गुरुवार, 29 नवंबर 2018

व्यंग्य 50: रिटायरोपरान्त प्रथम दिवसे--

रिटायरोपरान्त प्रथम दिवसे---

मित्रो !
31-जुलाई 2015 को भारत संचार निगम लिमिटेड की सेवा से ्मुख्य अभियन्ता सिविल पद से सेवा निवॄत्त हो गया
रिटायर के बाद यह पहली रचना आप की सेवा में प्रस्तुत कर रहा हूँ .............आप सब का आशीर्वाद चाहूँगा -----आनन्द

[नोट : जब किसी देश का इतिहास लिखा जाता है तो "ईसा-पूर्व’[B C] या ईसा के बाद [A D] का लिखा जाता है और जब किसी शरीफ़ आदमी का इतिहास लिखते है तो ’शादी के पूर्व" या "शादी के बाद" का लिखते हैं उसी प्रकार जब कभी भविष्य में ’आनन्द पाठक ’ का इतिहास लिखा जायेगा तो ’रिटायर के पूर्व" या "रिटायर के बाद’ का लिखा जायेगा....इतिहासकारों की सुविधा के लिए लिख दिया ......]
रिटायर्मेन्टोपरान्त प्रथम दिवसे...अर्थात " सेवानिवॄत्योपरान्त.प्रथम दिवसे... [एक व्यंग्य]

[नोट :सर ! नाक-भौं मत सिकोड़िए शीर्षक के प्रथम भाग वाली हिन्दी से मैने सेवा काल के 35 साल में सारा कार्यालयीय काम काज निपटा दिया और शीर्षक के उत्तर भाग वाली हिन्दी से 35 साल तक "हिन्दी-पखवाड़ा" निपटा दिया जब हम हिन्दी के प्रति ’शुद्ध सात्विक’ हो जाते हैं]

बड़ी ख़ुशी की बात हुआ ’आनन्द’ ’रिटायर’
ढूँढ रहें हैं बॉस, करें अब किसको ’फ़ायर’

अर्थात बॉस का बस एक ही काम रहता है ’फ़ायर’ करना अत: वो मेरे ’रिटायर’ से दुखी है
31,जुलाई ।हो सकता है आप के लिए एक सामान्य दिन पर मेरे लिए ऎतिहासिक दिन । इस दिन 2-खगोलीय घटना हुई -जब ग्रहों ने मिल कर तय किया कि अब आनन्द पाठक को इस धरती पर अवतार ले लेना चाहिए सो 1955 में मैं अवतरित हो गया और दूसरी घटना तो नहीं दुर्घटना कहिए कि 14-जून 1978 को मेरी शादी हो गई । श्रीमती जी इसे दुर्घटना नहीं मानती ।कहती है -अगर यह दुर्घटना है तो सातों जनम ये दुर्घटना होती रहें। वो खुश है -उनकी इस खुशी का राज़ मुझे 37 साल बाद पता चला।आप को भी पता चल जायेगा उनकी खुशी का राज़-बस यह कथा पढ़ते रहिए। ये दोनो घटनायें पौराणिक कथाओं में अब तक नहीं आ सकी संभव है कि 4-5 हज़ार साल बाद शायद आ जाय।
उसके बाद 2-घटनायें और हुईं -एक तो 17 मार्च 1980 को सरकारी सेवा में आया और 31-जुलाई 2015 को रिटायर भी हो गया। ये दोनो घटनायें सर्विस बुक में दर्ज़ है। ’ग़ालिब’ ने इन्हीं दोनों घटनाओं का ज़िक़्र अपने एक शे’र में किया भी है ।

ज़िन्दगी में दो ही घड़ियाँ दिल पे गुज़री है मेरे
इक मेरे "Join से पहले, इक मेरे ’Retire के बाद

बाद में उन्होने 2- मिसरा और भी लिख दिया मेरी शान में

Retirement का एक दिन मुय्ययन है
नींद क्यूं रात भर नहीं आती

[मुय्ययन है = निश्चित है ]
नींद तो खूब आई ,ख्वाब भी आये मगर ख़ाब के ता’बीर [स्वप्न फल] न आये
खैर....
अपनी सेवा निवृति से पूर्व ,औरों की ’सेवा निवृति’समारोह में खूब बढ़ चढ़ कर भाग लिया और उनके आईने में अपना चेहरा देखा --उनके अधीनस्थ लोगो ने उनकी शान में क्या क्या न क़सीदे पढ़े. ".श्शाब , क्या भला आदमी था ..सबका भला किया...श्शाब से अपने कर्मचारियों का कष्ट देखा नहीं जाता था श्शाब से ..हमेशा सहायता करने को तत्पर रहते थे..सरकार ऐसे भले आदमियों को क्यों रिटायर कर देती है ?" कुछ ने तो आँखों में आंसू भर भर कर कहे..".साहब ने इस विभाग को कैसे ऊपर उठाया...दिन रात मेहनत की ..सफ़ाई अभियान दिवस को झाड़ू भी लगाया .दिन को दिन नहीं समझा रात को रात नहीं .... अफ़सोस कि सरकार ने साहब की प्रतिभा को नहीं समझा..हाथ में साहब के झाड़ू को नहीं देखा वरना आज साहब को सेवा विस्तार मिल गया होता ..."

एक सज्जन ने तो अपना उदगार कुछ दार्शनिक शैली में यूँ प्रगट किया...’ये तो प्रकृति का नियम है जो आया है सो जायेगा ...उसे एक दिन जाना होगा .सभी गये एक दिन,....... इस रास्ते से .लौट कर कोई नहीं आया .....साहब भी नहीं आयेगा ...रिटायर के बाद कौन आता है लौट कर..आज साहब जा रहे हैं ..इस नियम से कौन अछूता रहा -जो आया सो जायेगा साधु-सन्त-फ़क़ीर.. " -पता नहीं यह आदमी क़सीदा पढ़ रहा है या मर्सिया । अपना वक्तव्य जारी रखते हुआ आगे कहा --"...शास्त्रो मे लिखा है ..."चल उड़ जा रे पंछी...कि अब यह देश हुआ वीराना.....आज साहब का पंछी उड़ा ...कल हमारा उड़ेगा..परसों आप का उड़ेगा ..सदा रहा है इस विभाग में किस का आब-ओ-दाना,.......साहब का योगदान इस आफ़िस की दीवारें कभी न भूल पायेंगी..ये कुर्सी..ये मेज़..ये.फ़ाईलें..और इस कम्पाउण्ड का वह आँवला वाला पेड़.....साहब जब तक यहाँ रहे अशान्त रहे ..कभी अपना ट्रान्सफ़र करवाना.कभी अपना ट्रान्सफ़र रुकवाना..कभी प्रमोशन करवाना ...नेताओं के बैग ढोना...चैन नही रहा शान्ति नहीं रही ..मैं भगवान से प्रार्थना करूँगा कि साहब के मन को ’शान्ति’ प्रदान करें। विरोधी, हमेशा साहब पर झूठा आरोप लगाते रहे ...कि साहब ’मलाईदार’ पोस्ट पे है... झूठ बिलकुल झूठ....साहब ने कभी मलाईदार पोस्ट की इच्छा नहीं की...आप जहाँ रहे आप ने उसी पद को मलाईदार कर दिया
.....और दुख ? दुख इस बात का कि साहब हम लोगों को छोड़ कर जा रहें है ...आप जहां भी रहें खुश रहे इन्ही शुभ कामनाओं के साथ...
कहते हैं उक्त सज्जन आफ़िस में काम तो कुछ करते नहीं थे बस हर रोज़ 108 बार राम राम लिखते थे और बाक़ी समय कर्मचारियों को जीवन -दर्शन समझाते थे।
हर अधीनस्थ कर्मचारी आ आकर अपना उदगार प्रगट कर जाता था ...अभी सी0आर0 लिखवाना बाक़ी था...कुछ कर्मचारी मुँह पर रुमाल रख कर --आँसू पोछ रहे थे या अन्दर ही अन्दर मुस्करा रहे थे स्पष्ट न था और न ही यह स्पष्ट था कि ये आंसू ’ग्लीसरीन’ वाले थे या...।
यह हमारी भारतीय संस्कॄति है कि ’जाने वाले बन्दे’ की बुराई नहीं करते ....चाहे वो विभाग से जाये या दुनिया से।
वक्ताओं के इस ’यशोगान’ से साहब का हृदय कितना प्रफ़्फ़ुलित हुआ कहा नहीं जा सकता ..चेहरे पर वही अफ़सरी वाली ’स्थायी’ भाव ......मगर "कंस’ को [स्वर्ग या नर्क में ] एक बार अफ़सोस ज़रूर हुआ होगा -हाय ! उसने भी सरकारी नौकरी क्यों न की. .उसका भी ऐसे ही यशोगान होता..... देवकी के पुत्रों वाला कलंक तो मिट जाता...
-’यशोगान’ सुनकर हमें भी कई बार ऐसा लगा कि हाय हम भी इसी ’आफ़िसर’ के साथ क्यों न रिटायर हो गए
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मेरे रिटायर्मेंट पर दुखी कोई न था ..सब खुश ...विदाई देने वाला भी खुश...विदाई लेने वाला भी खुश और श्रीमती जी खुश हुई सो अलग । विदाई देने वाला तो इस लिए खुश था कि निजात मिली एक ’खडूस’ " ठुल्ला "और ’खब्ती’ साहब से...हम खुश इस लिए कि "छुटकारा’ मिला इन ’निठ्ठल्लों’ और ’कामचोरों’ से और श्रीमती जी खुश इस लिए कि एक ’उच्च कोटि का शिक्षित व प्रशिक्षित "बन्दा मिला घर का मुफ़्त में ’झाडू-पोंचा’ लगाने को--आफ़िस में बहुत काम है ’-कह कर मियाँ अब भाग नहीं पायेंगे। [37 साल बाद श्रीमती जी की खुशी का यही राज़ था ,आज मालूम हुआ] अब तो आप समझ गयें होगे कि श्रीमती जी क्यों सातों जनम में मुझे ही मांगती है ...मुफ़्त में झाड़ू-पोंचा .....।
अरे! मेरे लिए तो ज़िन्दगी तटस्थ ही रही यानी ’सुख-दुख वा समे कॄत्वा...लाभालाभौजयाजयौ...."
आफिस का एक बन्दा तो बस इस लिए दुखी था कि लन्च में अब वो किसके डी0ओ0 लेटर पर रख कर ’झाल-मूढ़ी’ खायेगा ...। बाद में मालूम हुआ कि वह बन्दा मेरे DO letter का जवाब तो नही देता था [शायद सम्मान के कारण] मगर उस पर ’झाल-मूढ़ी’ रख कर लंच ज़रूर करता था।
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आज रिटायर्मेंट के बाद का पहला दिन -रिटायरोपरान्त प्रथम दिवसे........
1-अगस्त

सूरज आज भी निकला ..हवायें आज भी चली ...फूल आज भी खिले...चिड़ियां आज भी चहचहाईं ..समाचार पत्र आज भी पढ़ा....दाढ़ी आज भी बनाई... नहा धो कर आज भी तैयार हो गया...मगर विभाग की ’गाड़ी’ आज न आई।
किसका इन्तज़ार.?
..35 साल से ऊपर हो गये इस विभाग में सेवा देते देते...जवानी भी यहीं निकली ..शादी भी यहीं हुई... बच्चे भी हुए ..और आज बुढ़ापे की दहलीज़ पर आ गये..सेवा करते करते ..घुसे तो थे भारत सरकार की डाक-तार सेवा में...निकले तो ’संचार निगम’ की सेवा से...कई लोग साथ चले थे .साथ साथ काम किये ’ कैसे कैसे बॉस मिले..कुछ अच्छे थे ..कुछ बहुत अच्छे थे....कुछ अंग्रेज़ों के ज़माने के जेलर टाईप थे ..अहा हा ....कैसे कैसे फटकार लगाते थे ..डांट लगाते थे..

वो कब बाज़ आये थे अपनी सितम से
हमी थक गये थे मनाते मनाते

मगर गिला किसी का नहीं ..शिकायत किसी से नहीं ये सब तो सेवा की अलिखित शर्तों में था ....

हम सब लोग कैसे कैसे बॉस की डाँट के चटखारे लेते थे..कैसे अस्थाना की टांग खीचतें थे ....अपुन का भी क्या पोलिटिक्स भिड़ाते थे बीडू.....सक्सेना ने ’बॉस ’ के लेटर का वो जवाब दिया कि उन से कुछ करते न बना.. ..शर्मा ने बॉस के लेटर का क्या ’पुंगी’ बना कर फ़ेंका कि साहब की ’चाँद’ पर ही ’लैण्ड’ कर गया ..कालान्तर में ऐसी ही प्रतिभा मंगल-ग्रह पर यान उतारती है ...क्या.दिन थे वो भी .कुछ बॉस तो अपने को ’मुगलिया सल्तनत का बादशाह समझते थे .कुछ सूफ़ी .तो कुछ ’गब्बर .। गब्बर से तुम्हे कोई नहीं बचा सकता है अगर कोई बचा सकता तो बस एक आदमी..और वो है ’गब्बर’...ख़ुद गब्बर
अगर कोई बॉस इस श्रेणी में आते हों या अपने को गब्बर समझते हों तो उन से क्षमा याचना सहित -

’गब्बर’ के नाम पर तुम क्यों चौंक कर बैठ गए?
बात तुम्हारी नहीं ,बात थी ज़माने की

.धीरे धीरे सब रिटायर होते गये...बॉस भी ..बाबू भी... बड़े बाबू भी और अब हम भी .अब.सब झोला लिए सब्ज़ी खरीदने निकल पड़े. गब्बर भी ,सूफ़ी मौला भी ..और वो ’बादशाह’ भी...एक रिटायर बॉस तो 1-घंटे से सब्ज़ी वाले का ’एक्सप्लनेशन काल’ कर रहे है-आलू इतना मँहगा क्यों है..?.प्याज का रेट इतना ऊंचा क्यों है? क्यों न तुम्हे सी0सी0एस0 कन्डक्ट रूल 14-16 मे चार्ज़ किया जाये"
सब्ज़ी वाला मुंह बाये पूछता है -" ये कौन सी सब्ज़ी है स्साब ?
कि बगल में खड़ा एक ग्राहक शे’र पढ़ा और चलता बना

दिल खुश हुआ आप को ’रिटायर" देख कर
मेरी तरह ही आप की हालत खराब है

कौन था?-मैने पूछा
"था स्साला ,अपना ही स्टाफ़ था,बड़ा शायर बना फिरता है भड़ास निकाल रहा था"

[क्षेपक- ’हरि अनन्त ,हरि कथा अनन्ता ’ की तरह बॉस की भी कथायें अनन्त हैं। कालान्तर में "बास-कथा-चरित्रम"- पर कुछ प्रकाश डालूँगा--घबराईए नहीं-आप की बात नहीं करूंगा]
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और अफ़सरी ? हमारी अफ़सरी क्या ! हमारे अग्रज कवि आ0 बुद्धिनाथ मिश्र जी ने इसी अफ़सरी पर एक कविता लिखी है चलिए 2-4 लाईन आप को भी सुना देते है..

पीर बवर्ची भिश्ती खर हैं ,कहने को हम भी अफ़सर हैं
सौ सौ प्रश्नों की बौछारें ,एक अकेले हम उत्तर हैं
इसके आगे, उसके आगे ,दफ़्तर में जिस तिस के आगे
कदमताल करते रहने को आदेशित हैं हमी अभागे
तन कर खड़ा नहीं हो पाये सजदे में कट गई उमर है
पीर बवर्ची भिश्ती खर हैं कहने को हम भी अफ़सर हैं

जब भारत सरकार की दूर संचार सेवा बदल कर ’संचार निगम’ की सेवा हो गई तो नदी धीरे धीरे सूखने लगी .कुछ लोग इस पानी के जहाज से उड़-उड़ कर जाने लगे ..कि देश पुकार रहा है....भारत सरकार पुकार रही है के अन्दाज़ में ..फिर सूरदास जी के भजन गाते हुए वापस भी आने लगे कि

मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै
जैसे उड़ जहाज का पंक्षी ,फिर जहाज पे आवै
मेरौ मन अनत कहाँ सुख पावै

अर्थात बी0एस0एन0एल0 से ज़्यादा सुख और कहाँ मिलेगा !
.हरा भरा पेड़ ठूँठ होने लगा .जंगल में आग लग गई....बहुत से.पंक्षियों ने अपने ठिकाने बदल लिए --कुछ -डेपुटेशन पर चले गये...कुछ ने वी0आर0एस0 ले लिया ... बहुत से पंक्षी उड़ चले... इस ’पेड़’ को छोड़ कर....कुछ तो किसी के इशारे और सहारे कहीं किनारे लग गये जो मारे और बिचारे थे वो यहीं रह गये..अन्त तक एक हंस रह गया .एक बार पेड़ ने हंस से पूछा भी -" क्यों नहीं उड़े तुम..क्यों नहीं छोड़ा यह विभाग ...क्यों नहीं गए तुम ’डेपुटेशन’...क्यों यहीं रह गये ..?

आग लगी वन-खण्ड में ,दाझै चन्दन बंस
म्हैं तो दाझा पंख बिन ,तू क्यौं दाझै हंस ?

यानी -मैं तो दाक्षा पंख बिन"- मेरे पास अभी कोई सम्यक संसाधन तो नहीं है .मैं तो ’झुलस’ ही रहा हूं पर ,तू क्यों ’झुलस’ रहा है .?
हंस क्या बोलता ? बस इतना ही कह कर चुप हो गया..

पान मरोड़िया ,फल भख्या ,बैठा एकल डाल
तू दाझै ,मै उड़ चलूँ ! जीणॊं कितने साल !!

[अर्थात रिटायर्मेंट में अब दिन ही कितने बाक़ी रह गये कि मैं.....]

[ईमान की तो यह है हम जैसे ’ठलुए" हंस को लेने के लिए कोई राज़ी न था]
आज जब हम और हमारे बहुत से साथी रिटायर हो चले हैं ,निदा फ़ाज़ली साहब के एक शे’र -[क्षमा याचना सहित कुछ तबादिल के साथ]के माध्यम से यही कहूँगा

गुज़रो जो बाग से तो दुआ माँगते चलो
जिसमें खिले थे फूल वो डाली हरी रहे
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....आँखे बन्द किए सोच रहा था...खोया था....अतीत की बातें एक एक कर चल चित्र की तरह आगे बढ़ रही थी ..क्या क्या सपने देखे.. क्या खोया..क्या पाया...मिला.. बहुत कुछ मिला.सहायक अधिशासी अभियन्ता से चल कर चीफ़ इन्जीनियर तक पहुँचा - किसी से .कोई गिला नहीं ..कोई शिकवा नहीं ...कोई शिकायत नहीं....सपनों का कहीं अन्त होता है क्या...?
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"ऎ भूतपूर्व चीफ़ इन्जीनियर साहब ! "- किसी ने कर्कश स्वर में आवाज़ लगाई । आज पहली बार किसी ने मुझे ’भूतपूर्व’ कहा..सपने ठिठक गये... मैं चौंक गया। देखा श्रीमती जी सामने खड़ी हैं
"अब आप साहब नहीं रहे। उठिए ...ये बाल्टी पकडिये और ’पोंछा’ लगाईये ..मुझे अभी ’ब्युटी पार्लर’ जाना है "
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मित्रो ! अन्त में ,अपने एक शे’र के साथ इस मज़्मून का इख़्तिमाम करता हूँ

जब कभी फ़ुरसत मिले,’आनन’ से मिलना
मिल जो लोगे ,बारहा मिलते रहोगे

[बारहा = बार-बार]
अस्तु

मंगलवार, 27 नवंबर 2018

व्यंग्य 51 : बोल जमूरे !

एक लघु व्यथा - : बोल जमूरे !

-’बोल ज़मूरे !’
-’हाँ उस्ताद’
’-’जो पूछूँगा ,बतलाएगा ?”
-’बतलाउँगा”-
-जो गाऊँगा वो गाएगा ?
-गाऊँगा’
-मिसरा’ पर गिरह लगाएगा
लगाऊँगा
-तो लगा इस ’मिसरे ’पर गिरह

भाईजान साहिबान कदरदान  मेहरबान ,अब आप दिल थाम कर बैठिए।  मेरा ज़मूरा एक मिसरा पर ’गिरह’ लगायेगा
-तो हाँ ज़मूरे ! तो लगा इस मिसरा पर गिरह--’आप आए बहार आई"
-किसी की पाकेट मारआई- जमूरे ने गिरह बांधा
भीड़ ने तालियाँ बजाई---जमूरे ने सर झुकाया

-जमूरे ! अब दूसरे मिसरे पर गिरह लगा
पत्थर मारा ,कुत्ता जागा----उस्ताद ने मिसरा दिया
सोया साधू ,उठ कर भागा----जमूरे ने गिरह लगाया

भीड़ ने तालियाँ बजाई ,वाह --वाह-- मुबारक हो-- मुबारक हो  ,बधाई--बधाई
एक ने उचारा--क्या क़ाफ़िया मिलाया है
दूसरे ने कहा-- क्या बह्र मिलाया है--मीर का बह्र है
तीसरे ने कहा---ग़ालिब याद आ गए--लाजवाब ,--भूतो न भविष्यत
चौथे ने अपनी "बायें"  पाकेट से एक कागज निकाला और ज़मूरे का नाम पूछा और नाम लिख कर जमूरे को थमा दिया। जमूरे ने पढ़ा---"अखिल भारतीय फ़िलबदीह मुशायरा सम्मान--अमुक को दिया जाता है"
जमूरा सब को झुक झुक कर आदाब बजाया -,"जर्रा नवाज़ी आप की वरना मैं क्या --एक अदना सा "--जमूरा और झुक जाता है
अगर उस चौथे व्यक्ति ने अपने  ’दाहिने’ पाकेट से पेपर निकाला होता तो शायद -" अन्तरराष्ट्रीय फ़िलबदीह मुशायरा सम्मान" भी दे देता
मदारी ने तमाशा आगे बढ़ाया----
जमूरे !
हाँ उस्ताद
एक दिन में कितनी ’ग़ज़ल’ कह लेता है
ज़्यादा नहीं उस्ताद--यही 8-10
तो आज से तू मेरा उस्ताद और मैं तेरा जमूरा--ये ले मेरी डुगडुगी--मदारी ने अपनी डुगडुगी उसे थमा दी

और आप दोस्तों की दुआ से  यह हक़ीर फ़क़ीर ’कल से ’एक अदबी मंच का ’एड्मिन’ बन गया है---आप के आशीर्वाद का आकांक्षी हूँ

फ़ेसबूक पर कुछ मंच वाले  ऐसे ही डुगडुगी बजा बजा कर शायरी के नाम पर ’तमाशा’ दिखा रहे है
अस्तु

-आनन्द.पाठक-