सोमवार, 5 अक्तूबर 2020

एक व्यंग्य 66 : किस्सा मुहावरों का

                व्यंग्य 66 : किस्सा मुहावरों का....
 
    अपने ब्लाग पर "बेबात की बात" का एक सिलसिला शुरु किया था जिसके एक क़िस्त में : किस्सा सास बहू की बात पर लिखा था । आप ने भी अभी तक पढ़ लिया होगा । उसके बाद ,"सास-बहू’ की इतनी धमकियाँ मिली कि लिखने से लगभग तौबा ही कर लिया था  और  समझिए कि ’अर्ध-सन्यास’ ही ले लिया था । विषय  ही ऐसा था। फिर हिम्मत न हुई कि यह सिलसिला आगे जारी रखता ।
  ख़ैर अब सरकार बदल गई है ,कुछ मौसम बदल गया है। कुछ हिम्मत जुटा कर  एक बार फिर ....
 ’बेबात की बात’ का सिलसिला इतना चला कि हमारे मित्रों और ब्लाग के सदस्यों ने खुल कर भाग लिया । इस से सिद्ध होता है कि ’बेबात की बात’ पर और बे-सिर पैर की बातों पर भी मंच के मनीषीगण कितना आनन्द उठाते हैं ।कितने उत्साह से रसास्वादन करते है और सुख को प्राप्त होते हैं । इस के इतर, अभी भी कई लोग हैं कि बेबात की बात पर बेसबब भिड़ जाते हैं । टी0वी0 पर चर्चा /बहस में ,संसद में ,विधानसभा में तो हर रोज़ ही भिड़ते हैं ।फिर हम सब रसास्वादन करते है ।
ख़ैर
मंच पर किसी मधु गुप्ता जी ने ’कौन न मर जाये इस सादगी पे ऎ ख़ुदा’-वाली अन्दाज़ में लिखा  ---:अक्सर मैं गायब रहती हूँ \जब पढती हूँ तभी सोचती हूँ कुछ लिख दूं ।फिर वही ढाक  के तीन पात ( ढाक के पेड़ पर क्या , तीन पात’ ही होते है , इस कहावत की जन्मभूमि क्या है ?
 
इस मुहावरे को तो हम सभी बचपन से सुनते आये हैं।परन्तु इसकी  "जन्म भूमि" के बारे में  न पढ़ा ,न पढ़ाया गया । तो मुझे नहीं मालूम।। ,कभी ज़रूरत ही नही पड़ी- । मुहावरा है, बोल दिया तो बोल दिया । पर हाँ, इसके जन्म भूमि की नहीं तो "पृष्ठ भूमि" की तलाश तो ज़रूर कर सकते हैं ।
मैने "ढाक का पेड़"- तो नहीं देखा , गमले में उगा ज़रूर देखा। 3-पात वाला। कई बार सोचा कि 1-पात और निकल जाता तो कम से कम मुहावरे को झूठा साबित करने का गौरव प्राप्त करता। बड़ा जतन किया, खाद दिया ,पानी दिया, धूप दिखाया ,अँधेरा दिखाया -मगर वही "ढाक के तीन पात"
       हो सकता है कि भविष्य में ऐसे ढाक की जाति, प्रजाति या अनुवांशिकी में अदलाव-बदलाव कर हमारे कुछ वैज्ञानिक  बीज तैयार कर ले तो 3-क्या 13-पात भी हो जाये । जैसे बैगन अब बैगनी नही सफ़ेद भी और हरा भी होता है । तब मुहावरा बदल जायेगा --"फिर वही ढाक के 13-पात"
मुहावरा बदलने की बात चली तो 2-मुहावरा और याद आ गया
 
सोने पे सुहागा -बनाम-सोने में सुगन्ध  " सोने पे सुहागा ही ज़्यादा प्रचलन में है। सरसरी निगाह से दोनो मुहावरे देखने में तो एक जैसे है मगर बारीक़ से देखने में, दोनों में फ़र्क़ है।
सोने पे सुहागा -- मतलब कि एक अच्छी चीज के गुण में और निखार आ जाना । सुहागा सोने की मैल काट कर उसे और चमकीला बना देता है,निखार देता है  ,गुणवत्ता को और बढ़ा देता है। अगर सोने पे सुहागा है तो भी क्या होता? एक ही गुण {दृश्य]से युक्त होता
श्रीमती जी को मेरे द्वारा भेंट की गई  22-कैरेट वाली चेन भी उन्हें 18-कैरेट की ही लगती हैं । मेरी फ़टीचरी देख कर कहती हैं यह फ़टीचर कवि 22-कैरेट चेन क्या पहनायेगा। यह मियाँ सोने पे ’सुहागा ’ नहीं ,"अभागा" है ।
  मगर सोने में सुगन्ध ?
 यह मुहावरा उतना प्रचलन में तो नहीं है मगर एक अच्छी चीज़ में एक ’अन्य’  गुण भी शामिल हो जो उसकी गुणवत्ता को और बढ़ा दे । सोने की चमक [दृश्य ज्ञानेन्द्रिय से] के साथ साथ अन्य गुण ’सुगन्ध" [ घ्राणेन्द्रिय से भी] युक्त है
सत्य है कि सोने में सुगन्ध नहीं होता -अगर होता तो कैसा होता । अवश्य ही दो गुणों से युक्त होता। इस मंच पर बहुत से मनीषी ऐसे हैं जो सोने में सुगन्ध भी हैं।
 अब मंच के विद्वान स्वयं तय करें कि वो सोने पे सुहागा -सही है  या -सोने में सुगन्ध ???
एक दूसरा मुहावरा देखते हैं ।
कहाँ राजा भोज और कहाँ गंगू तेली यह मुहावरा ऐसे ही प्रचलित है । बचपन से सुनता आ रहा हूँ। जब भी सुनता हूँ एक बात खटकती  है । दरअसल ये मुहावरा होना चाहिये था -" कहाँ राजा भोज और कहाँ भोजू तेली"-।ज़्यादा तर्क संगत प्रतीत होता है ।"
मगर अफ़्सोस कि मैं मुहावरा बदल नहीं सकता ,लोगो की ज़ुबान पर इतना चढ़ चुका है कि बदलने के  बारे में सोचना भी गुनाह है
 बहस तो हो ही सकती है । बेबात की बात से बात तो निकल ही सकती है ।
 
"राजा भोज" और :गंगू तेली" में कोई साम्य नहीं । न नाम का न पेशे का। अगर कुछ अन्तर होगा तो पद का हो सकता है । सामाजिक स्तर का हो सकता था ।अमीरी बनाम गरीबी का हो सकता है । बड़े आदमी बनाम छोटे आदमी का हो सकता है। गंगू ने कभी नहीं कहा होगा कि वो "राजा भोज" है।
दुनिया ने उसे ज़बर्दस्ती घसीट लिया ,इस मुहावरे में ।
 
हाँ अगर ’गंगू तेली" के बज़ाय ’भोजू’ तेली होता तो बात ज़रूर समझ में आती । नाम साम्य के कारण जब ज़माना उसे हिकारत की नज़र से -"भो्जू तेली" को "भोजुआ तेली" कह कर पुकारता रहा होगा ।तो बेचारा भोजू तेली क्या कहता होगा । ग़रीब और मजलूम को लोग ऐसी ही हिकारत भरी नज़र से देखते हैं ,बुलाते है ।
सोच का फ़र्क़ है। ,कहाँ आनन्द ..कहाँ अनन्दवा ’...कहाँ ’आनन्द’ कहाँ सतोषानन्द—कहाँ आनन्द कहाँ मुल्कराज आनन्द--
 कहाँ "भोज " कहाँ :भोजुआ"
हमारे हिसाब से कहाँ राजा भोज और कहाँ भोजू तेली"-मुहावरा ज़्यादा सही रहता ।
अब वक़्त आ गया है कि दशकों से चले आ रहे ऐसे मुहावरों पर पुनर्विचार करें ।
अस्तु
 

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