डुलिपि ’रचना’।अगर दोनो प्रकाशित न हुई तो आजीवन कुँवारी रह जायेंगी और जग हँसाई ऊपर से।

वही हुआ ,जिसका भय था ।  रचना तैयार हो गई।अब एक सुयोग्य प्रकाशक ’वर’ की खोज करनी थी।सोचा समाचार पत्र के माध्यम से वैवाहिक कालम में एक विज्ञापन दे दूँ -"प्रकाशक चाहिए अपनी रचना के प्रकाशन के लिए ।पन्ने 200 ,वज़न आधा किलो,डिमाई साईज ,हार्ड बैक। इच्छुक प्रकाशक अपना ’बायोडाटा’ भर कर प्रकाशित सूची के साथ अपना फोटो भेंजे। ISBN पंजीकृत प्रकाशको को प्राथमिकता दी जायेगी।विचारधारा ’नो-बार’।वामपंथी .दक्षिणपंथी ,नरमपंथी ,गरमपंथी प्रकाशको पर विचार किया जा सकता है। कुंजी ,गेस पेपर ,श्योर शाट सक्सेस पेपर प्रम्पलेट पेपर ,मस्त जवानी गरम हसीना छापने वाले प्रकाशक कृपया क्षमा करेंगे।"--मगर जनाब अगर विज्ञापन से ही प्रकाशक मिल जाते तो हम इसे ’कर्मकाण्ड ’क्यों कहते।

ये प्रकाशक भी कुछ विशेष प्रकार के प्राणी होते हैं। पिछले व्यंग्य संग्रह "शरणम श्रीमती जी" -में इन प्राणियों पर कुछ प्रकाश डाला था। लिखा था कि किस प्रकार आंख के अन्धे-गांठ के पूरे ...एक प्रकाशक ने उक्त ्व्यंग्य संग्रह छापने का जोखिम उठाया था कि आज तक न उबर  सके।यह अलग बात है कि उक्त प्रकाशक महोदय ने न अपनी गांठ खोली न गठरी।यही क्या कम है कि बिना रायल्टी के छाप दिया।उनकी मान्यता है कि हिन्दी के सच्चे सेवक को न गाँठ देखनी चाहिए न गठरी। हिन्दी का लेखक तो साधु-सन्त होता है।गाँठ गठरी देखने का काम अंग्रेजी लेखकों का है। उनके इस गुरू-ज्ञान से मैं सहम गया ।कहीं उनकी दृष्टि मेरी गठरी पर तो नहीं है ?

। हालाँकि कुछ लेखक बड़े घाँघ होते हैं। दिन के उजाले में कहते हैं -"अरे मैं ! मेरी पुस्तक के लिए तो प्रकाशक मेरे दरवाजे पर लाईन लगाये खड़े रहते है कि पाण्डुलिपि तो बस आप मुझे ही दे दीजियेगा फिर देखिए कि कैसी आप की सेवा करता हूँ। अपना पैसा लगा कर पुस्तक छपवाना । राम राम राम कैसा कलियुग आ गया।" मगर रात के अधेरे में वही लेखक प्रकाशक के दरवाजे दरवाजे हाज़िरी देते हैं।खैर जनाब, मैं स्वयं ही एक सुयोग्य प्रकाशक की तलाश में निकल पड़ा-अपनी ’रचना’ के लिए।यह काम तो करना ही था ।खद्दर का कुर्ता सिलवाया ,पायजामा बनवाया।बाल बढ़ाये ,कुछ दाढ़ी बढ़ाई । कंधे पर झोला लटकाया ,आंखों पर मोटा ऐनक चढ़ाया ....।बम्बईया फ़िल्मवालोंने यही वेश भूषा ्निर्धारित की है बेचारे हिन्दी लेखक की॥इसी ’गेट अप" में फ़िल्म चुपके चुपके में हीरो पर्दे पर आताहै और शुद्ध हिन्दी बोलता है तो हास्य पैदा होता है-तालियाँ बजती हैं। यानी हिन्दी के मज़ाक से भी कुछ न कुछ कमाया जा सकता है।इस वेशभूषा में प्रकाशक के द्वार जायेंगे तो अभीष्ट प्रभाव पड़ेगा।अन्यथा क्या समझेगा कि कैसे कैसे लोग आ गये है आजकल हिन्दी व्यंग्य लेखन में।अन्तर मात्र इतना है कि एक नवोदित प्रकाशक किसी स्थापित लेखक के द्वार पर खड़ा रहता है और एक नवोदित लेखक प्रकाशक के द्वार पर।इसी लिए कहते हैं कि लेखक और प्रकाशक का चोली-दामन का साथ होता है । अब यह न पूछियेगा कि ’चोली’ कौन है?

पाण्डुलिपि बगल मे दबाये निकल पड़ा।चलते चलते एक प्रकाशक नुमा व्यक्ति दिखाई पड़े। सज्जन दुकान खोल कर अभी बैठे ही थे ,सोचा इन्ही से पूछते हैं।प्रश्नवाचक चिह्न की तरह मैं खड़ा हो गया । मेरे कुछ बोलने के पूर्व ही वह सज्जन बोल उठे--" आगे बढ़ो न बाबा ! अभी धन्धे का टैम है"
" मैं भिखारी नहीं ,लेखक हूं"- मैने अपना परिचय दिया
"हिन्दी में लिखते हो ? व्यंग्य लिखते हो-तो एक ही बात है"
मेरा भी स्वाभिमान जगा। लेखक का तिरस्कार सह सकता हूँ व्यंग्य का अपमान सह सकता हूँ मगर हिन्दी का नहीं\हिन्दी का सेवक जो हूं
"आप जैसे प्रकाशक ही हिन्दी का बंटाधार किए बैठे हैं-नवोदित लेखकों को प्रोत्साहन नहीं देते।-मैने कहा
जाने क्या सोच कर वह उठ खड़े हुए । मुझसे भी उच्च स्वर आवृति में कहा-" गुस्सा करने को नी\ जास्ती मचमच करने को नी। देखता नहीं प्रकाशन से ही ’माल’ खड़ा किया है । मालदार प्रकाशक हूँ -मालपानी। अब मैने ’चिल्लर’ देना बन्द कर दिया है । अरे ! आगे बढ़ो नी बाबा"
"आप को कला की पहचान नहीं ,कलाकार की पहचान नहीं।मात्र ’माल’ की पहचान है । नाम है -मालपानी ,आंखो में पानी नहीं।अरे हम लेखक लिखते हैं आत्मा से..."-मैने भी गर्जना की
"आत्माराम एन्ड सन्स" अगली गली में रहते हैं--वहीं जाओ न बाबा !वहीं आईना दिखाओ ...म्हारो माथा खाओ नी..."-अरे रामू ! ज़रा इन भाई साहब को ....!’
इस से पहले कि रामू मुझे बाहर का रास्ता दिखाता मैने स्वयं ही वहाँ से चला जाना उचित समझा। हिन्दी का लेखक जो हूँ।

मैं आगे बढ़ा।देखा कि एक किताब की दुकान में एक हृष्ट पुष्ट सज्जन अपने 4-5 हट्टे कट्टे बलिष्ठ साथियों से घिरे हुए हैं।साहित्य पर चर्चा चल रही है ।हास-परिहास हो रहा है। हिन्दी लेखकों की टाँग खिंचाई हो रही है। हिन्दी साहित्य पर चिन्तन-मनन हो रहा है।इनका अपना दरबार है इनके अपने लेखक हैं इनका अपना गुट है इनके अपने आलोचक हैं इनके अपने समीक्षक हैं इनके अपने लठैत है ..वक़्त ज़रूरत हिन्दी सेवकों की सेवा भी कर सकते है जो इनके गुट में नहीं हैं  इनके अपने प्रकाशक हैं --कहने का मतलब यह कि इनका अपना खेमा है और अपनी खेमाबन्दी । हिन्दी वाले इसे ’विचार धारा के स्कूल’ कहते है ,हमें तो गिरोह लगता है बोतल तो कोका कोला-पेप्सी की लग रही है भीतर क्या भरा है कहा नहीं जा सकता। शरीर संरचना से तो समर्थ प्रकाशक लगता है। मैने अपनी पाण्डुलिपि दिखाई ,परिचय दिया...संग्रह की संक्षिप्त रूप-रेखा बताई ....
अचानक...
हा! हा!  हा! अठ्ठहास करते हुए उक्त सज्जन ने कहा-"अकेले आये हो? अयं। तेरा जोड़ीदार किधर है रे ?"
इस अचानक अठ्ठहास से मैं घबरा गया । अभी तो यह आदमी कुछ प्रकाशकनुमा दिख रहा था अब इसमें ’गब्बर सिंह’ कहां से आ गया?मैं समझ गया मेरा जोड़ीदार ’मिसरा जी’ की बात कर रहा है ।मेरे पिछले व्यंग्य संग्रह में मिश्रा जी ने प्रकाशन-विपणन-समीक्षा करवाने में नि:शुल्क व नि:स्वार्थ मदद की थी ।[पाठकगण कृपया ’शरणम श्रीमती जी -व्यंग्य संग्रह के व्यंग्य चलते चलते का सन्दर्भ लें]
" बड़ी जान है रे तेरी कलम में ..किस पेन से लिखता है अयं?"- खैनी ठोकते हुए उक्त सज्जन ने कहा -" पिछली बार प्रकाशकों पर व्यंग्य तुमने ही लिखा था? क्या सोच कर लिखा था कि सरदार [प्रकाशको का] बड़ा खुश होगा ---सरदार तुम्हें रायल्टी देगा...आ थू ! अरे वो कालिया ! कितना किताब छापते हैं रे एक साल में हम...?
"सरदार 100-200"
"बरोबर ! और यह 100-200 किताब हम यूँ ही नही छापते । सरकारी ठेका लेते है । जब ’गब्बर प्रकाशन" किताब छापता है तो दूर दूर तक प्रकाशक माथा पकड़ लेता है ....गब्बर का नाम सुन कर...आ थू"
मै थर थर काँपने लगा। कहाँ आ कर फँस गये पुस्तक छपाने के चक्कर में ।जान बची तो बहुत प्रकाशक मिलेंगे।जान नहीं तो लेखन क्या -प्रकाशन क्या?
"सरदार ! मैं चलता हूँ"-मैने पान्डुलिपि उठा ली।
"हा! हा! हा! -जो डर गया सो मर गया।हम तुम्हारा इन्साफ़ करेगा।तुम को साफ करेगा। बरोबर करेगा। अरे ! ओ साम्भा ! ज़रा उठा तो कलम और लगा तो निशाना...."- उसने आवाज़ दी...और पिच्च से मुँह की खैनी थूक दी [मेरे ऊपर नहीं] लगता है सबको एक ही छत के नीचे  बैठा रखा है ---लेखक---समीक्षक---आलोचक--प्रकाशक--पुस्तक विक्रेता...। सरकारी शब्दावली में इसे "एकल-खिड़की"-सुविधा कहते हैं

वहां से जो भागा तो सीधे घर आकर ही दम लिया ...जान बची लाखों पाये...लौट के बुद्धू घर को आये ..लड़ने का माद्दा छोड़ कर आये ...

लगता है पुस्तक प्रकाशन मेरे बस का नहीं।जिन प्रकाशकों को पत्र लिखा ,सबने विनम्रता से जवाब दिया -’...आप की रचना सर्वश्रेष्ठ है ,आशा है कि आप की ये रचना हिन्दी साहित्य को समृद्ध करेगी...आप से हिन्दी जगत को बहुत संभावनायें हैं... हमें खेद है कि आप की इस पुस्तक का प्रकाशन हम अभी नहीं कर सकते कारण कि हम अभी अन्य श्रेष्ठ रचनायें यथा-डब्बे में ख़ून...ख़ूनी खंज़र..नंगी लाश..जैसी कालजयी रचनायें और कृतियों के प्रकाशन में व्यस्त हैं आप अन्यथा न लेंगे-सखेद सधन्यवाद।
मैने पाण्डुलिपि तो भेजी नहीं थी ।मात्र शीर्षक देख कर ही रचना की श्रेष्ठता समझ लेने वाले प्रकाशक धन्यवाद के पात्र ही नहीं ,महापात्र होते हैं।कुछ-कुछ पाठक तो पुस्तक कवर पर प्रकाशित मनभावन लुभावन चित्र देख कर ही रचना की उष्णता का आकलन कर लेते हैं। ऐसे पाठक और प्रकाशक दोनो ही दुर्लभ प्राणी होते हैं
आशा बलवती राजन !सोचा एक बार पुन: प्रयास करना चाहिए।अगर भगवान ने मुझे बनाया है तो कहीं न कहीं मेरे प्रकाशक को भी बनाया होगा।आवश्यकता है तो मात्र ढूँढने की।पुन: अपनी पाण्डुलिपि लेकर निकल पड़ा।अपना व्यंग्य संग्रह लेकर एक प्रकाशक के पास गया। सर्वप्रथम तो उन्होने मुझे ऊपर से लेकर नीचे तक आद्योपान्त इस तरह देखा जैसे मैं कोई लेखक नहीं तिहाड़ जेल से छूट कर आया हूँ। फिर पूछा-"नाम?"
"अच्छा तो आप ही हैं जिसने "चलते चलते .." व्यंग्य में हम प्रकाशकों की खिल्ली उड़ाई थी? माफ़ करना बाबा ,हम चालू-चलन्त.लेखकों की कृतियाँ नहीं छापते।
 । उन्होने "चलन्त" शब्द का प्रयोग ऐसे किया जैसे मैं किसी नगर पालिका का "चलन्त" कूड़ादान लिए फिर रहा हूँ । उनके चलन्त शब्द में मुझे "घुमन्त" प्रकाशन का ’अन्त’ शब्द का बोध हुआ। हे भगवान ! इस प्रकाशक को थोड़ी से सदबुद्धि भी दे ।मैं बाहर निकल आया
किसी साहब ने बज़ा फ़र्माया है
मैं इसे शोहरत कहूँ या अपनी रुस्वाई कहूँ
मुझ से पहले उस गली में मेरे अफ़साने गए

xxx    xxxx     xxxx   -----
मैं अपनी औक़ात समझ गया ।नवोदित लेखकों को ये सम्पादक एवं प्रकाशक औकात ही बताते हैं। परन्तु यह धरा अभी प्रकाशकों से विहीन नहीं हुई है ।सभी तो ’गब्बर’ खानदान से ताल्लुक नहीं रखते होंगे ? एक प्रकाशक महोदय मिल ही गए।दुकान खोल कर बैठे ही थे।स्पष्ट नहीं हो पा रहा था कि वह पुस्तक विक्रेता हैं कि प्रकाशक।शकल से दोनो ही का भाव का बोध हो रहा था। मेरी ही तरह खद्दर का कुर्ता व पायजाम पहने ,ऊपर से जवाहर जैकेट के ऊपर कंधे पर एक उत्तरीय। शकल से किसी नगरपालिका स्कूल के मास्टर ज़्यादा और प्रकाशक कम लग रहे थे॥ जब से सुना है कि कुछ घाघ प्रकाशक लेखकों की टोपियाँ उछाल देते हैं ,तब से मैने टोपी पहनना छोड़ दिया। न रहेगी टोपी- न उछलेगी पगड़ी।
मैने अपना परिचय दिया ।अपना दर्द समझाया। अपनी विवशता बताई। जब मैने ’गब्बर सिंह’ वाली घटना बताई तो द्रवित हो गए।आँखों में आँसू भर लिए। हृदय में वात्सल्य भाव उमड़
आया। बोले-" होता है बेटा ! होता है ऐसा।कुछ कुछ प्रकाशक होते हैं ऐसे । वे सरकारी प्रकाशक होते हैं ठेकेदार प्रकाशक होते हैं। उनको हिन्दी के उत्थान पतन विकास से कुछ नहीं लेना देना। वो हमारे जैसे नहीं होते कि हिन्दी और हिन्दी के उत्थान के लिए सारा जीवन होम कर दिया ,अर्पित कर दिया।अपनी जमा-पूँजी प्रेस में लगा दी और जवानी भी।हमें हिन्दी की सेवा करनी थी एक सच्चे सेवक की तरह...। चिन्ता नहीं करो बेटा ! देर से आये हो मगर दुरुस्त आये सही जगह आए ।समझो कि तुम्हारी तलाश खत्म ...तुम्हारी चिन्ता अब मेरी चिन्ता हो गई...नो लुक बियान्ड फ़र्दर।एक काम करो...।अपनी पाणडुलिपि छोड़ जाओ..पढ़ लूंगा...।एक सप्ताह बाद आ जाना ...बता दूँगा।

मैं उनके इस वात्सल्य प्रेम से अभिभूत हो गया ।मन श्रद्धा से भाव विभोर हो उठा\ सोचने लगा -कितना भला प्रकाशक है \विचारों से यह ’भारतेन्दु’ काल का लग रहा है । ऐसे ही प्रकाशकों के दम से तो यह हिन्दी अभी टिकी हुई है वरना ’कार्पोरेट प्रकाशक तो कब का.....

मैं  धन्यवाद कह  बाहर निकल आया।
xxxxxxxxxxxxxxxxxxxx
एक सप्ताह बाद
"आओ बेटा ! आओ ! बैठो।मैने पाण्डुलिपि पढ़ी।तुम अपने हो।तुम्हारा कष्ट देखा नहीं जा रहा है। बुरा न मानना।  व्यंग्य श्यंग लिखना छोड़ दो।इस में कुछ नहीं रखा है।अमूमन व्यंग्य-श्य़ंग्य तो कोई पढ़ता नहीं ।व्यंग्य से ज़माने को नहीं बदल पाओगे।आईना दिखाने से ज़माना नहीं बदलता ,सिर्फ़ हँसता है। पिछली बार छपवाया था तो क्या हुआ? बिकी? एक भी बिकी? गोदामों में सड़ रही है।धूप दिखाने का खर्चा सो अलग।अरे भइया ,मेरी मानो तो "लालू-चालीसा’ लिखो.."मोदी महात्म" लिखो.."राहुल सप्तसती"- लिखो...कुंजी लिखो..गेस पेपर लिखो श्योर शाट पेपर लिखो..परीक्षा पास करने के 101 तरीके लिखो...अच्छे अंक कैसे प्राप्त करे लिखो...अभिनन्दन पत्र लिखो..स्वागत गान लिखो..बड़ी माँग है इनकी आजकल । लिखने वाला मालामाल ्छापने वाला मालपानी..गंगा बह रही है हाथ धो लो..वरना व्यंग्य लिखते रहोगे तो लँगोटी भी उतर जायेगी..। भई .अगर तुम हमारे प्रकाशन के लिए लिखो तो कुछ हम भी माल-टाल बना लें। 50%-50% / वरना तो यह व्यंग्य-श्य़ंग्य तो निठ्ठलों के चोचले होते है --न लीपने के काम का..न पाथने के काम का।बेटा ! तू जानता नहीं ,’--लिखने से ज़्यादा छाप कर बेंचने में पापड़ बेलने पड़ते हैं..सरकारी कार्यालयों के ’सुविधा-शुल्क’ लाइब्रेरी में ठेलने का खर्च अलग ,कागज-स्याही का भी खर्चा नहीं निकलता..फिर पुस्तक मेले में खोमचे लगा लगा कर बेचना पड़ता है।
-" तो क्या व्यंग्य पेड़ पर उगते हैं? आप क्या जानो कि व्यंग्य लिखने में कितना ’रिस्क’ होता है कितने पापड़ बेलने पड़ते है कि बेचारा लेखक अन्त मे अचार-पापड़ बेचने लग जाता है"-मैने अपना दिव्य-ज्ञान बघारा ।
स्पष्ट था मैने अपनी पाण्डुलिपि उठाई और बाहर आ गया।

xxx                            xxxxxxxxxxxx                             xxxxxxxxxxx

मन विद्रोह कर उठा।जो भी हो-अब तो यह संग्रह छपवा कर ही रहना है ।यही संघर्ष है ,यही साधना है यही तपस्या है। यही हिन्दी सेवा है।
एक प्रकाशक के कार्यालय गया ।बड़ा नाम सुना था।ऊँची दुकान थी पकवान देखा नहीं था। सोचा पकवान भी देख लूं।अभी उनके कक्ष में घुसा ही था कि अपने चश्मे के ऊपर से घूरते हुए देखा और कहा-"अरे बाबा ! तू फिर इधर आ गया। पिछ्ली बार बोला न तेरे कू .बोला न, इधर कू जास्ती आने का नी। तू ही  ’चलते चलते ....’ लिखा था न ? तो फिर रुक क्यूँ गया? आगे चलो न बाबा। हम तुम को बोला न ,हम व्यंग्य-श्यंग्य नही ्छापता । तू जास्ती इधर को आयेगा तो पुलिस वाला भी इधर कू आयेगा...माफ़ कर न मेरे बाप....।
बाद मेम ज्ञात हुआ कि उक्त प्रकाशक महोदय सचित्र रंगीन कहानियाँ , रंगीली जवानी..रंगीन रातें वयस्कों के लिए छापते हैं ।मुद्रक प्रकाशक का पता नहीं छापते ,गुप्त रखते हैं। हिन्दी की गुप्त सेवा करते हैं। इनकी छपी किताबें शहर की हर गली-खोली -नुक्कड़ पर गुप्त रूप से मिलती हैं जिसे शहर के लौण्डे छुप छुपा कर पढ़ते हैं । बड़े बड़े साहब लोग रात को बेडरूम में अकेले पढ़ते हैं। पैसे वाले प्रकाशक है बस पुलिस से डरते हैं।
 मन भिन्ना गया।
थक हार कर एक मा‘ल में घुस गया।किसी प्रकाशक का था। प्रवेश हाल में एक सुन्दर से रिशेप्स्निस्ट ।चेहरे पर सदाबहारी प्लास्टिक मुस्कान.एक ही जुमला-व्हाट आइ कैन हेल्प यू ,सर !? भीतर एक बड़ा सा चमकता हुआ आफ़िस ।मार्ब॒ल की फ़्लोर। वातानुकूलित कक्ष ।कक्ष में एक बड़ा टेबुल ,बगल में एक बड़ा सोफ़ा।सोफ़ा के बगल में एक साइड टेबुल ..और उस पर कुछ पत्र-पत्रिकाये। टेबुल के उस तरफ़ एक घूर्णनदार कुर्सी। कुर्सी पर बैठा एक नवयुवक । सूट पहने टाई लगाये।आँखो पर एक बड़ा सा काला गागल्स चढ़ाए।किसी बड़ी कम्पनी का मैनेज़र लग रहा था । मैं संकोच में पड़ गया ,लगता है ग़लत जगह आ गया हूँ\यह सेन्ट्रल माल या स्पेन्सरमार्ट तो नही? यहाँ किताबें कहाँ छपती होंगी? बाहर निकलने वाला ही था कि मैनेज़र ने पूछ लिया
-" यस ! प्लीज़ ! मै आप की क्या सेवा कर सकता हूँ?"
-’ नहीं नहीं कुछ नहीं बस यूँ ही...."
-"प्लीज़ ! आप बैठें’-मैंउसके आग्रह पर सोफ़े पर बैठ गया । इसी बीच एक सुन्दर से कन्या बड़े ही करीने से एक ट्रे में कुछ पेय पदार्थ ले आई। एक हल्की सी मुस्कान बिखेरते हुए बोली-"प्लीज़"।
 बिहारी होते तो एक दोहा लिख देते मैं था तो मैं संकोच में पड़ गया।अब उठ कर भाग भी नहीं सकता। पेय पीने के बाद कुछ तनाव कम हुआ।
-" जी बतायें ! मैं आप की क्या सेवा कर सकता हूँ "- उक्त व्यक्ति ने पुन: पूछा
मैने अपनी सारी बात बताई । अपनी व्यथा समझाई ।कथा सुनाई। मैनेज़र ने कहा -" नो प्रोब्लेम" काम हो जायेगा ।आप की किताब छप जायेगी। बस आप पैकेज़ सलेक्ट कर लें । मिनी ! सर को वह बुकलेट दे दो"
मैने ’पैकेज़’ को ’पैकेट’ समझा । हिन्दी का लेखक हूँ सम्भवत: ’रायल्टी’ का पैकेट होगा !मिनी बिटिया मुझे ’बुकलेट’ थमा गई
पढ़ा तो ’लेट’[स्वर्गीय] होते होते बचा।वह ्पैकेज़-बुकलेट’ ्क्या था ..समझिए कि ’पाकेट-कर" [पाकेट मार नहीं] था। सुधी पाठकों की ज्ञान वर्धनार्थ संक्षेप में प्रकाश डाल रहा हूँ। मैं तो नसानी तुम ना नसैहों।
सिल्वर पैक योजना : यानी मात्र पुस्तक छापने के 20,000/- रूपये।इस पैकेज़ में मात्र 500 प्रतियाँ ही छापी जायेंगी। 11-लेखकीय प्रतियाँ मुफ़्त।पुस्तक यदि ’हार्ड बाऊण्ड’ में छपवानी है तो 2000 रुपये अतिरिक्त प्रभार लिया जायेगा । सभी टैक्स सहित। दो पुस्तके एक साथ छपवाने में तीसरी पुस्तक में 50% की छूट ।यह पैकेज़ उक्त पैकेज का विस्तार स्वरूप है ।फ़िक्स्ड रेट। रेट निगोशियेबुल नहीं। भुगतान चेक के माध्यम से स्वीकार्य।पैन कार्ड की कापी लगाना अनिवार्य।

सिल्वर पैक + योजना :-वस्तुत यह योजना सिल्वर पैक योजना का विस्तार रूप है। इसमे मनमाफ़िक समीक्षा कराने का अतिरिक्त शुल्क।स्थानीय  दो पत्रों में समीक्षा लिखवाने का शुल्क अलग। राज्यस्तरीय अखबारों में समीक्षा प्रकाशित करवाने का शुल्क अलग।टटपुँजिए समीक्षकों से समीक्षा करवाने पर शुल्क में छूट देने पर विचार किया जा सकता है।कृपया मोल तोल कर इस संस्था को शर्मिन्दा न करें।

विशेष योजना : पुस्तक को विवाद में लाने हेतु अतिरिक्त चार्ज़ लगेगा। प्रतियाँ जलवाने हेतु पेट्रोल किरासन का खर्च 500/- अतिरिक्त। पुस्तक की प्रतियां आप के मद में जायेंगी।भीड़ जुटाने का खर्च अलग प्रति व्यक्ति 100/- के हिसाब से चार्ज़ किया जायेगा ।इस में नाश्ता-पानी का खर्च शामिल नहीं है । यह योजना नवोदित लेखकों के लिए विशेष लाभकारी व शुभकारी है

गोल्डेन पैक योजना :-इस योजना में लेखक यदि सम्मान भी करवाना चाहता है तो उसका भी खर्च शामिल है।ढाबे में सम्मान कराने का दर अलग।यह पैकेज़ ग्रामीण और कस्बई लेखकों के लिए उचित है।मान सम्मान में धन नहीं देखते।सम्मान है तो धन है नहीं तो टन-टना-टन है।प्रतिष्ठित लेखकों के लिए अन्य योजना। पाँच सितारा होटल में 5-लाख रुपये। लेखक के 11-अतिथि मुफ़्त।

डायमंड पैक योजना :- लेखकगण कृपया इसे डायमंड बुक्स वालों की योजना न समझें ।यह हमारे प्रकाशन की विशेष योजना है जो विशेष रुप से अनिवासी भारतीय [N R I ]  लेखकों के लिए बनाई गई है। कृपया देसी और विशेषत: कस्बई लेखक इस योजना के पढ़ने में अपना समय व्यर्थ न करें।इस योजना में प्रकाशन का भुगतान नगद और "डालर" में लिया जायेगा।अनिवासी भारतीय लेखक प्रकाशनोपरान्त कब भारत छोड़ वापस लौट जाय अत: सुरक्षा हेतु ’अग्रिम-भुगतान’ ही लिया जायेगा
इस योजना के अन्तर्गत पुस्तक का प्रकाशन ,पंच सितारा होटल में किसी विशिष्ट व्यक्ति के कर कमलों से विमोचन एवं लेखक के 11-अतिथियों की सेवा मुफ़्त।इस योजना में अतिथियों के आने जाने और ठहरने का खर्च शामिल नहीं है -लेखक को स्वयं वहन करना पड़ेगा। इस योजना का मूल्य मात्र 10,000 डालर......

प्रकाशन खर्च पढ़ कर मैं मूर्छित  हो गया ।वह तो भला हो उस सुन्दर कन्या का जिसने मेरे मुंह पर पानी के छींटे डाल कर किसी तरह मुझे चेतनावस्था में ले आई ।फिर पूछा-
"क्या हुआ अंकल !"
"कुछ नहीं बेटी! रात नींद ठीक से नहीं आई थी"
’यस सर ! मैं आप की क्या सेवा कर सकते हैं व्हाट आई कैन हेल्प यू सर! आप चाहें तो 10,000 डालर का भुगतान ’आप अपने क्रेडिट कार्ड से भी कर सकते हैं।" -मैनेज़रनुमा प्रकाशक ने समझाया
"आप के पास ’क्रेडिट कार्ड’ है अंकल ?" -कन्या ने पूछा-" किस बैंक का है?"
"नहीं बेटा ! मेरे ऊपर ’क्रेडिट’[उधार] तो है, कार्ड नहीं है"-मैने विशुद्ध हिन्दी लेखक की तरह अपनी दयनीयता प्रगट की
"आप ने ’रायल्टी’ के बारे में कुछ नहीं लिखा है= मैने मैनेज़र से जिज्ञासावश पूछ लिया
"सर ! हम रायल्टी नहीं देते । बस किताब छाप कर लेखकों का उत्साहवर्धन करते रहते हैं। हिन्दी की सेवा करते रहते हैं"
"ठीक ही कहा । पिछली बार भी एक प्रकाशक ने मेरी पुस्तक छाप तो दी मगर रायल्टी नहीं दी"
"देता कहाँ से? बिकती तो देता न......"--पीछे से एक आवाज़ आई। एक बूढ़ा आदमी ऐनक चढ़ाए -मुनीम- रज़िस्टर में कुछ हिसाब किताब कर रहा था -" तुम्हारे जैसे लेखकों की किताब छाप छाप कर इस हालत में पहुँचा हूँ कि मुनीमगीरी कर रहा हूं...."

मैने उस व्यक्ति को पहचानने की एक समर्थ कोशिश की--" अरे! श्रीमान आप? आप यहां?...
वह मेरे पहले प्रकाशक थे।
स्पष्ट है ,मैने अपनी पाण्डुलिपि उठा ली और वापस चला आया ।
अस्तु।

-आनन्द.पाठक-

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें