मंगलवार, 27 नवंबर 2018

व्यंग्य 51 : बोल जमूरे !

एक लघु व्यथा - : बोल जमूरे !

-’बोल ज़मूरे !’
-’हाँ उस्ताद’
’-’जो पूछूँगा ,बतलाएगा ?”
-’बतलाउँगा”-
-जो गाऊँगा वो गाएगा ?
-गाऊँगा’
-मिसरा’ पर गिरह लगाएगा
लगाऊँगा
-तो लगा इस ’मिसरे ’पर गिरह

भाईजान साहिबान कदरदान  मेहरबान ,अब आप दिल थाम कर बैठिए।  मेरा ज़मूरा एक मिसरा पर ’गिरह’ लगायेगा
-तो हाँ ज़मूरे ! तो लगा इस मिसरा पर गिरह--’आप आए बहार आई"
-किसी की पाकेट मारआई- जमूरे ने गिरह बांधा
भीड़ ने तालियाँ बजाई---जमूरे ने सर झुकाया

-जमूरे ! अब दूसरे मिसरे पर गिरह लगा
पत्थर मारा ,कुत्ता जागा----उस्ताद ने मिसरा दिया
सोया साधू ,उठ कर भागा----जमूरे ने गिरह लगाया

भीड़ ने तालियाँ बजाई ,वाह --वाह-- मुबारक हो-- मुबारक हो  ,बधाई--बधाई
एक ने उचारा--क्या क़ाफ़िया मिलाया है
दूसरे ने कहा-- क्या बह्र मिलाया है--मीर का बह्र है
तीसरे ने कहा---ग़ालिब याद आ गए--लाजवाब ,--भूतो न भविष्यत
चौथे ने अपनी "बायें"  पाकेट से एक कागज निकाला और ज़मूरे का नाम पूछा और नाम लिख कर जमूरे को थमा दिया। जमूरे ने पढ़ा---"अखिल भारतीय फ़िलबदीह मुशायरा सम्मान--अमुक को दिया जाता है"
जमूरा सब को झुक झुक कर आदाब बजाया -,"जर्रा नवाज़ी आप की वरना मैं क्या --एक अदना सा "--जमूरा और झुक जाता है
अगर उस चौथे व्यक्ति ने अपने  ’दाहिने’ पाकेट से पेपर निकाला होता तो शायद -" अन्तरराष्ट्रीय फ़िलबदीह मुशायरा सम्मान" भी दे देता
मदारी ने तमाशा आगे बढ़ाया----
जमूरे !
हाँ उस्ताद
एक दिन में कितनी ’ग़ज़ल’ कह लेता है
ज़्यादा नहीं उस्ताद--यही 8-10
तो आज से तू मेरा उस्ताद और मैं तेरा जमूरा--ये ले मेरी डुगडुगी--मदारी ने अपनी डुगडुगी उसे थमा दी

और आप दोस्तों की दुआ से  यह हक़ीर फ़क़ीर ’कल से ’एक अदबी मंच का ’एड्मिन’ बन गया है---आप के आशीर्वाद का आकांक्षी हूँ

फ़ेसबूक पर कुछ मंच वाले  ऐसे ही डुगडुगी बजा बजा कर शायरी के नाम पर ’तमाशा’ दिखा रहे है
अस्तु

-आनन्द.पाठक-

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